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Posts Tagged ‘किशन पटनायक’

मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है,रहेगा। (1)पहला कारण वह है जो अधिकांशतः चर्चा में आता है ।तमाम औद्योगिकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती,पशुपालन आदि पर आश्रित है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत खेती व पशुपालन ही है।किंतु खेती का महत्व महज इस सांख्यिकीय कारण से ही नहीं है। दो और ज्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी कारण हैं। (2) दूसरा कारण यह है कि खेती से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत भोजन की पूर्ति होती है। अभी तक खाद्यानों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं ढूढ पायी है और भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए जब स्वाभिमानी और जागरूक समाज या राष्ट्र खाद्य स्वालंबन की रणनीति बनाते हैं या अंतरष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति को एक औजार बनाया जाता है, तो खेती का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। (3) खेती के साथ एक तीसरी विशेषता यह है कि मनुष्य समाज की आर्थिक गतिविधियों में यहीं ऐसी गतिविधि है, जिसमें वास्तव में उत्पादन और नया सृजन होता है। प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है।उधोगों, सेवाओं आदि अन्य आर्थिक गतिविधियों में प्रायः कोई नया उत्पादन नहीं होता है,पहले से उत्पादित पदार्थों(जिसे कच्चा माल कहा जाता है)का रूप परिवर्तन होता है।उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें ,तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में ऊर्जा की खपत होती है,खेती और पशुपालन में उर्जा(या कैलोरी )का सृजन होता है।खेती में वानिकी और खनन को भी जोड़ा जा सकता है,वे भी प्रकृति से जुड़े हैं, हलाकि एक सीमा से ज्यादा से ज्यादा खनन विनाशकारी हो सकता है। इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है।खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है।
इन तीन विशेषताओं के कारण मानव-समाज में खेती आदि का महत्व बना रहेगा।किन्तु आधुनिक सभ्यता और पूँजीवादी समाज में इन तीनों विशेषताओं को नकारने और पलटने की कोशिश हो रही है।ग्लोबीकरण ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है,जिससे नए संकट खड़े हो रहे हैं।खेती की जनई टेक्नोलॉजी इतनी आक्रामक है कि वह प्रकृति से जुड़ी इस गतिविधि को प्रकृति के विरुद्ध खड़ी कर रही,जिससे जल भंडार खाली हो रहें हैं, भूमि का कटाव, बंजरिकरण या दलदलीकरण हो रहा है,अधिकाधिक ऊर्जा की खपत हो रही है, वातावरण में विष घुलते जा रहे हैं और जैविकविविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है।खेती में कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ा है,जोखिम बढ़ी है और पैदवार में ठहराव आ गया है। उतनी ही पैदवार के लिए किसान को निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में रसायनिक खाद ,कीटनाशक दवाईयों तथा पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।किसान के संकट का एक स्रोत आधुनिक टेक्नोलॉजी है।इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति एवं खाद स्वावलम्बन के स्रोतों के बजाय अब खेती को तेजी से पूँजीवादी बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की न मिटने वाली भूख की रणनीति का एक पुर्जा बनाया जा रहा है।भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी जरूरत के अनाज,दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया मे जहाँ सस्ता मिलत है वहाँ से ले लें।इसी करण पिछले तीन चार सालों में ही यह हालत आ गई है कि जिस भारत के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती थी, उसे इस वर्ष भारी मात्रा में गेहूं आयात करना पड़ रहा है।खाद्य तेल का आयात तो पहले ही कुल खपत के आधे स्तर पर पहुँच गया है।अफ्रीका के लोग भी पहले अपनी जरूरत का अनाज स्वयं पैदा कर लेते थे।लेकिन यूरोप के गुलामी के दौर में वहाँ की खेती को इस प्रकार बदला व नष्ट किया गया कि अब वहां बारंबार भीषण अकाल पड़ते हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की खुशहाली कुछ क्षेत्रों, कुछ वर्गों और कुछ फसलों तक सीमित रही।लेकिन इस सीमित खुशहाली के दिन भी अब लद गए।जिस विश्व बैंक ने अपने पहले नई टेक्नोलॉजी के प्रचार प्रसार के लिए सभी आवश्यक उपादान(उन्नत बीज, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयां, सिचाई, बिजली, डीजल, आधुनिक कृषि यंत्र) सरकार द्वारा सस्ते व अनुदानयुक्त देने की सिफारिश की थी, उसी ने रंग बदल दिया।वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरष्ट्रीय कोष के निर्देश में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए क्रमशः इन सारे उपक्रमों को महंगा करने के रणनीति अपनाई । दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी।बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दामों के दोमों के दोनों पाटो के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था,लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे।संकट इतना गहरा हो गया कि किसान देश के कई हिस्से में और कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्म हत्या करने लगे पिछले छ सात वर्षों से किसानों की आत्म हत्या का दौर लगातार जारी है।यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जो जबरदस्त संकट का घोतक है।किन्तु इससे अप्रभावित भारत की सरकारें ग्लोबीकरण प्रणीत सुधारों की राह पर आगे बढ़ती जा रही हैं।भारत के छोटे और मध्यम किसान या तो आत्म हत्या कर लें या उनकी जमीने नीलाम हो जाय या वे स्वंय जमीन बेचने को मजबूर हो जाय, यह सुधारों का एक अघोषित एजेंडा है,क्यों कि जमीन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाय, जमीन की जोट बढ़ जाय और कम्पनियों के सीधे या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाय-यह कथित सुधरों का एक लक्ष्य है। इन्हीं सुधारों के अंतर्गत जमीन की हदबन्दी के कानून शिथिल किया जा रहा है,नए बीज कानून और पेटेंट कानून बनाए जा रहे हैं,जमीन की खरीद फरोख्त से लेकर बीज आपूर्ति,कंट्रैक्ट खेती, विपणन आदि खेती की सभी गतिविधियों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट दी जा रही है और सारी चिंताओ और चेतावनियों को ताख पर रखकर जीन समिश्रन खेती की अनुमति दी जा रही है।इस प्रकार खेती को कम्पनीयों के हाथ में सौपने तथा खेती से जुड़ी आबादी को भी कम करने का एक बर्बर अमानवीय अभियान चल रहा है।किंतु एक अहम सवाल इस अंधी दौड़ में भुला दिया जा रहा है।यूरोप-अमेरिका में जब खेती से आबादी को विस्थापित किया गया तो वह औद्योगिक क्रांति और गोरे लोगों द्वारा दुनिया के विशाल भूभाग पर कब्जे की प्रक्रिया में खप गई।लेकिन भारत जैसे देश में खेती में लगी आबादी कहाँ जायगी ?क्या भारत के उधोगों में और शहरों में उनके खपाने की क्षमता है?क्या देश में बेरोजगारी पहले से चरम सीमा पर पहुँच नहीं गई है?
संक्षेप में,भारतीय खेती के संकट के तीन आयाम हैं: (1) आधुनिक पूंजीवादी विकास में खेती को एक आंतरिक उपनिवेश के रूप में पूँजी निर्माण का स्रोत बनाना (2) हरित क्रांति के भ्रामक नाम से एक अनुपयुक्त,साम्रज्यवादी ,किसान विरोधी व प्रकृतिक-विरोधी टेक्नोलॉजी थोपना और (3) ग्लोबीकरण के तहत किसानों पर हमले तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे की प्रक्रिया को और तेज करना।कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों आयाम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
भारतीय खेती पर बढ़ते इस संकट ने पिछले तीन दशकों में अनेक सशक्त किसान आंदोलनों को जन्म दिया। तमिलनाडु, कर्नाटक ,महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकले।बाद में उड़ीसा,राजस्थान आदि प्रान्तों में भी किसानों के शसक्त आंदोलन उभरे।ये आंदोलन ज्यादातर मुख्य धारा के राजनीति दलों के बाहर, अलग एवं स्वतंत्र रहे।किसान आंदोलन ही नहीं ,इस अवधि के सभी जनांदोलन प्रमुख राजनीतिक दलों के दायरे से बाहर रहे,जिससे जाहिर होता है कि ये दल आम जनता से कटते गए और उनकी समस्याओं के संदर्भ में अप्रसांगिक बन गए। कहने को ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों के किसान प्रकोष्ठ या मंत्र हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी तंत्र से बाहर आकर किसान हित मे आंदोलन नहीं किया।
किशन पटनायक इस काल के भारत के प्रमुख समाजवादी चिन्तक और कर्मी रहे हैं। भारतीय राजनीति में जनांदोलनों की बढ़ती भूमिका को उन्होंने बहुत पहले पहचाना ,समझा, उनसे एक रिश्ता बनाया और उन्हें एक वैचारिक दिशा देने की कोशिश की।किसान आंदोलन के वे प्रबल समर्थक रहे।व्यवस्था परिवर्तन की किसी भी प्रक्रिया में वे किसान और किसान आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।वे किसान आंदोलन के इस पूरे दौर के भगीदार ,गवाह, नजदीक के पर्वेक्षक तथा हस्तक्षेप करने के इक्छुक रहे।इस प्रक्रिया में उन्होंने समय-समय पर लेख लिखे, भाषण दिए और टिप्पणियां कीं। उनमें प्रमुख लेखों एवं भाषणों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। इनसे हमें भारत के किसान आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां, अंतरदृष्टि और समझ मिलती है। पुस्तक के पहले खण्ड में भारत का किसान आंदोलन के क्रम में महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झांकी मिलती है।दक्षिण के किसान आंदोलन पर तो हिंदी में जानकारी दुर्लभ है। वोट क्लब की ऐतिहासिक रैली में टिकैत-शरद जोशी का झगड़ा भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस प्रसंग पर भी किशन पटनायक का एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें किसान आंदोलन की प्रमुख कमजोरियों को भी इंगित किया गया है। दूसरे खण्ड के लिखों से किसान आंदोलन की वैचारिक दृष्टि ,रणनीति और राजनीति के बारे में सम्यक विश्लेषक मिलता है, जो भावी किसान आंदोलन के लिये भी काफी मददगार हो सकता है,वैसे भी, भारत के किसान आंदोलन पर अच्छी पुस्तकें नहीं के बराबर हैं।डॉ ईश्वरी प्रसाद द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘भारत के किसान ‘दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी,वह भी अप्राप्य है।यानी किशन पटनायक की यह शिकायत सही है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने किसान आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया है। इस दृष्टि से भी किशन पटनायक की यह पुस्कट एक महत्वपूर्ण अभाव को पूरा करती है।
अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए।किसानों के बड़े-बड़े धरने और रैलियां ह
हुईं, जिनमें लाखों किसानों ने भाग लिया। किसानों का शोषण, कृषि उपज का उचित दाम न मिलना,किसानों पर बढ़ता कर्ज, किसानों पर बढ़ते हुए शुल्क, बिजली के बढ़ते बिल आदि उनके प्रमुख मुद्दे थे।लेकिन इतने सख्त आन्दोलनों के बावजूद आजाद भारत के किसान की क्या स्थिति है?किसान आन्दोलनों की जो प्रमुख मांगे थीं, वे पूरी होना तो दूर हालत उल्टी होती गई,किसान की दुर्गती बढ़ती गई।ग्लोबिकरण कि नीतियों ने उसे बड़ी संख्या में आत्म हत्याओं के कगार पर पहुँचा दिया। किसान आंदोलनों की तीव्रता भी धीरे-धीरे कम होती गई। वे ठंठे हो गये,कमजोर हो गए या बिखरते चले गए।ऐसा क्यों हुआ, इसके तटस्थ मूल्यांकन का समय आ गया है।
आम तौर पर किसी आंदोलन की असफलता के लिए इसके नेतृत्व तथा कुछ व्यक्तियों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन यह सरलीकरण और सतही विश्लेषण ही होता है गहराई से देखें तो इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो, किसान आंदोलनों में आम तौर पर व्यापक वैचारिक परिप्रेक्ष्य, दिशा और समझ का अभाव रहा।वे अपनी तत्तकालीन संकीर्ण मांगों में ही उलझे रहे।किसानों की स्थिति और किसानों के शोषण की ऐतिहासिक रूप से पड़ताल करते हुए गहराई से विशलेषण करने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।ऐसा विश्लेषण उन्हें इस अनिवार्य नतीजे पर पहुचाता की पूरी व्यवस्था को बदले वगैर किसानों की मुक्ति सम्भव नहीं है।इससे किसान आंदोलनों का चरित्र ज्यादा क्रांतिकारी बनता, दूसरा किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को बदलने और सत्ता को प्रभावित करने की संयुक्त रणनीति तथा योजना उन्होंने नहीं बनाई। यदि वे ऐसा करते, एक तो उन्हें देश के समस्त किसान आन्दोलनों को एकजूट करने की जरूरत का ज्यादा तीव्रता से अहसास होता। दूसरे, देश के अन्य शोषित और वंचित तबकों के आन्दोलनों के साथ एकता बनाने की जरूरत महसूस होती। साथ ही,किसानों की और शोषितों की एक अलग राजनीति खड़ी करने की दिशा में वे कदम बढ़ाते। यदि सरकारें बार-बार किसान विरोधी नीतियां अपना रही हैं, तथा दल परिवर्तन से सरकार की नीतियों में कोई फर्क नहीं आ रहा है,तो वे स्वयं किसान पक्षी राजनीतिक ताकत खड़ी करने के बराबर में गंभीरता से सोचते।किशन पटनायक ने इन दोनों आवश्यकताओं को अपने लेखन एवं भाषणों में बार-बार,अलग-अलग तरीकों से,अलग अलग रूपों में,प्रतिपादित किया है।
