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काशी के तुलसी घाट की चर्चा करते हुए मैंने तुलसीदास द्वारा अयोध्या में कही गयी :
‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘
इस पंक्ति का जिक्र किया था । ‘पंगेबाज’ अरुण के गले नहीं उतरा तुलसीदास का अयोध्या में मस्जिद में सोना । टीप दिया कि ‘मसीद’ के माएने ‘मस्ती’ होगा । यानी उस पंक्ति के माएने मित्र चिट्ठेबाज के अनुसार हो जाएँगे , ‘ माँग के खाऊँगा और फिर मस्ती में सो जाऊँगा , बिन्दास ! बिना किसी पंगे के ! ‘
अरुण की टीप से छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद उत्साहित हो गए ।
सेक्युलरिज्म के हित में यही है कि मसीद का अर्थ मसजिद मान लिया जाय।
जाकी रही भावना जैसी…
यानी अनुनाद को लगा कि तुलसीदास की बात का मैंने सेक्युलरीकरण कर दिया । उन्हें छद्म हाफ़ पैन्टी कह रहा हूँ चूँकि वे वास्तव में छद्म न होते तब कहते , ‘ मसीद ‘ का मतलब मस्जिद ही तो है । अयोध्या की ‘मसीद’ में ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम प्रकट हुए थे । ऐसे में तुलसी जैसा अनन्य रामभक्त अन्यत्र शयन क्यों करता ?
भगवान वहाँ तुलसी के जमाने में प्रकट हुए या कलेक्टर नैय्यर के जमाने में यह बहस नई हो जाएगी ।
बहरहाल , तुलसीदास छद्म सेक्युलरवादी सिर्फ़ इस पंक्ति से नहीं बन जाते । तुलसी भए अक़बर के जमाने में । तब, बाबर के जमाने की तथाकथित ग़लतियों पर चुप्पी क्यों साधे रहे ? अदम गोंडवी के शेर का मिसरा याद कर के?
ग़र ग़लतियाँ बाबर ने की जुम्मन का घर फिर क्यों जले ?
जुम्मन का घर जलाने नहीं गए, ऊपर से कह गए
” परहित सरिस धरम नहि भाई ,
परपीड़ा सम नहि अधमाई “
परपीड़ा का धर्म उन्होंने हाफ़ पैन्टियों के गुरुणामगुरु हिटलर से नहीं सीखा ?
यह छद्म सेक्युलरवादी नर – नारी समता और स्त्री – स्वतंत्रता की बातें भी करते हैं ! हिन्दू-राष्ट्र के कल्पना का समाज तो मनु महाराज की संकल्पना के आधार पर होगा !शूद्रों की भाँति स्त्रियों के कान में भी पिघला सीसा डालने वाला ! विद्वान अरुण या छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद से पूछिए कि गोस्वामीजी ‘ पराधीन सपनेहु सुख नाहि ‘ कह गए, किस सन्दर्भ में ? उसका पूवार्ध क्या है ? एक विशिष्ट सोच के धनी महापुरुषों के लिए डॉ. लोहिया कह गए , ‘ हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर कहीं – कहीं नया पूर्वार्ध ही गढ़ डाला – ” कर विचार देखहु मन माहि ” ।
‘ पराधीन सपनेहु सुख नाहि ‘ के वास्तविक पूर्वार्ध से पता चलता है कि किसकी पराधीनता की चर्चा महाकवि ने की है । रामचरितमानस पर विचार करते वक्त ‘रामायण मेला’ की कल्पना करने वाले राममनोहर लोहिया की इस बात पर भी गौर करें :
” दोहे- चौपाई को समझते समय सामयिक परिस्थिति और चिर सत्य के भेद को दिमाग में रखना चाहिए । धार्मिक कविता का यही सबसे बड़ा दोष है कि क्षणभंगुर समाज और भ्रष्ट पात्रों की भ्रष्ट -चौपाइयों और संसार के सर्वश्रेष्ठ आनन्द अथवा नीति पर एक अच्छत-रोली ,गंगा-जल छिड़क देती हैं, सभी पवित्र हो जाते हैं । “
अब यह अरुण बताएँगे कि ‘ कोऊ नृप होए हमे का हानि’ किस महान चरित्र का कथन था ? इस पंक्ति को मानने वाले मौजूदा समाज में भी मौजूद हैं । वे यह भी मान कर खुश हो लेते होंगे कि मानस में यह दर्शन है !
