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Posts Tagged ‘समाजवादी जन परिषद’

डॉ. स्वाति का गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ़ जुझारू जज़्बा हमेशा आह्वान देता रहेगा!

समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
डॉ. स्वाति नहीं रहीं उन्होंने दलित, आदिवासी, किसान और श्रमिकों के साथ व्यापक रूप से काम किया था।
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!

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समाजवादी जन परिषद
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प्रेस विज्ञप्ति
पत्रांक 2/ 2020 दिनांक 15-04- 2020
राष्ट्रीय आपदा में राष्ट्रीय सरकार

सन 2020 मे भारत अन्य देशों की तरह एक विनाशकारी खतरे में COVID-19 विषाणु ( VIRUS) की वैश्विक महामारी के कारण आ गया है। बीसियों देशों के COVID-19 महामारी के आंकड़ों, विश्लेषणों और ज्ञात सुरक्षा उपायों से निष्कर्ष निकला है कि भारत में करोड़ों लोग संक्रमित होंगे और लाखों लोगों की मौत होगी। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक सदभाव, राजनीतिक स्थिरता, कानून- व्यवस्था और खाद्य, सीमा तथा स्वास्थ्य सुरक्षा करीब करीब ढेर हो जायेगी। देश का विशिष्ट वर्ग (Elite), प्रशासक, राज्यतंत्र औऱ वैज्ञानिक वर्ग अब तक इन खतरों को नहीं समझ रहे हैं, और वस्तुस्थिति को जनता से छिपा रहे हैं।

संसदीय और राष्ट्रपति प्रणाली की कई लोकतान्त्रिक सरकारें चरम हालातों लम्बा युद्ध, राष्ट्रव्यापी महामारी (Nationwide Epidemic), वैश्विक आर्थिक युद्ध (Global Economic War), जलवायु महाविपत्ति (Climatic Catastrophe) जैसी मुसीबतों में अकुशल, दुविधा ग्रस्त, और निर्भीक निर्णय मे अक्षम हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि इन सरकारों के पास सम्पूर्ण जनता का समर्थन और उसके प्रतिनिधियों की सहभागिता नहीं होती है।

ऐसे हालातों में “राष्ट्रीय सरकार (National Unity Government)” बनाने का विश्व के विभिन्न देशों में कई उदाहरण रहे हैं। इन सरकारोँ ने अपने देश और समाज को भीषण संकट औऱ खतरों से उबारने में सफलता पाई। इन राष्ट्रीय सरकारोँ में संसद की बहुमत वाली पार्टी विपक्षी पार्टियों को भी सरकार में शामिल करती है। सभी पार्टियों के लोग अपने अन्तरविरोधों को कुछ वर्षों के लिये छोड देते हैं। सभी दल मंत्रिमंडल में शामिल होते हैं और तात्कालिक भीषण हालातों से देश को उबारने की कोशिश में लग जाते हैं।

हम नीचे ऐसी “राष्ट्रीय एकता सरकारों (National Unity Government)” के कुछ उदाहरण देखेंगे।

  1. 1861 में शुरू हुए अमेरिका के गृह युद्ध के समय संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रीय एकता सरकार बनी जिसमें बहुमत वाली रिपब्लिकन पार्टी के अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने और विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के ऐंडरू जॉनसन उपराष्ट्रपति बने। दोनों पार्टियों की सम्मिलित सरकार ने गृहयुद्ध में गोरे नस्लवादी राष्ट्रतोड़क विद्रोहियों को हराकर नस्लवाद को हराया और अमेरिकी राष्ट्र को टूटने से बचाया।
  2. 1930 की भीषण आर्थिक मंदी (The Great Depression) के समय 1931-35 में बिट्रेन में रैमसे मैकडोनाल्ड के प्रधानमंत्री काल में बहुमत वाली लेबर पार्टी ने विपक्षी लिबरल पार्टी के साथ राष्ट्रीय सरकार बनाई।