इस अर्थ में किसान आंदोलन एवं किसान संगठन राजीनीति से परे या अराजनीतिक नहीं रह सकते वे मौजूदा भ्रष्ट ,अवसरवादी,यथास्थितिवादी, निहित स्वार्थों वाले राजनीतिक दलों से अलग रहें, यह तो ठीक है।लेकिन उन्हें अपनी राजनीति बनानी पड़ेगी,नहीं तो ये ही दल उनका इस्तेमाल चुनाव में तथा अन्ययत्र अपनी ओछी व टुच्ची राजनीति के लिए करते रहेंगे। चुकी किसानों के स्वार्थ इस व्यवस्था के दूसरे समूहों के स्वार्थ से टकराते हैं, इसलिए किसान आंदोलन को अपनी राजनीति व रणनीति गढ़ना होगा।
किसान आंदोलन संकीर्ण भी नहीं हो सकता।वह एक ट्रैड यूनियन की तरह नहीं चलाया जा सकता, इस बात को भी किशन पटनायक ने रेखांकित किया है।।संगठित मजदूरों का आंदोलन संकीर्ण हो सकता है! एक फ़ैक्टरी के मजदूरों का वेतन मौजूदा व्यवस्था के अन्दर बढ़ सकता है ;व्यवस्था परिवर्तन के वगैर वह सम्भव है।लेकिन किसानों की आमदनी मौजूदा व्यवस्था में नहीं बढ़ सकती।इसका कारण न केवल यह है कि किसानों का तादाद बहुत ज्याद है और वे देश के आबादी का खास एवं सबसे बड़ा हिस्सा हैं। बल्कि यह भी है कि किसानों और गांव खेती के शोषण पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है।इसलिए किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी बनना ही पड़ेगा।
वैसे तो, मानव इतिहास की सारी नगरी सभ्यताएं व बड़े-बड़े साम्रज्य किसानों के शोषण पर ही आधारित थे बड़े-बड़े मंदिर, राजाओं और सामंतों के महल, उनकी ऐयासी, सेनाएं ,युद्ध सबका बोझा अंततः किसान ही उठाते थे।ज्यादा लगान व अत्याचार जब बर्दाश्त से बाहर हो जाते थे, तो कभी-कभी किसान विद्रोह भी होते, किन्तु ये विद्रोह तत्कालीन और स्थानीय होते थे। वे या तो दबा दिए जाते या कुछ राहत मिलने पर शांत हो जाते थे। औद्योगिक पूंजीवाद के साथ ही किसानों के शोषण ने पहली बार सार्वदेशिक तथा विकराल रूप धारण किया है।
18 वीं शताब्दि से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है,उसमें औपनिवेशिक शोषण अंतर निहित और अनिवार्य पूंजीनिर्माण के लिए अतिरिक्त मूल्य का स्रोत सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों का शोषण नहीं है, बल्कि दुनिया के उपनिवेशों के किसानों और मजदूरों का शोषण है, इसे रोजा लग्जमबर्ग और राममनोहर लोहिया ने अच्छी तरह समझाया है।उपनिवेशों के आजाद होने के बाद यह शोषण नव औपनिवेशिक तरीकों से जारी रहा है।देश के बाहर के उपनिवेशों या नव उपनिवेशों के शोषण मौक़ा नहीं मिलने पर पूंजीवाद देश के अंदर उपनिवेश खोजता है। सचिदानंद सिन्हा तथा किशन पटनायक ने इसे ‘आंतरिक उपनिवेश ‘ का नाम दिया है।पिछड़े और आदिवासी इलाके भी आंतरिक उपनिवेश हो सकते हैं लेकिन गांव और खेती भी एक प्रकार के आंतरिक उपनिवेश हैं।गांव और खेती में पैदा होने वाली चीजों के दाम कम रखकर, गांव के उधोग खत्म करके उन्हें कारखनिया माल का बाजार बनाकर गांव में विशाल बेरोजगारी एव कंगाली पैदा करके उधोग के लिये सस्ता श्रम जुटाकर ,तथा गांव और खेती को तमाम तरह की सुविधाओं व विकास से वंचित रखकर ही औद्योगिकरण तथा पूँजीवादी विकास संभव होता है और हुआ है। इसलिए आधुनिक पूँजीवादी औद्योगिक विकास में गांव खेती का शोषण अनिवार्य है।किसान मुक्ति के किसी भी आंदोलन को अंततः इस’ विकास ‘ और इस पर आधारित आधुनिक सभ्यता पर सवाल खड़े करने होंगे तथा इसके खिलाफ बगावत करनी होगी।इस वैचारिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में किसान आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएंगे, दिशाहीन होकर ठहराव के शिकार हो जायेगें।
भारत का ही उदाहरण ले। जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते अर्थशास्त्री एवं संख्यकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से देश में भारी उधोगों के विकास की जो योजना बनाई।वह खेती गांवो को शोषित वंचित रखने की रणनीति पर ही आधारित थी। सरकारी और निजी क्षेत्र ,दोनों में औद्योगिकरण को बल देने के लिये सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिले, मजदूरों को अधिक मजदूरी न देनी पड़े इसके लिए खाद्यानों के दाम भी कम रखे जाये–यह महालनोबिस मॉडल में अंतरनिहित था।नतीजा यह हुआ की भारत के जिन किसानों ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा जो इस आंदोलन के मुख्य आधार थे,वे शोषित वंचित बने रहे तथा कंगाली और बदहाली से आजाद नहीं हो पाए।ऐसे ही धोखा सोवियत क्रांति के बाद वहाँ के किसानों के साथ हुआ।जब स्तालिन के नेतृत्व में सामूहिक फार्म बनाने के लिए किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन ली गई और विरोध करने वाले असंख्य किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।गांव और किसान को वंचित रखके ही भारी औधोगीकरण, सेना एवं शस्त्र निर्माण तथा अन्तरीक्ष अभियान का कार्यक्रम सोवियत संघ में चलता रहा। चीनी क्रांति तो मुख्यतः किसानों की ही क्रांति थी। इसने चीन में साम्यवाद को एक नया और खाटी देशी रूप दिया।लेकिन औद्योगिक विकास का वही पूँजीवादी विचार ही हावी होने के कारण अंततः चीन भी तेजी से पूँजीवादी ग्लोबीकरण की राह पर जा रहा है।वहाँ भी बहुत तेजी से एवं बहुत बड़े पैमाने पर किसानों और गांवों को कंगाली, बेरोजगारी, बदहाली और विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर,किसानों की मुक्ति के लिए आधुनिक औद्योगिक सभ्यता से मुक्ति होगा और एक गांव केंद्रित, विकेन्द्रित, नई सभ्यता की तलाश करना होगा।किशन पटनायक की विशेषता यह है कि वे सिर्फ किसान संगठन के विविध आयामों की ही पड़ताल नहीं करते और मौजूदा व्यवस्था की महज आलोचना ही नहीं करते, विकल्प व समाधान भी खोजते चलते हैं। किसान विद्रोह का घोषणा पत्र और किसान राजनीति के सूत्र नामक लेखों में वे किसानों की दृष्टि से भावी समाज की रचना के कुछ सूत्र भी पेश करते हैं।तारतम्य में वे पूंजीवाद के एक गैर मार्क्सवादी विकल्प की तलाश का आह्वान करते हैं ,क्योंकि मार्क्सवाद उस उत्पादन प्रणाली से बहुत ज्यादा जुड़ा है, जिसमें कृषि व किसानों का शोषण निहित है।
विचारों के स्तर पर पुरानी मान्यताओं व पुराने ढांचे को खंडित करने और नए विकल्पों की तलाश करने का काम किसान आंदोलन के नेतृत्व को करना होगा और जागरूक बुद्धजीवियों को करना होगा।इस मामले में भारत के बुद्धिजीवियों और शास्त्रों की कमियां तथा असफलता किशन पटनायक को काफी कचोटती हैं।उनकी विसंगतियों और अपनी पीड़ा को किशन पटनायक ने ‘कृषक क्रांति’ और शास्त्रों का अधूरापन नामक लेख में व्यक्त किया है।
जब हम ‘किसान’ की बात करते हैं, तो उससे क्या आशय है?किसान की परिभाषा में खेत में काम करने वाला मजदूर शामिल है या नहीं है ? भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है? ये प्रश्न किसान आंदोलन के संदर्भ में बार-बार सामने आते हैं।किशन पटनायक का मानना है कि किसान और खेतिहर मजदूर द्वन्द तो है,लेकिन यह बुनियादी द्वंद नहीं है।जो किसान आंदोलन नव औपनिवेशिक शोषण और आंतरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा।यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए ,तो बड़ी ताकत पैदा होगी,जो पूंजीवाद, साम्रज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।पुस्तक के अंतिम दो लेखों में किशन पटनायक ने इस प्रश्न को सुंदर तरीके से संबोधित किया है।
अस्सी के दशक के अंत में भारत में किसान आंदोलन अपने शिखर पर था।कर्नाटक में प्रो. एम. डी. नंजुदास्वामी के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के शरद जोशी के नेतृत्व में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब में महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में किसान आंदोलन की एक जबरदस्त लहर चल रही थी।इन आंदोलनों की एकता और समन्वित कार्यवाही देश इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती थी।लेकिन यह ऐतिहासिक मौका हाथ से चला गया। 2 अक्टूबर 1989 को दिल्ली की वोट क्लब की विशाल रैली में मंच पर हुए विवाद की घटना मानो एक संकेत थी। इसके बाद से किसान आंदोलनों का ज्वार उतरने लगा।ऐसा क्यों हुआ ,इसको जानने के लिए जिज्ञासु अध्येताओं को इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि ,उनके सामाजिक आधार ,नेतृत्व, विचारधारा ,घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें किशन पटनायक के इस पुस्तक से मद्दद और महत्वपूर्ण संकेत मिलेंगे।
इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र करना मौजू होगा।संभवत वोट क्लब रैली के पिछले वर्ष की बात होगी,जब किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति का गठन हो गया था।इस समिति की बैठक नागपुर में हुई, जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक ,गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि के प्रतिधिनि मौजूद थे, किन्तु बैठक नागपुर में होने के कारण महाराष्ट्र के प्रतिनिधि ज्यादा थे।इस बैठकर में कुछ प्रतिनिधियों के द्वारा शेतकरी संघटना द्वारा अनाज व कपास की खेती छोड़कर किसानों को यूकेलिप्टस की खेती करने का आह्वान पर सवाल उठाए गए।किशन पटनायक भी इस बैठक में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि किसान चुकी देश का सबसे बड़ा तबका है, उसका स्वार्थ देश से अलग नहीं हो सकता।उसे देश के स्वार्थ के बारे में भी सोचना पड़ेगा।किशन पटनायक ने यह भी कहा कि किसानों के बेहतरी के लिए सिर्फ कृषि उपज के ज्यादा दाम मांगने से बात नहीं बनेगी।औधोगिक दामों पर नियंत्रण की मांग करनी पड़ेगी।इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था को बदलने की बात सोचनी पड़ेगी। एक समग्र नीति बनानी पड़ेगी। किसानों के नजरीय से विकास नीति कैसी हो ,उधोग नीति कैसी हो, शिक्षा नीति कैसी हो, प्रशासन व्यवस्था कैसी हो-सबकी रूप रेखा बनानी पड़ेगी और सबके बारे में सोचना पड़ेगा।किन्तु शरद जोशी और उनके जिंसधारी सिपहसलारों ने किशन पटनायक की बात बिलकुल नहीं चलनी दी।उनका कहना था कि कृषि उपज का दाम ही सब कुछ है।किसानों का सही दाम मिलने लगे, तो सब ठीक हो जाएगा। किशन पटनायक के विचारों पर आगे चर्चा व बहस भी बैठक में नहीं होने दी गई।काश ! यदि किशन पटनायक की बात पर किसान आंदोलनों के नेताओं ने गौर किया होता और अपने आन्दोलनों को उस दिशा में ढाला होता तो, न केवल किसान आंदोलनों का,बल्कि देश का इतिहास भी कुछ दूसरा हो सकता था। किन्तु आगे की प्रवृत्तियों के लक्षण यहीं दिखने लगे थे।शरद जोशी के बाद ग्लोबीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के पक्के समर्थक साबित हुए।इसलिए शायद वे उस बैठक में बहस से बचना चाहते थे।शरद जोशी ने किसानों को सब्जबाग दिखाए की मुक्त व्यापार नीतियों से उनके उपज का निर्यात बढ़ेगा और उन्हें आकर्षक दाम मिलेंगे।लेकिन हुआ ठीक उल्टा।कृषि उपज का आयात बढ़ा तथा घरेलू मंडियों में भी दाम गिर गए। शरद जोशी तो उन्नति करते हुए राज्य सभा सदस्य बन गए और ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के अध्यक्ष बन गए, किन्तु महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं की कगार पर पहुँच गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार आखिरकार शरद जोशी की सदिच्छाओं से काम नहीं करता, ताकतवर पश्चिमी देशों, उनके विशाल अनुदानों और उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थो के मुताबिक काम करता है।किसान आन्दोलनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबक है।
किशन पटनायक आज हमारे बीच में नहीं हैं। किन्तु उनके विचारों और विश्लेषण से किसान आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी, साथ ही परिवर्तन चाहने वाले सभी व्यक्तियों व समूहों की समझ भी समृद्ध होगी, इसी आशा और विश्वास के साथ यह छोटी-सी पुस्तक पाठकों की सेवा में पेश है।

