बड़े मीडिया के अधिकांश अंग्रेजी स्तम्भ लेखकों के लेखों में चालाकी का भारी पुट रहता है । चालाकी एक प्रकार की बेईमानी है । आउटलुक (१० अप्रैल , २००१) में प्रेमशंकर झा तहलका से प्रकट हुए भ्रष्टाचार पर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए जो लिखते हैं उसके पीछे उनका सामाजिक दर्शन भी छुपा हुआ है । सामाजिक दर्शन इस प्रकार है : समाज इसी तरह चलता रहेगा ; व्यक्ति-जीवन में भोग एकमात्र लक्ष्य है ; सामाजिक सन्दर्भ में उसको प्राप्त करने के लिए नैतिकता का पक्ष लेना पड़ेगा और भ्रष्टाचार की निन्दा करनी होगी ; क्योंकि समाज को चलाये रखना है ; अन्यथा नैतिकता कुछ होती नहीं है ।
प्रेमशंकर झा का कहना है कि बंगारु लक्ष्मण , जया जेटली और जार्ज फर्नांडीज चोर हैं । उनके निर्दोष होने की कल्पना करके और जार्ज को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) के संयोजक के रूप में बरकरार रखकर प्रधानमन्त्री ने भारी गलती की है । जाँच के पहले इन राजनैतिक नेताओं को निर्दोष समझना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठाना भ्रष्टाचार से समझौता है ।
ये बातें सही हैं और भाजपा के सारे विरोधी भी यही बात कर रहे हैं । यह बात भी सही है कि जाँच से कुछ निकलता नहीं है और निकले भी तो मुकदमा चलाकर कभी किसी बड़े नौकरशाह या नेता को कठोर दंड देने की मिसाल स्मृति में नहीं आती है । हवाला कांड का क्या हुआ ? शेयर घोटाले का क्या हुआ ?
राजनैतिक नेताओं को नरक में ढकेलने के बाद प्रेमशंकर झा एक नौकरशाह को स्वर्ग में स्थापित करने के लिए अंगरेजी के चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हैं । वे इस आदमी का वर्णन ” भारत के सार्वजनिक संगठनों का योग्यतम नौकरशाह ” के रूप में करते हैं जिसको कुछ साल पहले ” अनावश्यक ही गर्मी के दिनों में सुविधाविहीन तिहाड़ जेल में रखा गया था , जबकि अदालत में वह निर्दोष पाया गया , क्योंकि पुलिस के पास प्रमाण नाम की चीज नहीं थी । ” वे उस घोटाले का नाम भी नहीं बताते है जिसके यह शख्स यानी बी. कृष्णमूर्ति प्रधान खलनायक थे । यह था उदारीकरण युग का पहला भ्यावह घोटाला , जिसके बारे में एक भारी-भरकम जाँच हुई और रिपोर्ट भी बढ़िया ढंग से तैयार हुई , लेकिन अन्त में किसी भी नामी आदमी को जेल में जीवन नहीं बिताना पड़ा । कारण , पुलिस के पास प्रमाण नहीं थे । एक तरफ जाँच के पहले एक अभियुक्त को प्रधानमन्त्री निर्दोष होने की मान्यता दे रहे हैं , दूसरी तरफ़ अदालत में अभियोग प्रमाणित न होने के कारण झा जीउस अभियुक्त को सर्वश्रेष्ठ नौकरशाह का खिताब दे रहे हैं और मुकदमे के पहले दिए गए दंड को बर्बरता कह रहे हैं । दोनों ही गलत प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं । अंगरेजी का स्तंभ लेखक नौकरशाह का बचाव कर रहा है और प्रधान मन्त्री नेता तथा नौकरशाह दोनों का बचाव कर रहे हैं ।
गलत प्रतिमानों के चलते ही पिछले पचास सालों में भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह दंड से बचे हुए हैं; वे सामाजिक प्रतिष्ठा भी पा रहे हैं । सीवान के शहाबुद्दीन प्रतिष्ठित हो रहे हैं। अगर अंग्रेजी पत्रकार की कसौटी को मान लें, तो यह कसौटी शाह्बुद्दीन के पक्ष में है । पुलिस अभी तक शहाबुद्दीन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दंडित कराने में असफल रही है । किसी भी भाषा में शब्दों के चालाकी -भरे प्रयोग से तर्क की विसंगतियां छुप जाती हैं ; अंगरेजी में यह ज्यादा होता है ।
हिन्दी का पत्रका ज्यादा ईमानदारी से भारतीय समाज के कुछ प्रश्नों की दीवारों पर सर टकराता है । जनसत्ता के लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी लिखते हैं कि मौजूदा राजनीति भ्रष्टाचार द्वारा कलंकित होने से अपने को बचाने में असमर्थ है । कारण , उसके पास बचाव के दो ही उपाय हैं : सबूत का अभाव और साजिश । ( भ्रष्ट कृष्णमूर्ति को बचाने के लिए प्रेमशंकर झा ने दोनों उपायों का इस्तेमाल किया है – साजिश के द्वारा उसको फँसाया गया और अदालत ने उसे दंडित नहीं किया )। अरुण कुमार त्रिपाठी ने लिखा है कि ऐसे कमजोर प्रतिमानों को चलाकर भ्रष्टाचार को रोका नहीं जा सकता , क्योंकि भ्रष्टाचार अपने में एक बीमारी नहीं है बल्कि एक बड़ी बीमारी का लक्षण मात्र है । इसी बड़ी बीमारी को बढ़ाने के लिए हिन्दी लेखक उदारीकरण को उत्तरदायी मानता है ।
उदारीकरण भ्रष्टाचार को शुरु नहीं करता है , लेकिन जब उदारीकरण के द्वारा समाज के सारे स्वास्थ्य-प्रदायक तन्तुओं को कमजोर कर दिया जाता तब भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ता है बल्कि नियंत्रण के बाहर हो जाता है । भारत में उदारीकरण का यह चरण आ चुका है । जब अधिकांश नागरिकों के जीवन में भविष्य की अनिश्चितता आ जाती है , चन्द लोगों के लिए धनवृद्धि और खर्चवृद्धि की सीमा नहीं रह जाती , वर्गों और समूहों के बीच गैर-बराबरियाँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं ,सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेचने की छूट मिल जाती है , उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को देश के बाहर से निर्देश लेने होते हैं , जायज तरीकों से मिलनेवाली आय और नाजायज कमाई की मात्रा में आकाश-पाताल का अन्तर होता है , तब भ्रष्टाचार को रोकेगा कौन ?
पढ़ें , भ्रष्टाचार पर किशन पटनायक के कुछ अन्य लेख :
aflatoonji kya yeh lekh kuchh purana nahin hai ? aapne tareekh aur prasang dete huve prastuti nahin ki ? yun rajneetik bhrashtachaar hamare lok jeevan ka shashwat sach hai…..! sinhakumara.
लेख के अंत में तिथि देता हूं । यह लेख अप्रैल , २००१ में ’सामयिक वार्ता’ में छपा था । कुछ बुनियादी बाते अप्रासंगिक नहीं हुई हैं इसलिए इन्हें नेट पर छाप रहा हूं ।
[…] लेख के पिछले भाग : एक , […]
[…] / तहलका से उठे सवाल / किशन पटनायक : एक , दो , […]