इसी “राष्ट्रीय एकता” के उम्मीदवारों ने 1935 का चुनाव मिलकर लड़ा और आंशिक राष्ट्रीय एकता सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के अंत 1945 तक ब्रिटेन पर शासन किया।

  1. दक्षिण अफ्रीका में 1994 में हुए चुनाव के बाद उन सभी दलों के सांसदो को सरकार में शामिल किया गया जिन्हें 10% से ज्यादा वोट आये थे। यह सरकार 1999 तक चली।
  2. नेपाल में 2015 के भीषण भूकंप के बाद सभी बड़ी पार्टियों ने मिलकर सरकार और संसद चलाई। इसी दौरान बरसों से मतभेदों मे फँसे हुए नेपाल के नये संविधान को भी बनाया और अंगीकृत किया गया।
  3. इटली में 1946 से 2014 के बीच 7 (सात) बार विभिन्न पार्टियों ने मिलकर राष्ट्रीय एकता सरकार चलाई।
  4. इज़रायल में कई बार ऐसी राष्ट्रीय एकता सरकार बनी है। सबसे ताज़ा प्रयोग अभी 27 मार्च 2020 का है।
  5. ऐसी सरकारे अफगानिस्तान, कनाडा, क्रोएशिया, एस्टोनिया, ग्रीस, हंगरी, केन्या, लेबनान, फिलिस्तीन, श्रीलंका, सूडान, जिम्बाब्वे वगैरह में भी बनी है।

आज भारत में इतिहास का तकाजा है कि केंद्र में इस प्रकार की “राष्ट्रीय एकता” सरकार तुरंत बने

अभी की कोरोना महामारी के अभूतपूर्व संकट के समय बहुमत वाले केवल एक गठबंधन की सरकार अशक्त रहेगी और कठोर सही निर्णय लेकर उसका कार्यान्वयन नहीं कर पाएगी। उस दक्षता, निर्भीक निर्णयों और कार्यान्वयन के अभाव मे देश और जनता को बीमारी, भूख, मौतें, बेरोजगारी और आर्थिक संकटों की भयानक कठिनाइयों और पीड़ा से गुजरना होगा।

इसलिए अविलंब ऐसी एक “राष्ट्रीय एकता सरकार” बनाने लिए मैं एक फार्मूला प्रस्तावित कर रहा हूँ । मंत्रिमंडल में 100 (सौ) सदस्यों की जगह मान कर गणना करें। लोक सभा चुनाव (2019) में जिस किसी पार्टी को 1 (एक) प्रतिशत से ज्यादा मत मिले थे; उस हरेक पार्टी के प्राप्त वोट प्रतिशत के अनुपात में मंत्री रखे जाँय। 2019 के चुनाव नतीजे बताते हैं कि 13 (तेरह) दलों को एक प्रतिशत से ज्यादा मत आये थे। इन सभी दलों के सदस्यों को लेकर मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया जाय। एक सरसरी गणना बताती है कि केवल 80 सदस्यों का ही मंत्रिमंडल बन सकेगा। क्योंकि छोटे दलों (1% से कम वोट वाले) और स्वतंत्र उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त मतों के आधार पर क़ोई प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगा।

भारत की 130 करोड़ जनता को मौत, बीमारी और आर्थिक बरबादी से बचाने के लिए और एक समावेशी सक्षम राजनीतिक नेतृत्व तैयार करने के लिए यह संभव प्रकिया है। संसद मे बहुमत प्राप्त दल इस चुनौती को तुरंत स्वीकार करें और भारत तथा विश्व इतिहास मे एक ऊंची जगह पाएं।