सुनील

7 जून 2006

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Kishanji aur Lohia यह पत्र मुझसे बड़ी उम्र के व्यक्तियों को सम्बोधित नहीं है । हांलाकि जानकारी के तौर पर वे इस पत्र को पढ़ सकते हैं । विगत ३० जून २००० को मेरी आयु जन्म तारीख के हिसाब से सत्तर साल की हो गई । यह मेरे लिए एक विशेष बात थी। बचपन में मैं कई तरह की व्याधियों से ग्रस्त था। कुछ बीमारियां हमेशा के लिए रह गई हैं । अपनी किशोरावस्था में कभी सोचा नहीं कि साठ साल से अधिक उम्र तक जीवित रहूंगा । उस औपनिवेशिक काल में एक भारतीय की औसत आयु भी बहुत कम हुआ करती थी । अतः सत्तर साल की आयु तक जीवन में सक्रीय रहना मेरे लिए विशेष बात थी । शायद राजनीति में सक्रीय जीवन अपेक्षाकृत अधिक आयु तक होता है । जो भी हो , पिछले दस साल से निश्चय ही मेरी कार्यक्षमता घटती जा रही है । अस्वस्थता की वजह से नहीं , बल्कि शारीरिक क्षमता के शिथिल हो जाने के कारण। मांसपेशियों की कमजोरी हमेशा थी,लेकिन कुछ साल पहले एक सत्याग्रह स्थल पर एक पुलिस वाले ने धक्का दिया तो मैं बिल्कुल गिर जाता , पास बैठे एक साथी ने मुझे पकड़ लिया । मेरी स्मरण शक्ति का कुछ अंश कमजोर हो चुका है और सुनने की क्षमता भी घटी है। कुल उर्जा का परिमाण इतना कम हुआ है कि एक दिन का काम एक हफ्ते में करता हूं । अधिकांश चिट्ठियों का जवाब नहीं देता हूं । १९९० में ही मैंने बरगढ़ – सम्बलपुर जिले के अपने क्षेत्र के देहातों में जाना बंद कर दिया । अब केवल रेलगाड़ियों की लम्बी यात्रा करके सभाओं में योगदान करता हूं । महीने में एक-दो लेख लिखता हूं। मेरा सार्वजनिक – राजनैतिक काम इतने में सीमित हो गया है । आगे दस साल से अधिक जीवित रहने की मेरी इच्छा नहीं है। क्योंकि तब शारीरिक तौर पर मैं एक दयनीय अवस्थामें पहुंच जाऊंगा। । मृत्यु के बारे में मैं बार बार सचेत होता हूं, लेकिन उसके इंतजार में नहीं रहना चाहता हूं। मृत्यु का साक्षात्कार चाहता हूं । इस वाक्य का क्या अर्थ है,कोई पूछे तो मैं स्पष्ट नहीं बता पाऊंगा, क्योंकि मैं खुद इस वक्त इसे नहीं जानता हूं। शायद सारे बंधनों से मुक्त होने पर कोई मृत्यु से से साक्षात्कार कर पाएगा। सारे बंधनों से मुक्त होना भी अपरिभाषित है। १९५१-५२ से अब तक मैं निरंतर समाजवादी राजनीतिमें सांगठनिक दायित्व लेकर काम कर रहा हूं । पचास साल का समय अत्यधिक होता है। इसके बाद मैं सांगठनिक दायित्व लेकर , सांगठनिक अनुशासन के प्रति जवाबदेह रहकर काम नहीं कर सकूंगा। राजनीति से या संगठनों से हटने की बात मैं अभी नहीं सोच पाता हूं । वैसे तो मेरे बहुत सारे परिचित लोग भी नहीं जानते हैं कि मैं राजनीति कर रहा हूं । सिर्फ संगठन के लोग जानते हैं कि हम राजनीति कर रहे हैं । हमारी राजनीतिमें तीव्रता नहीं है । कुछ लोग कर्तव्य पालन के लिए राजनीति कर रहे हैं। एक राजनीति होती है तामझाम की , वह हमारा उद्देश्य नहीं है। दूसरी राजनीति होती है तीव्रता की ।मैं आशा करता हूं कि मेरे वर्तमान और भविष्य के सहयोगी हमारी राजनीति में तीव्रता लाएंगे । इस आशा के साथ मै समाजवादी जनपरिषद और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय जैसे संगठनों की राजनीति से जुड़ा रहूंगा । राजनीति से जुड़ा रहने का प्रधान कारण यह है कि आज की हालत में राजनैतिक चुप्पी का मतलब है मानव समाज के पतन और तबाही के प्रति उदासीनता । ग्लोबीकरण की व्यवस्था से राष्ट्र की और मानव समाज की जो तबाही होने जा रही है उसके विरुद्ध एक राजनीति बनाने का काम बहुत धीमा चल रहा है। उसको तेज,विश्वसनीय और संघर्षमय करना , उसके विचारों और दिशा को स्पष्ट करना आज की असली राजनीति होगी । इस कार्य में मेरा योगदान कितना भी आंशिक और सीमित हो, उसको जारी रखने की मेरी प्रबल इच्छा है।क्योंकि यह राजनीति मानव समाज के भविष्य के सोच से संबंधित है,इसके वैचारिक विस्तार में मनुष्य जी वन के कुछ मौलिक सत्यों के संपर्क में आना पड़ेगा। मृत्यु से साक्षात्कार की एक संभावना उसीमें है – जीवन संबंधी गहरे सत्यों के संपर्क में आने में । ऊपर जो भी लिखा गया है वह सूचना के तौर पर है; चर्चा का विषय नहीं है । आपसे अनुरोध है कि मेरे किसी मित्र या साथी को अगर यह पत्र नहीं मिला है तो एक प्रति बनाकर आप उसे दे दें ।आप जिसको भी मेरा साथी या मित्र समझते हैं वे मेरे साथी और मित्र हैं । शुभकामनाओं सहित किशन पटनायक 15.3.2001/15.5.2001

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पिछले भाग से आगे :