इस देश की जनता के दिमाग में अच्छी तरह बैठा हुआ है कि राम ने गद्दी का त्याग किया , कुर्सी के लिए ख़ून-खराबा नहीं किया था ।
स्वामी विवेकानन्द के ‘ छद्म सेक्युलर ‘ विचार मैंने जब अपने चिट्ठे पर दिए थे तब सरस्वती शिशु मन्दिर में पढ़े एक मित्र ने लिखा था , ‘
दिक्कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र उत्तिष्ठ जागृत से शुरू होता है और अमरीका वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्म हो जाता है । बस । इससे आगे विवेकानंद की बातें बताना उनके लिए असुविधाजनक हो जाता
है ।
प्रिय मित्र,
तुलसी बहती गंगा हैं जो जैसा चाहे वैसा उपयोग कर ले. आप इन शब्दों का जैसा मतलब निकाल रहे हैं उन्हीं शब्दों से मोरारी बापू कुछ और मतलब निकालते हैं और स्वर्गीय विश्वनाथ कुछ और मतलब निकालते थे. जिसको जो समझ में आ जाए.
तुलसी के ही शब्दों में
भवानी शंकरौ बन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ,
याभ्या बिना न पश्यंति सिद्धास्वान्तस्थमीश्वरम् ।।
अपनी समझ के अनुरूप हर कोई संसार देखने और भगवान की अवधारणा तय करने के लिए स्वतंत्र है. आपने अच्छा विषय उठाया है. इसी बहाने लोग तुलसी को याद तो करेंगे. पुन: आपका धन्यवाद.
।। अलख निरंजन ।।
किसी भी मनीषी के विचारों में से अपने काम भर की बात निकलना तो सबकी आदत होती है, लेकिन राजनेताओं के साथ संकट यह है कि वे उसे मूल संदर्भों से तोड़ भी देते हैं. यह बात कबीर और तुलसी दोनों के साथ हुई. दोनों समाजचेता क्रन्तिधर्मी कवियों को चमत्कारी बाबा बना दिया गया.
“ईष्ट देव” और “अलख निरंजन” दोनो भाईयों ने बिलकुल सही बात कही है, इन “कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों” का यह एक प्रिय शगल है, कैसे तथ्यों को तोड़मरोड़ कर उसे हिन्दू विरोधी बताया जाये, फ़िर संस्कृति विरोधी बताया जाये और आरएसएस को कैसे गरियाया जाये… हालांकि इससे संघ को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि जैसे-जैसे इनका गुर्राना बढेगा, संघ की ताकत उसी अनुपात में बढती जायेगी । तुलसीदास हों या सरस्वती वन्दना, चाहे वन्देमातरम, इन लोगों को सिर्फ़ गलत अर्थ निकालना ही आता है… इनके विचार में भारतीय संस्कृति नाम की कोई चीज है ही नहीं, भारत का इतिहास मुगलों के शासन से शुरु हुआ और अंग्रेजों पर खत्म हो गया, ऐसा इनका मानना होता है… इसलिये इनसे बहस में उलझने का मतलब होता है अपना ही दिमाग खराब करना… और इनको लगता है कि गरीबों, दलितों और आदिवासियों के भले का ठेका एकमात्र इन्होंने ही ले रखा है… संघ कुछ भी बोले उसे सांप्रदायिक ठहराओ और सेकुलर एनजीओ खडे़ करके बाहरी माल कूटो…कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन लगता है कहीं यह कीचड़ में खींचने की साजिश तो नहीं ?
लीजिए अब आपको किसी ‘छद्म’ जैसे शब्द को लिखने की जरूरत भी नहीं रह गई- यूँ भी इसे लिखने में काफी मुश्किल होती है, कीबोर्ड पर-
मामला सीधे संघियों व सेक्यूलरवादियों के बीच हो गया
भाई अलख निरंजन जी
शव्दों के अर्थ में श्रद्धा की दखल नहीं चलती। यहाँ मसीद का और कोई अर्थ निकालना बाबा की कविता की ऐसी-तैसी करना है। और तुलसी दास कोई भूले -बिसरे गीत नहीं हैं कि उन्हे याद करने के लिए बहाना चाहिए।
इस विषय पर मेरी कोई दो राय नहीं। मैं अफ़लातून की बात से सहमत हूं। सुरेश चिपलूनकर, पंगेबाज़ भैया यह मानते हैं कि वे संघी है। ये उनकी स्पष्टवादिता है जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। बाक़ी रहा कौन जिसे बधाई दूं?
जो ‘मांग के खाइबो, मसीद में सोइबो’ में अपने संकीर्ण अर्थ घुसेड़ रहे हैं वे न काव्य को समझते हैं और न करुणा को . धर्म की समझ के बारे में तो जितना कम बोला जाये उतना अच्छा है . वे एक बार ‘मानस का हंस’ पढें तो शायद कुछ जान पाएं तुलसी को और तुलसी होने की पीड़ा को . पर उन्हें तुलसी की पीड़ा से क्या लेना-देना . तुलसी उनके लिए वहीं तक उपयोगी हैं जहां तक वे उनकी कार्यसूची में काम आते हैं . तुलसी उनके लिए एक धार्मिक झंडा हैं जिसे वे काम पूरा होने पर लपेट कर रख देते हैं .