अतुल कुमार
सचिव

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सजप विज्ञप्ति

पत्रांक 3/ 2020 दिनांक 27-04- 2020

व्यवस्थाओं का पोल खोलती कोरोना का कहर और सजप की पहल

विश्वव्यापी कोरोना महामारी के उत्पन्न हुए पांच महीने हो गए। भारत में इसका पहला मामला 30 जनवरी को प्रकट हुआ। इसके बाद से तमाम कोशिशों के बावजूद यह निर्बाध बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया में इससे अब तक मरनेवालों की संख्या दो लाख से ऊपर हो गई है। इसके सबसे ज्यादा शिकार विकसित देशों में हो रहे हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति कोरोना के आगे लाचार है और सबसे पीछे चलने के बाद भी वहां अभी सर्वाधित मौत के आंकड़े 55,000 से अधिक हो रहे हैं। विवादास्पद रूप से अपने उत्पत्ति स्थान में चीन में कितने लोग मारे गए हैं, इसका आंकड़ा हमेशा की तरह संदेहास्पद है। चीन जैसे कठोर नियंत्रित और एकदल आधिपत्य वाले देश में इसी नियंत्रण का नतीजा है कि बाहरी दुनिया इसके बताए आंकड़ों पर विश्वास नहीं कर रही और कई लोगों तो आशंका है कि वहां मौत के आंकड़े करोड़ तक में जा सकते हैं। इस आशंका को बल तब और मिल जाता है जब चीन एक बार कोरोना मुक्त घोषित हो जाने के बाद फिर इस संक्रमण का शिकार हो रहा है। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने अपने परंपरागत अनुशासन और दुरुस्त सरकारी व्यवस्था की बदौलत इसके संक्रमण को एक हद तक रोकने में सफल रहा है।

भारत और लगभग दक्षिण एशिया में कोरोना का कहर सबसे अंत में शुरू हुआ है। इस बीच दुनिया भर की सूचनाएं हमारे यहां आती रही हैं और इससे बचाव का हमारे पास पर्याप्त समय भी मिला है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को केरल में उद्घाटित हुआ। इसके बाद सरकारी और व्यवस्थागत हीला हवाली के साथ 24 मार्च तक चला। आरोप यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 20 फरवरी के कार्यक्रम के लिए और बाद में मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिराकर भाजपा सरकार बनाने की कवायद के लिए तब तक हीला हवाली बनाए रखा। इस दौरान कोराना भी अपना पांव पसारता रहा। अंत में 24 मार्च को बिना सर्वानुमति बनाए या इसकी पूर्व चर्चा किए सरकार की ओर से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। उस समय देश में 657 संक्रमित थे। लॉकडाउन के एक महीना से अधिक बीत जाने के बाद आज संक्रमितों की संख्या 30,000 के पास पहुंच गई है तो मृतक संख्या 1000 के आसपास हैं।

इस पूरे प्रकरण से एक बात साफ हो गई है कि हमारी सरकारी व्यवस्था बुरी तरह से लचर है और किसी संकट के समय इसके हाथ पावं फूल जाते हैं। हम यहां सरकार को किसी प्रकार की मोहलत देने के पक्ष में इसलिए नहीं हैं कि सरकारों को हमेशा निर्णय लेने और व्यवस्था करने की छूट होती है। सरकारों के पास हर तरह की जानकारी और विशेषज्ञता सर्वोच्च स्तर पर होती है जिसके लिए वह देश की जनता से पूरा खर्च वसूल करती है। सतर्क सरकारों ने इसका उपयोग किया है और मामले को नियंत्रण में भी रखा है। इस मामले में कई सरकारी त्रुटियां उजागर हुई हैं, जिसकी ओर हम लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे।

30 जनवरी के बाद से देश में करीब 15 लाख लोग विदेशों से आए। इन सबके साथ जांच और व्यवहार में लापरवाही हुई। सभी को केवल मुहर लगाकर छोड़ दिया गया। इनमें से कई तो संक्रमित होने के बावजूद पारासिटमोल से बुखार कम कर हवाई अड्डों से निकल आए। इससे बड़ी संख्या में कोराना अपने स्वभाव के अनुसार संक्रमण करने में सफल रहा है।