भारत जैसे देश में जनतंत्र को चलाने के लिए हजारों ( शायद लाखों ) राजनैतिक कार्यकर्ता चाहिए । संसद , विधान सभा , जिला परिषद , ग्राम पंचायत आदि को मिला कर हजारों राजनैतिक पद हैं । प्रत्येक पद के लिए अगर दो या तीन उम्मीदवार होंगे , तब भी बहुत बड़ी संख्या हो जायेगी । इनमें से बहुत सारे कार्यकर्ता होंगे , जिन्हें पूर्णकालिक तौर पर सार्वजनिक काम में रहना होगा तो उनके परिवारों का खर्च कहाँ से आएगा ? भ्रष्टाचार की बात करनेवालों को इस प्रश्न का भी गंभीरतापूर्वक उत्तर ढूँढना पड़ेगा ।

    पिछले ५० साल की राजनीति पर हम संवेदनशील हो कर गौर करें , तो इस बात से हम चमत्कृत हो सकते हैं कि हजारों आदर्शवादी नौजवान देश के भविष्य को संदर बनाने के लिए परिवर्तनवादी राजनीति में कूद पड़े थे । आज अगर उनके जीवन इतिहासों का विश्लेषण करेंगे , तो मालूम होगा कि उनमें से अधिकांश बाद के दिनों में , जब उनको परिवार का भी दायित्व वहन करना पड़ा , या तो राजनीति से हट गये या अपने आदर्शों के साथ समझौता करने लगे ।  निजी तथा सार्वजनिक जीवन की जरूरतों को पूरी करने के लिए शुरु में छोटे-छोटे ठेकेदारों से , भ्रष्ट प्रशासकों से या काले व्यापारियों से चंदा लेना पड़ा । बाद में जब लगातार खर्च बढ़ता गया और प्रतिष्ठा भी बढ़ती गई , तब बड़े व्यापारियों और पूँजीपतियों के साथ साँठगाँठ करनी पड़ी । अगर वे आज भी राजनीति में हैं , तो अब तक इतना समझौता कर चुके हैं कि भ्रष्टाचार या शोषण के विरुद्ध खड़े होने का नैतिक साहस नहीं है । पिछले ५० साल आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक जीवन में पतन और निजी जीवन में हताशा का इतिहास है ।

    अगर शुरु से ही समाज का कोई प्रावधान होता कि राजनीति में प्रवेश करनेवाले नौजवानों का प्रशिक्षण-प्रतिपालन हो सके , उनके लिए एक न्यूनतम आय की व्यवस्था हो सके , तो शायद वे टूटते नहीं , हटते नहीं , भ्रष्ट नहीं होते । कम से कम ५० फीसदी कार्यकर्ता और नेता स्वाधीन मिजाज के होकर रहते । अगर किसी जनतंत्र में १० फीसदी राजनेता बेईमान होंगे तो देश का कुछ बिगड़ेगा नहीं । अगर ५० फीसदी बेईमान हो जायें, तब भी देश चल सकता है । अब तो इस पर भी संदेह होता है कि सर्वोच्च नेताओं के ५ फीसदी भे देशभक्त और इमानदार हैं या नहीं ।

From Andolan_Tumkur_Hampi

    समाज के अभिभावकों का , देशभक्त कार्यकर्ताओं का संरक्षण समाज के द्वारा ही होना चाहिए । सारे राजनेताओं को हम पूँजीपतियों पर आश्रित होने के लिए छोड़ नहीं सकते । समाज खुद उनके प्रशिक्षण और प्रतिपालन का दायित्व ले । इस दायित्व को निभाने के लिए यदि बनी बनाई संस्थाएँ नहीं हैं , तो सांविधानिक तौर पर राज्य के अनुदान से संस्थायें खड़ी की जाएं । जिस प्रकार न्यायपालिका राज्य के अनुदान पर आधारित है , लेकिन स्वतंत्र है , उसी तरह राजनेताओं का प्रशिक्षण और प्रतिपालन करनेवाली संस्थायें भी स्वतंत्र होंगी। केवल चरित्र , निष्ठा और त्याग के आधार पर राजनैतिक संरक्षण मिलना चाहिए । जो आजीवन सामाजिक दायित्व वहन करने के लिए संकल्प करेगा . जो कभी धन संचय नहीं करेगा , जो संतान पैदा नहीं करेगा , उसीको सामाजिक संरक्षण मिलेगा । जो धन संचय करता है , तो संतान पैदा करता है , उसको भी राजनीति करने , चुनाव लड़ने का अधिकार होगा , लेकिन उसे सामाजिक संरक्षण नहें मिलेगा । जिसे सामाजिक संरक्षण मिलेगा उसके विचारों पर अनुदान देनेवालों का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा । सिर्फ आचरण पर निगरानी होगी । निगरानी की पद्धति पूर्वनिर्धारित रहेगी।

  यह कोई विचित्र या अभूतपूर्व प्रस्ताव नहीं है । कोई भी राज्य व्यवस्था हो , सार्वजनिक जीवन में चरित्र की जरूरत होगी । किसी भी समाज में समर्पित कार्यकर्ताओं का एक समूह चाहिए । आधुनिक युग के पहले संगठित धर्म ने कई देशों में सार्वजनिक जीवन का मार्गदर्शन किया । धार्मिक संस्थाओं ने भिक्षुओं, ब्राह्मणों ,बिशपों को प्रशिक्षण और संरक्षण दिया , ताकि वे सार्वजनिक जीवन का मानदंड बनाये रखें । ग्रीस में और चीन में प्लेटो और कन्फ्यूशियस ने राजनैतिक कार्य के लिए प्रशिक्षित और समर्पित समूहों के निर्माण पर जोर दिया । सिर्फ आधुनिक काल में सार्वजनिक जीवन के मानदंडों को ऊँचा रखने की कोई संस्थागत प्रक्रिया नहीं तय की गयी है । इसलिए सारी दुनिया का सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त है । सार्वजनिक जीवन का दायरा बढ़ गया है , लेकिन मूल्यों और आदर्शों को बनाये रखने की संस्थायें नहीं हैं ।

    संविधान के तहत या राजकोष से राजनीति का खर्च वहन करना भी कोई नयी बात नहीं है । विपक्षी सांसदों और विधायकों का खर्च राजकोष से ही आता है । यह एक पुरानी मांग है कि चुनाव का खर्च भी क्यों नहीं ? राजनीति का खर्च भी क्यों नहीं ? कुछ प्रकार के राजनेताओं का जीवन बचाने के लिए केन्द्रीय बजट का प्रतिमाह ५१ करोड़ रुपये खर्च होता है । करोड़पति सांसदों को भी पेंशन भत्ता आदि मिलता है । इनमें से कई अनावश्यक खर्चों को काट कर देशभक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सामाजिक कोष का निर्माण शुरु हो सकता है ।

    अगर विवेकशील लोग राजनीति में दखल नहीं देंगे तो भारत की राजनीति कुछ ही अरसे  के अंदर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चली जायेगी । जो लोग इसके बारे में चिंतित हो रहे हैं ,उन्हें एक मूल्य आधारित राजनैतिक खेमा खड़ा करना होगा ।इस खेमे के लिए एक बड़े पैमाने का कोष निर्माण करना होगा ।  आज की संसद या विधान सभा इसके लिए अनुदान नहीं देगी । सामाजिक और स्वैच्छिक ढंग से ही इस काम को शुरु करना होगा ।

    अन्ना हजारे इस काम को शुरु करेंगे , तो अच्छा असर होगा । यह राजनैतिक काम नहीं है , जनतांत्रिक राजनीति को बचा कर रखने के लिए यह एक सामाजिक काम है । धर्मविहीन राज्य में चरित्र का मानदंड बना कर रखने का यह एक संस्थागत उपाय है । अंततोगत्वा इसे ( ऐसी संस्थाओं को ) समाज का स्थायी अंग बना देना होगा या सांविधानिक बनाना होगा ।

    धर्म-नियंत्रित समाजों के पतन के बाद नैतिक मूल्यों पर आधारित एक मानव समाज के पुनर्निर्माण के बारे में कोई व्यापक बहस नहीं हो पायी है , यह बहस अनेक बिंदुओं से शुरु करनी होगी । यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है ।

(स्रोत : दूसरा शनिवार , सितंबर १९९७ )

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[ करीब चौदह वर्ष पहले किशन पटनायक ने अपने मित्र राजकिशोर द्वारा सम्पादित  पत्रिका ’दूसरा शनिवार’ (सितम्बर १९९७) में यह लेख लिखा था । यह पुराना लेख भविष्य की बाबत है इसलिए और ध्यान खींचता है ।  कई बातें इस दौर के लिए भी प्रासंगिक और नई हैं । लेख इन्टरनेट के लिहाज से लम्बा है। उम्मीद है पाठक धीरज न खोयेंगे । – अफ़लातून ]

सिर्फ भारत में नहीं , पूरे विश्व में जनतंत्र का भविष्य धूमिल है । १९५० के आसपास अधिकांश औपनिवेशिक मुल्क आजाद होने लगे । उनमें से कुछ ही देशों ने जनतंत्र को शासन प्रणाली के रूप में अपनाया । अभी भी दुनिया के ज्यादातर देशों में जनतंत्र स्थापित नहीं हो सका है । बढ़ते मध्य वर्ग की आकांक्षाओं के दबाव से कहीं – कहीं जनतंत्र की आंशिक बहाली हो जाती है । लेकिन कुल मिलाकर विकासशील देशों में जनतंत्र का अनुभव उत्साहवर्धक नहीं है । नागरिक आजादी की अपनी गरिमा होती है , लेकिन कोई भी विकासशील देश यह दावा नहीं कर सकता कि जनतंत्र के बल पर उसका राष्ट्र मजबूत या समृद्ध हुआ है या जनसाधारण की हालत सुधरी है ।

अगर भारत में जनतंत्र का खात्मा जल्द नहीं होने जा रहा है , तो इसका मुख्य कारण यह है कि पिछड़े और दलित समूहों की अकांक्षाएँ इसके साथ जुड़ गई हैं ।  अत: जनतंत्र का ढाँचा तो बना रहेगा , लेकिन जनतंत्र के अन्दर से फासीवादी तत्वों का जोर-शोर से उभार होगा । जयललिता , बाल ठाकरे और लालू प्रसाद पूर्वाभास हैं । अरुण गवली , अमर सिंह जैसे लोग दस्तक दे रहे हैं । अगर वीरप्पन कर्नाटक विधान सभा के लिए निर्वाचित हो जाता है तो इक्कीसवीं सदी के लिए  आश्चर्य की बात नहीं होगी । यानी जनतंत्र जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रहा है । अगर राजनीति की गति बदली नहीं , तो अगले दो दशकों में भारत के कई इलाकों में क्षेत्रीय तानाशाही या अराजकता जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होंगी ।

