जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते उत्तरप्रदेश के नौजवानों को फटकारते हुए कहा कि यूपी वालों , कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगोगे और पंजाब में मजदूरी करोगे, तो कई लोगों को यह नागवार गुजरा। इसकी भाषा शायद ठीक नहीं थी। आखिर भारत के अंदर रोजी-रोटी के लिए लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने को भीख मांगना तो नहीं कहा जा सकता। वे अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं, भीख या मुफ्तखोरी की नहीं।
किन्तु राहुल आधुनिक भारत की एक बड़ी समस्या की ओर भी इशारा कर रहे हैं। हमारा विकास कुछ इस तरह हुआ है कि रोजगार और समृद्धि देश के कुछ हिस्सों तथा महानगरों तक सीमित हो गई है। बाकी हिस्से पिछड़े, रोजगारहीन और श्रीहीन बने हुए हैं। देहातों में तो हालत और खराब है। वहां बेकारी और मुर्दानगी छायी हुई है और भारी पलायन हो रहा है। जो देहात में रहते हैं वे भी ज्यादातर मजबूरी में रह रहे हैं। दूसरी ओर नगरों व महानगरों में भीड़ बढ़ती जा रही है तथा वहां झोपड़पट्टियों की तादाद विस्फोटक तरीके से बढ़ रही है।
सिर्फ यूपी-बिहार ही नहीं, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा, उत्तराखंड, तेलगांना और विदर्भ से भी बड़ी संख्या में रोजगार की तलाष में नौजवान बाहर जाते हैं। मुंबई, सूरत, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जहां भी काम मिले, वे निकल पड़ते हैं। कई बार उनके साथ धोखा होता है। पूरी मजदूरी नहीं मिलती, खुले आसमान के नीचे पड़े रहते हैं या गंदगी के बीच नरकतुल्य झुग्गियों में रहते हैं, पुलिस उन्हें तंग करती हैं, दुर्घटना में घायल होने पर ठेकेदार ठीक से इलाज नहीं कराता है। कई बार बेमौत मारे जाते हैं और घर वालों को खबर भी नहीं होती। पिछले दिनों आगरा के पास यमुना एक्सप्रेसवे के निर्माण में लगे इलाहाबाद के मजदूरों पर रात में सोते समय जेसीबी मशीन चढ़ जाने की मार्मिक खबर आई थी।
पिछले दो सौ सालों से चल रही भारतीय गांवों के कुटीर उद्योगों व धंधों के नष्ट होने की प्रक्रिया का नतीजा हुआ है कि खेती छोड़कर वहां कोई धंधा नहीं बचा है। खेती में भी गहरा संकट है और वह घाटे का धंधा बनी हुई है। यह आधुनिक पूंजीवादी विकास से उपजा बुनियादी संकट है जो मनरेगा जैसी योजनाओं से न हल हो सकता था और न हुआ।
गांव से पलायन इसलिए भी बढ़ रहा है कि वहां शिक्षा और इलाज की व्यवस्था या तो है नहीं, या है तो बुरी तरह चरमरा गई है। सरकारी स्कूलों की व्यवस्था तो सुधरने की बजाय बाजारीकरण और निजीकरण के हमले की भेंट चढ़ रही है। गांवों के बहुत लोग अब अपने बच्चों को अच्छी षिक्षा दिलाने के लिए कष्ट उठाकर भी शहरों में रहने लगे हैं।
कभी-कभी लोग भोलेपन से सोचते हैं कि हमारे इलाके में कोई कारखाना लग जाएगा तो हमारा विकास हो जाएगा और हमें यहीं पर रोजगार मिलने लगेगा। कारखाने को ही विकास का पर्याय मान लिया जाता है किन्तु हर जगह कुछ ठेकेदारों, व्यापारियों और दलालों को छोड़कर बाकी लोगों को इसमें निराशा ही हाथ लगती है।
मध्यप्रदेश में रीवा के पास जेपी सीमेन्ट कारखाने का अनुभव इस मामले में बड़ा मौजूं है। करीब 25 साल पहले इस कारखाने के लिए जमीन लेते समय गांववासियों को इसी तरह रोजगार, विकास और खुषहाली के सपने दिखाये गये थे। किन्तु दैनिक मजदूरी पर कुछ चैकीदारों को लगाने के अलावा उन्हें रोजगार नहीं मिला। कारखाना चलाने के लिए तकनीकी कौशल वाले कर्मचारी बाहर से आये। उल्टे कारखाने के प्रदूषण और चूना पत्थर खदानों के विस्फोटों से लोगों का जीना हराम हो गया। स्वास्थ्य, खेती, मकान सब प्रभावित होने लगे। ज्ञापन देते-देते थक गए तो सितंबर 2008 में रोजगार और प्रदूषण रोकथाम की मांग को लेकर उन्होंने आंदोलन किया। उन पर गोली चली। उसमें एक नौजवान मारा गया, 70-75 घायल हुए। जो नौजवान मारा गया, वह सूरत में काम करता था और छुट्टी में घर आया था। सवाल यह है कि जिस गांव की जमीन पर यह विशाल कारखाना बना, वहां के नौजवानों को काम की तलाष में एक हजार किलोमीटर दूर क्यों जाना पड़ रहा है ?