तुलसी के समय में भी उनके पीड़क ऐसे ही रहे होंगे — धर्मांध और जड़ . मसीद का अर्थ ‘मस्जिद’ ही है और हो सकता है . जिसका अभिप्राय यही है उनका कोई ठौर-ठिकाना नहीं था . इसके ध्वन्यार्थ को समझने की ज़रूरत है . जो मांग कर खा रहा है वह किसी राजमहल में रुकने तो जाने से रहा . मस्जिद में सोने का अर्थ यही है कि वे कहीं भी रुक सकते या रुक जाते थे . वह जाहे खानकाह हो या मस्जिद या मठ या मंदिर . वह एक भिक्षुक-परिव्राजक की मजबूरी और उससे कहीं अधिक उसकी चेतना के उदात्त स्तर की ओर भी इंगित करता है .
जो मसीद का अर्थ नहीं समझ पा रहे हैं , उन्हें तुलसी के ‘गरीबनिवाज़’ या ‘गरीबनवाज़’ राम कैसे समझ में आते हैं यह मेरी समझ के बाहर है . करुणानिधान,कृपालु,दीनदयाल राम के लिए यह शब्द तुलसी ने कई बार प्रयोग किया है,अब इसका क्या किया जाय पूछिये इन व्याख्याचार्यों से . क्या इसे निकाल फेंकें ?
तुलसी के धर्मांध और संकीर्ण समर्थक तथा तुलसी के दलितवादी-महिलावादी विरोधी दोनों ही जड़ता के चलते-फिरते स्तूप प्रतीत होते हैं . विगत समय को आंख-मूंद कर समझने के खतरे तो जगजाहिर हैं पर उसे पश्चिम से आई आधुनिक संकल्पनाओं की जकड़बंदी और हदबंदी में समझने-समझाने के अपने खतरे हैं .
भाई अफलातून जी और सुरेश जी
भारत में राजनीतिक पार्टियों से जुडे लोग आज तक मुझे किसी चीज का सदुपयोग करते दिखे नहीं. वह चाहे वामपंथी हों या समाजवादी या फिर संघी. अपने मूल रुप में सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. तुलसी से इनमें से किसी को कुछ नहीं लेना-देना है. और हाँ एक बात और कहूं, संघियों में तो इतना नैतिक साहस भी नहीं है कि वे यह मान सकें कि वे राजनीतिक संगठन हैं. यह अलग बात है कि काम सारे राजनैतिक उद्देश्यों से और राजनैतिक गुणा-भाग के साथ ही करते हैं. थोडा उलट-पलट कर यही बात वामपंथियों-समाजवादियों और धर्मानिरपेक्षतावादियों के साथ भी है. अव्वल तो बात यह है कि जिसे भी सत्ता का नशा चढ़ा और जिसने भी संसद के कोठे की ओर रुख किया, वह किसी के विश्वास के काबिल नहीं रह जाता. बाक़ी तुलसी से सम्बंधित सवालों के जवाब भाई बोधिसत्व और प्रियंकर ने दे ही दिया है.
एक आग्रह और है. इस पद को पूरा पढ़ें. ठीक-ठीक याद तो नहीं. लेकिन जैसा याद आता है यह पद कुछ इस तरह है:
धूत कहो, अवधूत कहो, जोलहा कहो कोऊ
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब
काहू की जात बिगारब न सोऊ
हौं तौ सरनाम गुलाम हौं राम कौ
माँग के खैहो, मसीत में सोइहौं
लेबे को एक न देबे को दोऊ.
बेहतर होगा कि ‘कवितावली’ देख लें. इस पद को इसके पूरे संदर्भों समेत पढ़ लें और फिर इसके सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संदर्भों पर कोई राय बनाएं. तुलसी किसी पार्टी द्वारा भाडे पर रखे गए गवैये या नचनिये नहीं हैं, जिन्हे जैसे चाहो नचा लो. जो चाहो गवा लो. इनका यह पद अपने समय के ब्राह्मणवाद के खिलाफ है. जालिम शासन के खिलाफ है. इसी का एक और पद है:
खेती न किसान को बनिक को बनिज नहिं
भिखारी को न भीख बलि चाकर को न चाकरी
सीद्यमान सोच बस कहै एक एकन सो
कहॉ जाइ का करी.
यह सच है अकबर के शासन का. लेकिन संघ इसे नहीं उठाएगा. क्योंकि सत्ता में आने के बाद वह भी यही देगा. अपने लिए मुश्किल क्यों खडी करे? चाहिए तो अभी देख लीजिए. हिंद महासागर में हजारों साल पहले बने जिस सेतु (उसे राम या आदम जिसने भी बनाया हो) को नष्ट करने से भारत का अरबों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ेगा, उसे ये श्रध्दा का मामला बाना रहे हैं. समझ में नहीं आता भारत के सारे राजनेता जनता को इतना मूर्ख क्यों समझते हैं!
प्रियंकर के विचार सत्य हैं इसलिए कड़वे लगेंगे। मानस के हंस पढ़नी होगी तभी हम समझ सकेंगे।
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just awesome!
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