इसका मतलब यह नहीं कि जनतंत्र का कोई विकल्प है । अगर १९४७ या १९५० में हम एक जनतांत्रिक शासन प्रणाली नहीं अपनाते , तो देश की हालत इससे भी बुरी होती । गलती यह हुई कि हम अपने जनतंत्र को सही रूप और चरित्र नहीं दे पाये ।  भारत के इतिहास , भूगोल, समाज और अर्थनीति को समझते हुए भारत में जनतंत्र का जो मौलिक स्वरूप होना चाहिए था , उसका निरूपण आज तक नहीं हो पाया है । हमारे नेतृत्व का दिवालियापन और बौद्धिक वर्ग की वैचारिक गुलामी इसके लिए दायी हैं । १९४७ में उनके सामने सफ़ल जनतंत्र के दो नमूने थे और शासन व्यवस्था की एक औपनिवेशिक प्रणाली भारत में चल रही थी ।  इन तीनों को मिलाकर हमारे बौद्धिक वर्ग ने एक औपनिवेशिक जनतंत्र को विकसित किया है , जो जनतंत्र जरूर है  , लेकिन अंदर से खोखला है । शुरु के दिनों में अन्य विकासशील देशों के लिए भारत की मार्गदर्शक भूमिका थी ।  जब भारत ही जनतंत्र का कोई मौलिक स्वरूप विकसित नहीं कर पाया , तो अन्य देशों के सामने कोई विकल्प नहीं रह गया ।

पिछले पचास साल में भारत तथा अन्य विकासशील देशों में जनतंत्र की क्या असफलताएँ उजागर हुई हैं  , उनका अध्ययन करना और प्रतिकार ढूँढना – यह काम भारत के विश्वविद्यालयों ने बिलकुल नहीं किया है । शायद इसलिए कि पश्चिम के समाजशास्त्र ने इसमें कोई अगुआई नहीं की । पश्चिम से सारे आधुनिक ज्ञान का उद्गम और प्रसारण होता है लेकिन वहाँ के शास्त्र ने भी १९५० के बाद की दुनिया में जनतंत्र की असफलताओं का कोई गहरा या व्यापक अध्ययन नहीं किया है , जिससे समाधान की रोशनी मिले । पश्चिम की बौद्धिक क्षमता संभवत: समाप्त हो चुकी है ; फिर भी उसका वर्चस्व जारी है ।

१९५० के आसपास जिन देशों को आजादी मिली , उन समाजों में आर्थिक सम्पन्नता नहीं थी और शिक्षा की बहुत कमी थी । इसलिए इन देशों के जनतांत्रिक अधिकारों में यह बात शामिल करनी चाहिए थी कि प्रत्येक नागरिक के लिए आर्थिक सुरक्षा की गारंटी होगी और माध्यमिक स्तर तक सबको समान प्रकार की शिक्षा उपलब्ध होगी । अगर ये दो बुनियादी बातें भारतीय जनतंत्र की नींव में होतीं  , तो भारत की विकास की योजनाओं की दिशा भी अलग हो जाती । जाति प्रथा , लिंग भेद , सांप्रदायिकता और क्षेत्रीय विषमता जैसी समस्याओं के प्रतिकार के लिए एक अनुकूल वातावरण पैदा हो जाता । लोग जनतंत्र का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकते थे ।

हुआ है उलटा । सारे समाज विरोधी तत्व जनतंत्र का उपयोग अपने को शक्तिशाली बनाने के लिए कर रहे हैं । राजनीति पर उन्हींका अधिकार है । जनतंत्र एक व्यापक राजनीति के द्वारा संचालित होता है । इस राजनीति का चरित्र इतना भयावह होता गया है कि अच्छे लोगों के लिए राजनीति वर्जनीय मानी जा रही है । इसका तार्किक परिणाम है कि राजनीति पर अधिकारियों का अधिकार हो जायेगा । अगर विवेकशील लोगों का प्रवेश राजनीति में नहीं होगा तो भ्रष्ट लोगों का राजत्व अवश्य होगा । इस द्वन्द्व का समाधान कैसे होगा ? अच्छे लोग राजनीति में कैसे आयेंगे और वहाँ अच्छे बन कर रहेंगे , इसका कोई शास्त्र या विवेचन होना चाहिए । समाज अगर जनतंत्र चाहता है , तो समाज के ही कुछ तरीके होने चाहिए , जिससे अच्छे लोग राजनीति में आयेंगे और बने रहेंगे यह सिलसिला निरंतरतापूर्वक चालू रहेगा। अगर वैसा नहीं होता है , तो राजतंत्र क्यों बुरा था ? राजतंत्र को बुरा माना गया क्योंकि अच्छे राजा का बेटा अच्छा होगा इसका कोई निश्चय नहीं है । १५० साल के अनुभव से यह मालूम हो रहा है कि जनतंत्र में भी इसका निश्चय नहीं है कि एक बुरे शासक को हटा देने के बाद अगला शासक अच्छा होगा । अत: जनतंत्र को कारगर बनाने के लिए नया सोच जरूरी है । जनतंत्र के ढाँचे में ही बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है ।

किशनजी और लोहिया

किशनजी और लोहिया

राजनैतिक दल और राजनैतिक कार्यकर्ता आधुनिक जनतंत्र के लिए न सिर्फ अनिवार्य हैं , बल्कि उनकी भूमिका जनतंत्र के संचालन में निर्णायक हो गई है । फिर भी हमारे संविधान में ऐसा कोई सूत्र नहीं है , जिसके तहत नेताओं और दलों पर संस्थागत निगरानी रखी जा सके । ब्रिटेन या अमेरिका में जनमत यानी संचार माध्यमों की निगरानी को पर्याप्त माना जा सकता है । लेकिन भारत जैसे मुल्क में यह पर्याप्त साबित नहीं हो रही । पश्चिम के जनतंत्र को जो भी सीमित सफलता मिली है , उसके पीछे वहां के जनसाधारण की आर्थिक संपन्नता और शिक्षा का व्यापक प्रसार भी है । इसके अतिरिक्त कई प्रकार की परंपराएं वहां विकसित हो चुकी हैं । उन देशों के लोगों को यह बात बुरी नहीं लगती कि सारे स्थापित राजनैतिक दल पूँजीपतियों पर आश्रित हैं । भारत या किसी भी गरीब मुल्क में यह बात बुरी लगेगी कि सारे राजनैतिक दल पूँजीपतियों के अनुदान पर आश्रित हैं ।

राजनीति का खर्च कहाँ से आयेगा ? राजनीति का खर्च बहुत बड़ा होता है , राजनेताओं यानी राजनैतिक कार्यकर्ताओं का अपना खर्च है  , संगठन का खर्च है , चुनाव और आन्दोलनों का खर्च है । यह कल्पना बिलकुल गलत है कि  अच्छे काम के लिए पर्याप्त पैसे मिल जाते हैं । राजनीति का अनुभव है कि बुरे काम के लिए पैसे मिल जाते हैं । अच्छी राजनीति के लिए जितना पैसा जनसाधारण से मिलता है , उतने से काम नहीं चलता है । अत: राजनीति के लिए कहाँ से पैसा आयेगा ,यह जनतंत्र का एक जटिल प्रश्न है और इसका एक सांविधानिक उत्तर होना चाहिए । अगर संविधान इसका उत्तर नहीं देगा  , तो सारे के सारे राजनेता या तो पूँजीपतियों पर आश्रित होंगे या उनसे मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ायेंगे । कार्यकर्ता उनके पिछलग्गू हो जायेंगे । कार्यकर्ता का अपनी जीविका के लिए दल पर आश्रित रहना भी अच्छी बात नहीं है , क्योंकि वह दल का गुलाम हो जायेगा ।

( अगले भाग में समाप्य )

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इस लेख के पिछले भाग : एक , दो

अंगरेजी पत्रकारिता और राजनैतिक चर्चा सदाचार को एक व्यक्तिगत गुण के रूप में समझती है । व्यक्ति का स्वभाव और संकल्प सार्वजनिक जीवन में सदाचार का एक स्रोत जरूर है , लेकिन राजनीतिक व्यक्तियों को सदाचार का प्रशिक्षण देकर या अच्छे स्वभाव के ’सज्जनों’  को राजनीति में लाकर सार्वजनिक जीवन में सदाचार की गारंटी नहीं दी जा सकती है । भारत की ही राजनीति में ऐसे सैकड़ों उदाहरण होंगे कि जो व्यक्ति सत्ता-राजनीति में प्रवेश के पहले बिलकुल सज्जन था , सत्ता प्राप्ति के बाद बेईमान या भ्रष्ट हो गया । सदाचार की एक संस्कृति और संरचना होती है । सदाचार का क्षेत्र समाज हो सकता है , राजनैतिक समुदाय हो सकता है ,या एक निर्दिष्ट राजनैतिक समूह यानी दल हो सकता है । प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार कितना होगा,किस प्रकार का होगा, यह उस क्षेत्र की भौतिक संरचना और संस्कृति के द्वारा निरूपित होता है ।

क्या इस वक्त भारत के राजनैतिक दलों में कोई दल ऐसा है जो अन्य दलों की तुलना में गुणात्मक रूप में कम भ्रष्ट है। और, यह अन्तर एक गुणात्मक अन्तर है । भारतीय कम्युनिस्टों को वैचारिक दिशाहीनता और संघर्ष न करने की निष्क्रियता तेजी से ग्रस रही है और वे पतनशील अवस्था में हैं । पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी नेताओं के भ्रष्टाचार के बारे में अभियोग बढ़ता जा रहा है । इसके बावजूद भ्रष्टाचार के मामले में उनमें और बाकी दलों में अभी गुणात्मक अन्तर है ।

राजनीतिक समूहों में सदाचार के तीन आधार होते हैं : १. आदर्शवादी लक्ष्यों से प्रेरित होकर समाज को बदलने – सुधारने के विचारों का सामूहिक रूप में अनुवर्ती होना ; २. समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति की भावनाओं को वाणी और कर्म के स्तर पर एक संस्कृति के रूप में विकसित करना ; ३. समूह या दल के अन्दर समानता , भाईचारा और अनुशासन का होना । राजनीति में धन और सत्ता की प्रबलता होती है । इसीलिए संस्कृति-विहीन राजनीति में भ्रष्टाचार का तुरन्त प्रवेश हो जाता है । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है , न इस कारण से राजनीति का तिरस्कार होना चाहिए । यह एक चुनौती है कि राजनीति को संस्कृतिनिष्ठ बनाकर सशक्त करें और धन तथा सत्ता का केन्द्रीकरण न होने दें । राजनीति अवश्यंभावी है ; उसको मानव-हित में लगाने के लिए आदर्शवादी विचारों , क्रांतिकारी भावनाओं और कठिन श्रम की संस्कृति के द्वारा उसे एक महान कर्म का दरजा प्रदान करें ।

अगर अंग्रेजी पत्रकार चाहता है कि राजनीति से क्रान्तिकारी विचारों की विदाई हो जाए , आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाई जाए, धन का केन्द्रीकरण और भोग का प्रदर्शन बढ़ता जाए, राजनीति शोषितों के हित में नहीं बाजार के हित में संचालित हो और फिर भी वह उम्मीद करता है कि भ्रष्टाचार हटे तो उसकी सोच गम्भीर नहीं है ।