दरअसल आधुनिक कारखानों से रोजगार की समस्या कहीं भी हल नहीं होती। यह एक भ्रम है। उनसे रोजगार का सृजन कम होता है, पारंपरिक आजीविका स्त्रोतों का नाश ज्यादा होता है। यहां तक की औद्योगिक क्रांति के दौर में भी ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप की रोजगार समस्या गोरे लोगों के अमरीका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और एशिया में फैल जाने तथा बस जाने से हल हुई, कारखानों से नहीं। अब जो नए कारखाने लग रहे हैं उनमें मशीनीकरण, स्वचालन तथा कम्प्यूटरीकरण के चलते तो रोजगार और भी कम मिलता है। मशीनीकरण के कारण खेती में भी रोजगार कम हो रहा है। हारवेस्टरों और ट्रैक्टरों की क्रांति ने भूमिहीन गरीबों और प्रवासी आदिवासी मजदूरों का रोजगार भी छीन लिया है। अब रोजगार की विकराल समस्या खड़ी होती जा रही है। इस समय रोजगार का संकट पूरी दुनिया पर छाया है। लंदन के दंगे हो, वाल स्ट्रीट कब्जे का आंदोलन या अरब देशों की जनक्रांतियाँ – सबके पीछे बेरोजगारी-गरीबी से उपजी कुंठा, अनिश्चितता व असंतोष है।
क्या कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता है, जिससे लोगों को अपने जिले में, अपने घर के पास या अपने गांव में ही अच्छा रोजगार मिलने लगे ? जरुर हो सकता है, किन्तु इसके लिए हमें राहुल गांधी नहीं, एक दूसरे गांधी की ओर देखना पड़ेगा जिसे हम 2 अक्टूबर तथा 30 जनवरी को रस्म अदायगी के अलावा भूल चुके हैं। हमें आधुनिक विकास की चकाचैंध से अपने को मुक्त करना होगा। शहर के बजाय गांव को, मशीन की जगह इंसान को और कंपनियों की जगह जनता को विकास के केन्द्र में रखना होगा। गांवों को पुनर्जीवित करना होगा। बड़े कारखानों की जगह छोटे उद्योगों व ग्रामोद्योगों को प्राथमिकता देनी होगी। भोग-विलास की जगह सादगीपूर्ण जीवन को आदर्श बनाना होगा। विकास और प्रगति की आधुनिक धारणाओं और मान्यताओं को भी समय तथा जमीनी अनुभवों की कसौटी पर कसना होगा।
यदि हम चाहते हैं कि यह दुनिया ऐसी बने, जिसमें सबको सम्मानजनक रोजगार घर के पास मिले, सबकी बुनियादी जरुरतें पूरी हों, कोई भूखा या कुपोषित न रहे, कोई अनपढ़ न रहे, इलाज के अभाव में कोई तिल-तिल कर न मरे, अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होने के बजाय खतम हो, सब चैन से रहे तो हमें विकास की पूरी दिशा बदलना होगा। आधुनिक सभ्यता इस मामले में बुरी तरह असफल हुई है। इसका विकल्प ढूंढना होगा। अफसोस की बात है कि राहुल हो या नीतीश, मायावती हो या मुलायम, किसी के पास इसकी समझ या तैयारी नहीं दिखाई देती।
(ईमेल – sjpsunilATgmailDOTcom)
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(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं आर्थिक-राजनीतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।)
– सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111 मोबाईल 09425040452
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