राजनैतिक दल तत्काल दो काम कर सकते हैं । मीडिया और जनमत का दबाव इस दिशा में बनना चाहिए ।आपराधिक रेकार्ड वाले व्यक्तियों को पार्टी का टिकट या पद देना सारे राजनैतिक दल बन्द कर दें । कम से कम विपक्षी दल अवश्य कर दें । जो तीसरा मंच बन रहा है वह इसके लिए तैयार हो जाए तब भी एक आचरण संहिता की शुरुआत हो सकती है ; एक राजनैतिक संस्कृति की शुरआत हो सकती है । उसी तरह से राजनेताओं और उनके दलोम के द्वारा जो धनसंग्रह होता है उसमें पारदर्शिता के नियम बनाये जा सकते हैं । यह काम विपक्षी राजनैतिक दल खुद अपने स्तर पर कर सकते हैं । अगर इतना भी करने के लिए वे तैयार नहीं हैं तो संसद कार्यवाही को ठपकर देने से क्या फायदा ? संसद को ठप करना एक उग्र कदम है और उसकी जरूरत होती है जब शासक दल जरूरी बहस को नहीं होने देता है । अगर उपर्युक्त आचरण संहिता पर बहस की माँग करते हुए विपक्षी दल संसद संसद में हल्ला करते तो शासक दल की नैतिक पराजय होती । अन्यथा एक दिन शासक दल ( भाजपा ) के नेता को घूस लेते हुए विडियो टेप में दिखाया जाएगा तो दूसरे दिन विपक्षी दल (कांग्रेसी ) के नेता को घूस लेते हुए दिखाया जाएगा । इस कुचक्र से देश की राजनीति का उद्धार करने का उपाय यह है कि एक राजनैतिक संस्कृति को विकसित करने की पहल कुछ प्रभावी लोग करें ।

केवल राजनीति को नहीं , समाज को भी सदाचार की जरूरत है । यह भावुकता का मुद्दा नहीं है ; यह मनुष्य के अस्तित्व का मुद्दा बनने जा रहा है ।

( सामयिक वार्ता , अप्रैल,२००१)

किशन पटनायक के भ्रष्टाचार पर कुछ अन्य लेख भी पढ़ें :

राजनीति में मूल्य

भ्रष्टाचार की बुनियाद कहां है ?

भ्रष्टाचार की एक पड़ताल

भ्रष्टाचार / असहाय सत्य

किशन पटनायक का लिखा अगला लेख : राजनीति में नैतिकता के सूत्र

 

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जनसत्ता और हिन्दुस्तान आदि में हिन्दी में कई लेख छपे हैं जिनमें नए प्रतिमानों को स्थापित करने की कोशिश है । एक लेख से यह साफ होता है कि तहलका के चलते हम जिस रक्षा मंत्रालय या रक्षा विभाग की बात बार-बार कर रहे हैं वह तो असल में हमारी सेना है । प्रतिरक्षा में भ्रष्टाचार न कहकर ’ हमारी भ्रष्ट सेना ’ कहने से असलियत ज्यादा सामने आती है । उच्च शिक्षित समूहों में कुछ लोग हमेशा कहते रहे हैं कि निर्वाचित राजनेताओं के हाथों से सत्ता लेकर सेना के अफसरों के हाथ सौंप देने से भ्रष्टाचार पर काबू हो जायेगा । तहलका उनको बता सकता है कि भ्रष्ट राजनेताओं से भ्रष्ट सेनापति बदतर होगा । हमारी सेना शुरु से अकुशल और भ्रष्ट रही है । भारतीय सेना से शायद ज्यादा भ्रष्ट शायद पाकिस्तान की सेना है । इस कारण पाकिस्तान से कभी कभी मुकाबला हो जाता है । किसी देश की सेना अपने से कम भ्रष्ट है तो उसके सामने सीमा छोड़कर भागने की शर्मनाक परम्परा भारतीय सेना की है । तहलका में दिखाये गये चेहरों से इसकी सत्यता पुष्ट होनी चाहिए । भविष्य के युद्ध में भारत की अखंडता को बनाये रखने के लिए हमारी सेना का कायापलट करना होगा – जो काम १९४७ में ही हो जाना चाहिए था । इस सेना को भ्रष्ट बनाने में हमारे नौकरशाहों और प्रधानमन्त्रियों का भी काफी योगदान है । भारत की दीर्घकालीन प्रतिरक्षानीति कभी बन नहीं पाई है । सेना कोई मशीन नहीं होती है । एक कुशल और देशरक्षक प्रतिरक्षानीति के न होने पर सेना कैसे अपना काम कर सकती है ? सेना के इन अफसरों को मंगल-तिलक लगाने के लिए जब भी सजी-धजी संभ्रान्त महिलाओं का झुंड खड़ा होता है तो एक भावनात्मक आभामंडल से सेना का चेहरा उज्जवल दिखाई पड़ने लगता है । लेकिन इस सेना के बारे में कुछ कठोर समीक्षाएं जरूरी हैं । भ्रष्टाचार सेना के अन्दर व्याप्त है , तहलका के बाद हम यह जोर देकर कह सकते हैं । यह पूछा जा सकता है कि क्या जो सेना भ्रष्टाचार में इतनी डूबी हुई है , वह कैसे एक उम्दा किस्म की सेना हो सकती है ? क्या वह राष्ट्र की अखंडता की रक्षा को एक पवित्र कार्य मानकर मर-मिटने को तैयार हो सकती है ?

सेना की राष्ट्रभक्ति को हम अस्वीकार नहीं कर सकते हैं , लेकिन यह राष्ट्रभक्ति बहुत गहरी नहीं है । अनुशासन की कमी के चलते यह राष्ट्रभक्ति दुर्बल तो होगी ही । अगर हमारा लक्ष्य एक महान राष्ट्र होना है और अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ समझौता नहीं होने देना है , तो तो जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है उन चुनौतियों के लिए यह सेना योग्य नहीं है – ऐसा सन्देह पैदा होना स्वाभाविक है और इस पर गम्भीर सोच-विचार होना चाहिए ।

एक दूसरा पहलू भी है – जब भी राष्ट्र के अन्दर के किसी क्षेत्र के लोग लम्बे समय तक विद्रोही बने रहते हैं और सीमावर्ती इलाका होने के नाते सेना की किसी टुकड़ी को उस क्षेत्र की शांतिव्यवस्था में विशेष जिम्मेदारी दी जाती है , तो वहाँ सेना का व्यवहार अपने नागरिकों के प्रति ऐसी हो जाता है , जैसा किसी शत्रु देश के नागरिकों के प्रति होता है । भारत के उत्तर-पूर्व इलाकों तथा कश्मीर में सैनिक तथा अर्धसैनिक बलों का जो रेकार्ड है वह बहुत गन्दा है । सामूहिक बलात्कार तक के आरोप लगते रहते हैं। इन विद्रोही इलाकों के प्रति सरकार की नीतियाँ भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेकिन ऐसा भी कभी नहीं हुआ है कि सेना के अन्दर होनेवाली गन्दी वारदातों के प्रतिवाद में सेना के किसी अधिकारी ने इस्तीफा दिया हो या जोखिम उठाकर विरोध किया हो ।

एक तीसरा पहलू है , सेना के अन्दर की गैर-बराबरी । पाकिस्तान और भारत की सेना पर सामन्तवाद हावी है । भारत की तुलना में पाकिस्तान की शासक श्रेणी का सामन्ती चरित्र ज्यादा स्प्ष्ट है , लेकिन भारतीय सेना के अधिकारियों का भी अपने सामान्य सिपाही के प्रति रवैया सामन्ती है । उसके साथ घरेलू नौकर की तरह बरताव किया जाता है और उसकी जरूरतों का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है । युद्धक्षेत्र में सेना के अधिकारियों को मिलनेवाला भोजन और आराम की सुविधाओं तथा सिपाहियों को मिलनेवाली सुविधाओं की अगर तुलना की जाएगी तो यह बात ज्यादा स्पष्ट होगी । हो सकता है कि सेना के अधिकारियों का यह सामन्ती चरित्र उनको भ्रष्टाचार के प्रति उन्मुख करता है ।

( जारी )आगे – रा्जनीतिक समूहों में सदाचार के आधार ।

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भ्रष्टाचार / असहाय सत्य


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बड़े मीडिया के अधिकांश अंग्रेजी स्तम्भ लेखकों के लेखों में चालाकी का भारी पुट रहता है । चालाकी एक प्रकार की बेईमानी है । आउटलुक (१० अप्रैल , २००१) में प्रेमशंकर झा तहलका से प्रकट हुए भ्रष्टाचार पर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए जो लिखते हैं उसके पीछे उनका सामाजिक दर्शन भी छुपा हुआ है । सामाजिक दर्शन इस प्रकार है : समाज इसी तरह चलता रहेगा ; व्यक्ति-जीवन में भोग एकमात्र लक्ष्य है ; सामाजिक सन्दर्भ में उसको प्राप्त करने के लिए नैतिकता का पक्ष लेना पड़ेगा और भ्रष्टाचार की निन्दा करनी होगी ; क्योंकि समाज को चलाये रखना है ; अन्यथा नैतिकता कुछ होती नहीं है ।

प्रेमशंकर झा का कहना है कि बंगारु लक्ष्मण , जया जेटली और जार्ज फर्नांडीज चोर हैं । उनके निर्दोष होने की कल्पना करके और जार्ज को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) के संयोजक के रूप में बरकरार रखकर प्रधानमन्त्री ने भारी गलती की है । जाँच के पहले इन राजनैतिक नेताओं को निर्दोष समझना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठाना भ्रष्टाचार से समझौता है ।

ये बातें सही हैं और भाजपा के सारे विरोधी भी यही बात कर रहे हैं । यह बात भी सही है कि जाँच से कुछ निकलता नहीं है और निकले भी तो मुकदमा चलाकर कभी किसी बड़े नौकरशाह या नेता को कठोर दंड देने की मिसाल स्मृति में नहीं आती है । हवाला कांड का क्या हुआ ? शेयर घोटाले का क्या हुआ ?

राजनैतिक नेताओं को नरक में ढकेलने के बाद प्रेमशंकर झा एक नौकरशाह को स्वर्ग में स्थापित करने के लिए अंगरेजी के चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हैं । वे इस आदमी का वर्णन ” भारत के सार्वजनिक संगठनों का योग्यतम नौकरशाह ” के रूप में करते हैं जिसको कुछ साल पहले ” अनावश्यक ही गर्मी के दिनों में सुविधाविहीन तिहाड़ जेल में रखा गया था , जबकि अदालत में वह निर्दोष पाया गया , क्योंकि पुलिस के पास प्रमाण नाम की चीज नहीं थी । ” वे उस घोटाले का नाम भी नहीं बताते है जिसके यह शख्स यानी बी. कृष्णमूर्ति प्रधान खलनायक थे ।  यह था उदारीकरण युग का पहला भ्यावह घोटाला , जिसके बारे में एक भारी-भरकम जाँच हुई और रिपोर्ट भी बढ़िया ढंग से तैयार हुई , लेकिन अन्त में किसी भी नामी आदमी को जेल में जीवन नहीं बिताना पड़ा । कारण , पुलिस के पास प्रमाण नहीं थे । एक तरफ जाँच के पहले एक अभियुक्त को प्रधानमन्त्री निर्दोष होने की मान्यता दे रहे हैं , दूसरी तरफ़ अदालत में अभियोग प्रमाणित न होने के कारण झा जीउस अभियुक्त को सर्वश्रेष्ठ नौकरशाह का खिताब दे रहे हैं और मुकदमे के पहले दिए गए दंड को बर्बरता कह रहे हैं । दोनों ही गलत प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं । अंगरेजी का स्तंभ लेखक नौकरशाह का बचाव कर रहा है और प्रधान मन्त्री नेता तथा नौकरशाह दोनों का बचाव कर रहे हैं ।

गलत प्रतिमानों के चलते ही पिछले पचास सालों में भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह दंड से बचे हुए हैं; वे सामाजिक प्रतिष्ठा भी पा रहे हैं । सीवान के शहाबुद्दीन प्रतिष्ठित हो रहे हैं। अगर अंग्रेजी पत्रकार की कसौटी को मान लें, तो यह कसौटी शाह्बुद्दीन के पक्ष में है । पुलिस अभी तक शहाबुद्दीन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दंडित कराने में असफल रही है । किसी भी भाषा में शब्दों के चालाकी -भरे प्रयोग से तर्क की विसंगतियां छुप जाती हैं ; अंगरेजी में यह ज्यादा होता है ।

हिन्दी का पत्रका ज्यादा ईमानदारी से भारतीय समाज के कुछ प्रश्नों की दीवारों पर सर टकराता है । जनसत्ता के लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी लिखते हैं कि मौजूदा राजनीति भ्रष्टाचार द्वारा कलंकित होने से अपने को बचाने में असमर्थ है । कारण , उसके पास बचाव के दो ही उपाय हैं : सबूत का अभाव और साजिश । ( भ्रष्ट कृष्णमूर्ति को बचाने के लिए प्रेमशंकर झा ने दोनों उपायों का इस्तेमाल किया है – साजिश के द्वारा उसको फँसाया गया और अदालत ने उसे दंडित नहीं किया )। अरुण कुमार त्रिपाठी ने लिखा है कि ऐसे कमजोर प्रतिमानों को चलाकर भ्रष्टाचार को रोका नहीं जा सकता , क्योंकि  भ्रष्टाचार अपने में एक बीमारी नहीं है बल्कि एक बड़ी बीमारी का लक्षण मात्र है । इसी बड़ी बीमारी को बढ़ाने के लिए हिन्दी लेखक उदारीकरण को उत्तरदायी मानता है ।

उदारीकरण भ्रष्टाचार को शुरु नहीं करता है , लेकिन जब उदारीकरण के द्वारा समाज के सारे स्वास्थ्य-प्रदायक तन्तुओं  को कमजोर कर दिया जाता तब भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ता है बल्कि नियंत्रण के बाहर हो जाता है । भारत में उदारीकरण का यह चरण आ चुका है । जब अधिकांश नागरिकों के जीवन में भविष्य की अनिश्चितता आ जाती है , चन्द लोगों के लिए धनवृद्धि और खर्चवृद्धि की सीमा नहीं रह जाती , वर्गों और समूहों के बीच गैर-बराबरियाँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं ,सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेचने की छूट मिल जाती है , उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को देश के बाहर से निर्देश लेने होते हैं , जायज तरीकों से मिलनेवाली आय और नाजायज कमाई की मात्रा में आकाश-पाताल का अन्तर होता है , तब भ्रष्टाचार को रोकेगा कौन ?

( जारी )

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पिछला भाग

ऐसी स्थिति में बुराई का उद्घाटन या भ्रष्टाचार का भंडाफोड सिर्फ कुछ तथ्यों को दर्शाता है , जो सत्य है लेकिन असहाय सत्य है । जिस सत्य के साथ न्याय जुड़ता नहीं , वह कहने के लिए सत्य है । वह सिर्फ घटनाओं और आँकड़ों की सूची है , प्रतिभूति घोटाले पर मिर्धा समिति का प्रतिवेदन बहुत सारे प्रसंगों और आँकड़ों की सूची है । बोफोर्स कुछ नामों और रकमों की सूची है । चीनी घोटाला , सार्वजनिक उद्योगों के अंश(शेयर) बिक्री का घोटाला – सबके सब तथ्यों की फेहरिस्त हैं । इन तथ्यों को न्याय के ढाँचें में बाँधने की शक्ति भारतीय समाज खो चुका है ।

तथ्यों का उद्घाटन तो हर्षद मेहता भी करता है। प्रधानमन्त्री के बारे में उसने रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन किया था । कभी कोई पुलिस अफसर , कभी कोई प्रशासनिक अधिकारी अपने भीतर के सत्य को बाहर निकालने की हिम्मत जुटा लेता है । कुछ सत्य जो अपच हो रहा है , कुछ सत्य जो विवेक को परेशान कर रहा है , बाहर आ जाता है । बाहर आ जाने के बाद वह सत्य नहीं रह जाता है – तथ्यों और आँकड़ों के रूप में ग्रंथागारों के अन्दर छिप जाता है । थोड़े समय के लिए अखबार के पाठकों का मनोरंजन करता है।

अत: तथ्यों  का उद्घाटन कोई महान कार्य नहीं है । खैरनार उस अनुपात में प्रशंसा के पात्र हैं जिस अनुपात में उन्होंने व्यक्तिगत जोखिम उठाया है – शरद पवार के विरुद्ध आरोप लगाना खतरनाक काम है । पता चला है कि खैरनार शुरु से ही एक ईमानदार अधिकारी रहे हैं । कभी सचमुच व्यवस्था बदलनी होगी , तो शेषन और खैरनार जैसे अधिकारियों की जरूरत पड़ेगी । लेकिन खैरनार एक महान व्यक्ति हैं या नहीं  , इसका निर्णय अभी नहीं हो सकता है । क्या उन्होंने अपने समूचे सत्य को बाहर निकाला है ? तथ्यों को प्रकट करने के लिए सत्य को पहचानना भी पड़ता है । क्या सत्य कुछ बुराइयों के विवरण तक सीमित है ? देश की आज की स्थिति में सत्य नहीं है तो नहीं है , लेकिन कोई अगर उसको पकड़ने की कोशिश करेगा तो सत्य की आकृति इतनी बड़ी हो जाती है कि सत्य को स्थापित करनेवाला खुद सत्य के द्वारा कुचल दिया जाता है ।

टी.एन. चतुर्वेदी को लोग भूल चुके हैं। हालाँकि अभी वे जिस स्थान पर पहुँच गए हैं वहाँ से उनकी गतिविधियाँ ( अगर हों तो ) ज्यादा प्रसारित और प्रभावी होनी चाहिए । अभी वे एक महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के सांसद हैं । नौकरशाही की भाषा में यह बहुत बड़ी ’ पदोन्नति ’ है। बोफोर्स से सम्बन्धित कुछ सरकारी तथ्यों को प्रकाशित कर उन्होंने उस घोटाले के बारे में रहस्यमय जानकारियाँ दी थीं । उससे उनको जो सार्वजनिक प्रशंसा और सम्मान मिला था , उसीके बल पर उन्होंने भाजपा से राज्यसभा का टिकट प्राप्त कर लिया । भाजपा के बारे में हमारी राय जो भी हो , क्या चतुर्वेदीजी अपने विवेक को सन्तुष्ट कर पाए हैं  कि राज्यसभा और भाजपा के माध्यम से वे सत्य का अनुसन्धान कर रहे हैं ? या उनके अन्दर उतना ही सत्य था जितना उन्होंने महालेखा परीक्षक के रूप में उद्घाटित किया ।

घोटालों में से प्रत्येक हमारे राष्ट्र और समाज के विरुद्ध एक साजिश है । साजिश की घटनाओं का विवरण आ जाता है ; दोषी कौन है दिखाई पड़ जाता है , लेकिन इन साजिशों का दमन भारतीय व्यवस्था नहीं कर सकती है । संसद के अगस्त अधिवेशन में प्रतिभूति घोटाले को लेकर जो हुआ वह इस बात को पुष्ट करता है कि विपक्ष के नेता एक सीमा तक ही सत्य का पीछा कर सकते हैं उससे आगे नहीं । अब यह माना जा सकता है कि जो इस घोटाले के मुख्य अपराधी थे , जिन्होंने लगभग दस हजार करोड़ रुपये की लू्ट की और देश की वित्तीय व्यवस्था का मजाक उड़ाया , कभी भी दंडित नहीं होंगे । उनको दंडित करना मुख्य बात नहीं है, उनको दंडित न करने से हमारी अर्थव्यवस्था असुरक्षित हो गई है । अब कभी भी (जब तक माहौल यही है ) यह अर्थव्यवस्था सुधरनेवाली नहीं है ।

इसलिए तथ्यों का उद्घाटन कोई पवित्र कार्य नहीं है । राजनेता-प्रशासक-न्यायाधीश ऐसे-ऐसे कुकर्म कर रहे हैं जिनके उद्घाटन की जरूरत नहीं है – सबकी नजर के सामने कर रहे हैं और खुद अपना ’भंडाफोड’  कर रहे हैं । हत्याओं और बहुत सारी डकैतियों के अपराधी दुलारचन्द को बिहार के मुख्यमन्त्री ने सरकारी गाड़ी , बंगला और टेलीफोन देकर सामाजिक कार्यकर्ता घोषित किया है और एक ’जन अदालत’ चलाने की सलाह दी है । यही नहीं अपराधी स्वयं अपने अपराध को महिमामंडित कर उसे ” पुण्यकार्य ” बता रहे हैं । किसे यह बात याद आती है कि बीजू पटनायक ने यह दावा किया था कि अतीत में जब वे मुख्य मन्त्री थे , पारादीप बन्दरगाह के काम में तेजी लाने के लिए उन्होंने देहाती सड़कों पर सैंकड़ों ट्रक चलाने की अनुमति दी थी। फलस्वरूप दो सौ बच्चों की दुर्घटना जनित मृत्यु हुई थी । बीजू पटनायक ने गर्व से यह कहा था कि इन दुर्घटनाओं की प्राथमिक ( एफ.आई. आर.) दर्ज न करने के लिए पुलिस विभाग को निर्देश दिया गया था ।

यह एक असलियत बन रही है कि अपराधी खुद अपना भंडाफोड कर रहा है , बहादुरी बताने के लिए। राजनीतिशास्त्र से पूछा जा सकता है कि इस अवस्था में या इससे भी बदतर स्थिति होने पर लोकतंत्र कितना टिकाऊ होगा ?

हम अपने से इसी सवाल को दूसरे ढंग से पूछ सकते हैं : भारतीय समाज में न्यायशक्ति को पुन:स्थापित करने के लिए या मौजूदा राजनीति को बदलने के लिए क्या उपाय है ? सिर्फ राजनेताओं की निन्दा और विभिन्न तबकों की अपनी – अपनी मा~म्गों के आन्दोलनों तक सीमित रहने से क्या न्याशक्ति स्थापित की जा सकती है या राजनीति को बदला जा सकता है ? इसके लिए क्या उपाय है ?

(सामयिक वार्ता , जुलाई , १९९४)

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” हमारे भीतर और सभी की जड़ में एक विराट सत्य है ; यह बात  जो लोग अपने भीतर से उपलब्ध (ग्रहण) नहीं कर सकेंगे , वे कैसे विश्वास करेंगे कि मनुष्य का चरम लक्ष्य है : अपने भीतर छुपे हुए उस (विराट) सत्य को सभी आवरणों को भेदकर प्रकाशित करना … ।”

रवीन्द्रनाथ ठाकुर (घर और बाहर )

महाराष्ट्र के खैरनार और ओडिशा के अनादि साहू के बयानों से लगता है कि देश में एक शेषन-लहर चल रही है । (ओडिशा के अनादि साहू एक पुलिस अफ़सर हैं , जिन्होंने बिजू पटनायक की सरकार के एक प्रमुख मन्त्री को जहरीली शराब बिक्री के  मुख्य अपराधी का सहयोगी होने का न्यायिक प्रमाण अदालती जाँच के सामने पेश किया है । ) शेषन ने समकालीन इतिहास में अपना स्थान बना लिया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उसने चुनाव-राजनीति में ( यानी भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में )कानून का का राज स्थापित करने का प्रयास दम्भ के साथ किया है ।दम्भी होना एक अवगुण है ; लेकिन दम्भी होना न गैर कानूनी है और न भ्रष्ट आचरण है । बल्कि अगर वह दम्भी न होता तो सारे राजनीतिक दलों को झकझोरने की इच्छाशक्ति एक नौकरशाह में कैसे आती ?

चरित्र के मामले में विकासशील देशों का नौकरशाह सबसे घटिया होता है । पिछले एक-डेढ़ दशक से उन देशों की राजनीति का जो चरित्र उभर रहा है उसमें राजनेता नौकरशाह से भी ज्यादा घटिया और खतरनाक साबित हो रहा है । विकासशील देशों के नौकरशाह के बारे में यह शक रहता है कि वह देशी-विदेशी निहित स्वार्थों से निजी फायदा उठाने के लिए देशहित के विरुद्ध कार्य करता है और सर्वोच्च राजनेताओं को भी गलत सलाह देता है । लेकिन जब देश एक ऐसी कालावधि से गुजर रहा है जब देश का राजनीतिक नेतृत्व देश के स्वार्थ को बेचकर अपनी सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश कर रहा है ।

दूसरी ओर राजनेता-अपराधी सम्बन्ध भी मामूली स्तर को पार कर चुका है , उस स्तर को पार कर चुका है , जहाँ राजनेता यदाकदा मजदूर आन्दोलन को दबाने के लिए या चुनाव जीतने के लिए अपराधियों का इस्तेमाल करता था । लेकिन अब ? राजनीतिक सत्ता को आधार बनाकर अपराधियों के गिरोह संगठित हो रहे हैं और राजनेता इन गिरोहों के सदस्य हैं (जलगाँव प्रकरण ) । बहुत सारे अपराध इस प्रकार घटित हो रहे हैं जो सत्ता के प्रत्यक्ष सहयोग के बगैर सम्भव नहीं हैं । अनेक हत्याएँ, अनेक बलात्कार और अपहरण के घटनाएं इसी कोटि की हैं । अपराधी गिरोहों का निर्माण अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर हो रहा है तो उनका सहयोगी होकर राजनेता किसी भी समय जाने-अनजाने विदेशी कूटनीतिक साजिशों का औजार बन सकता है । जब रजनीति इस अवस्था में पहुंच जाती है तब यह स्वाभाविक है कि कहीं – कहीं नौकरशाह इसके खिलाफ विद्रोह करे तथा राजनेताओं को सदाचार सिखाने का दम्भ भरे ।

ऐसा करनेवाले नौकरशाहों में से इक्के-दुक्के बहुत लोकप्रिय भी हो सकते हैं । इस लोकप्रियता में कोई सामाजिक उर्जा नहीं होती । यह किसी फिल्मी दृश्य की लोकप्रियता जैसी है । डाकू मानसिंह और फूलन देवी की लोकप्रियता जैसी है । इसका मतलब यह नहीं कि यह घटनायें सकारात्मक नहीं हैं। भ्रष्टाचार का भंडाफोड हमारी सामाजिक और बौद्धिक अधोगति की कुत्सित वास्तविकता का चित्रण करता है और समाज में बचे-खुचे नैतिक आक्रोश को अभिव्यक्त करता है ।

भंडाफोड कोई प्रतिकार नहीं रह गया है । शायद दो-तीन दशकों के पहले एक समय ऐसा था जब बुराई का उद्घाटन अपने में एक प्रतिकार था । यह तब होता है जब समाज की अपनी एक अन्दरूनी ताकत होती है,जिसको कुछ लोग नैतिक शक्ति कहना पसंद करेंगे , हम उसको न्यायशक्ति कहेंगे । जब समाज में यह न्यायशक्ति रहती है तब भ्रष्टाचार का उद्घाटन अपने आप प्रतिकार की तरफ बढ़ने लगता है। मानो न्याचक्र घूमने लगता है । दोषी को दंडित होना यहां अनिवार्य है, लेकिन मुख्य बात यह नहीं है। मुख्य बात यह है कि समाज सुरक्षित रहता है । न्यायशक्ति वह तत्त्व है जो समाज को धारण करती है । ’धर्म’ शब्द की कई भारतीय परिभाषाओं में यह एक है : समाज को धारण करनेवाला तत्त्व । इस तत्त्व के बनाए रखने के लिए कानून की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । सामाजिक-राजनैतिक मान्यताओं, प्रथाओं,मर्यादाओं और बुद्धिजीवी वर्ग की नैतिक प्रतिक्रियाओं के द्वारा ही इस तत्त्व की पुष्टि होती है । इसके बगैर कानून भी अप्रभावी हो जाता है । न्यायचक्र के निश्चल होने  के पीछे मुख्य जिम्मेदार बुद्धिजीवी वर्ग है । जब तक बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्ट नहीं होगा तब तक किसी भी समाज की न्याय शक्ति, नैतिक शक्ति पंगु नहीं हो जाएगी । इसके बाद ही राजनेता निरंकुश होता है और न्याय का गला घोटता है। जब सेठों , अफसरों या छोते नेताओं का भ्रष्टाचार पकड़ा जाता था , तब लोगों को खुशी होती थी कि सर्वोच्च नेतृत्व प्रतिकार करेगा और समाज को सुरक्षित रखेगा । लेकिन जिस चरण में सर्वोच्च नेतृत्व खुद अपराधियों की जमात बन गया है तो दंड प्रक्रिया कौन चलाएगा ? उसके ऊपर कोई संवैधानिक शक्ति नहीं है;उसके नीचे कोई नैतिक शक्ति नहीं है। उसका मुखौटा उतर जाने के बाद भी वह बेशर्म रहेगा तो कहाँ से उसका प्रतिकार होगा ?

(जारी)

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पिछले हिस्से : एक , दो , तीन

सार्वजनिक आचरण तथा निजी आचरण का एक राष्ट्रीय पैमाना होता है ( यहाँ राष्ट्र का अर्थ देश है – स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय का एक भौगोलिक-सांस्कृति-राजनीतिक अंचल होता है , वही देश है )। व्यक्ति आचरण का इस राष्ट्रीय चरित्र से दोतरफ़ा सम्बन्ध और संवाद होता है । आचरण की एक खास परिधि के भीतर व्यक्ति और राष्ट्र एक-दूसरे को प्रभावित तथा निर्मित करते रहते हैं । कुछ समाजों में यह राष्ट्रीय चरित्र बहुत ही कमजोर और पतनोन्मुख रहता है । प्रशासन , राजनीति तथा सामाजिक जीवन में बढ़ने वाला भ्रष्टाचार इसी का अंग है ।

सवाल उठता है कि राष्ट्रीय चरित्र को कैसे बदला जा सकता है ? क्या हम भारत के राष्ट्रीय चरित्र को बदलने की कोशिश कर सकते हैं , ताकि हमारा समाज स्वस्थ हो ?

शायद राष्ट्रीय चरित्र के पतन का कारण और उसके पुनरुत्थान का उपाय एक है । जिस समय समाज को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, खासकर बाहर से आई हुई चुनौतियों का । उस समय अगर समाज का नेतृत्व करनेवाला राजनीतिक-बौद्धिक समूह उनका सही मुकाबला नहीं कर पाता , तब राष्ट्रीय चरित्र में भारी गिरावट आती है । पुनुरुत्थान की कुंजी भी इसीमें है । लम्बे अरसे के पतन के बाद अगर किसी काल बिन्दु पर उस समाज ने चुनौतियों का , खासकर बाह्य चुनौतियों का , मुकाबला करना स्वीकार कर लिया , तब राष्ट्रीय चरित्र का पुनरुत्थान शुरु हो सकता है । बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में ऐसी प्रक्रिया शुरु हुई थी ।

अगर आज पुन: हम उस प्रक्रिया को जीवित और पुष्ट करना चाहें , तो कर सकते हैं । इसके लिए देश में एक नए बौद्धिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक समूह को पैदा होना होगा । राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक महत्वपूर्ण क्षेत्र में हस्तक्षेप करना पड़ेगा । राजनीति , अर्थनीति और धर्म के क्षेत्र में प्रभावी हस्तक्षेप के साथ साथ ही एक नया सांस्कृतिक आन्दोलन विश्वसनीय होगा । लेकिन सांस्कृतिक आन्दोलन का अपना एक मौलिक क्षेत्र है। सम्भवत: सांस्कृतिक मूल्यों को स्पष्ट और गतिशील किए बिना राजनीति और अर्थनीति में भी सार्थक हस्तक्षेप करना सम्भव नहीं होगा,क्योंकि प्रचलित राजनीति, अर्थनीति और धर्म प्रचलित सभ्यता के अंग बन चुके हैं । इस सभ्यता को चुनौती देना नए सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए अनिवार्य है । मनुष्य की संस्कृति मनुष्य के कुछ बुनियादी सम्बन्धों पर आधारित होती है – मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध , मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध और मनुष्य का समुदायों से सम्बन्ध । प्रचलित सभ्यता में ये सम्बन्ध विकृत या असन्तुलित हो चुके हैं । इस सभ्यता को आगे बढ़ाकर मनुष्य के सुख , शान्ति या स्वास्थ्य को बनाए रखना सम्भव नहीं रह गया है । इन सम्बन्धों को बदलने से ही नए मूल्यों की स्थापना होगी । नई संस्कृति इसी का परिणाम होगी।

इन सारे गहरे और व्यापक पहलुओं को छुए बगैर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बेमानी हो जाता है। भ्रष्टाचार का मुद्दा इसलिए उठाना चाहिए कि लोग इस मुद्दे को समझते हैं और इसके प्रति संवेदनशील होते हैं । लेकिन इस मुद्दे को निर्णायक बनाने के लिए भ्रष्टाचार की बुनियाद में जाना पड़ेगा ।

( सामयिक वार्ता , अक्टूबर ,१९९४)

आगे : भ्रष्टाचार – असहाय सत्य , लेखक किशन पटनायक

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