जब सबसे पहला मामला देश में आया और इसके पहले से कोरोना दुनिया में तहलका मचा रहा था तो इसका अनुभव लेकर विदेश से आनेवाले करीब 15 लाख लोगों को क्वारंटाइन किया जा सकता था। देश की सीमाओं को उसी समय सील कर बाहर से आनेवाले को रोक कर संक्रमण को रोका जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम में 1000 के करीब अमेरिकी और विदेशी लोग अहमदाबाद में एकत्र हुए, जिनकी कोई जांच नहीं की गई। इनमें से कई संक्रमित रहे होंगे। यह इस बात से भी साबित होता है कि गुजरात में आज की तारीख तक जो 3000 लोग संक्रमित हैं, उनमें 2000 से अधिक लोग केवल अहमदाबाद में हैं। इसी तरह दिल्ली के निजामुद्दीन में स्थित तबलीगी जमात के कार्यक्रम में दो हजार से अधिक विदेशियों को निर्बाध न केवल आने दिया गया बल्कि जमात द्वारा सूचित किए जाने के बाद भी उनहें वहां से जाने से नहीं रोका गया और न ही वहां बचे लोगों की जांच की व्यवस्था की गई। उल्टे इस घटना का दुरुपयोग कर मामले को सांप्रदायिक रंग देकर देश में उन्माद का वातावरण सत्ताधारी गठबंधन और आरएसएस ने पैदा किया।

अगर यह लापरवाही नहीं होती तो शायद इतने लंबे लॉकडाउन की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। केरल में मामले इसलिए नियंत्रण में आ गए, क्योंकि वहां लॉकडाउन को गंभीरता से लिया गया था। तक़रीबन 1,25,000 मामलों को पर्याप्त वॉलेंटियर की मदद से कड़ाई से निगरानी की गई। केरल में चार अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं और अन्य राज्यों से ज़्यादा जोखिम हो सकता था पर प्रभावी क्वारंटाइन से हालात पर नियंत्रण कर लिया गया। देश के बाक़ी हिस्सों में भी ऐसा किया जा सकता था। भारत में तक़रीबन 9 लाख आशा कार्यकर्ता है इन के अलावा आंगनवाड़ी वर्कर, एएनएम बड़ी संख्या में इस काम में लगाए जा सकते थे।

लेकिन असलियत है कि देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं जर्जर हो चुकी है। पीएचसी नाममात्र के हैं। वहां कार्यकर्ता हैं तो दवाएं व जांच की मूलभूत सुविधाएं नदारद हैं। यह पिछले तीस सालों में नवउदारवादी नीतियों के कारण स्थापित निजी अस्पतालों को बढ़ावा देने का नतीजा है।

जब 657 मामले थे तब सरकार ने बिना किसी जिम्मेदारी के देशभर में पूर्ण लॉकडाउन घोषित कर दिया और लाखों प्रवासी मजदूरों को रोजगार विहीन कर सड़कों पर भूखे-प्यासे मरने को छोड़ दिया। लेकिन जब प्रतिदिन 1400 से 1700 तक नए मामले आ रहे हैं, ऐसे में लॉकडाउन सरकार ने कुछ सामान को छोड़ कर सभी दुकानों को खोलने की छूट दे दी। कारखानों और व्यावसायिक प्रतिस्थानौं के लिए सशर्त छूट पहले ही दी जा चुकी है। सरकार के इन निर्णयों का क्या अर्थ लगाया जाय? ऐसे ही कई सवाल उठ रहे हैं। मसलन,

  • कोरोना वायरस का प्रसार अब शिथिल पर गया है? तो फ़िर रोज 1400 से 1700 तक केस कैसे रिपोर्ट हो रहे हैं?
  • कोरोना को रोकने के लिए सम्पूर्ण लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं है? तो फ़िर पिछले एक महीने का लॉकडाउन अज्ञान के कारण लगाया गया?
  • क्या हमने इस एक महीने में कोरोना से लड़ने की तैयारी कर ली? फ़िर अभी तक मात्र प्रति मिलियन (दस लाख में) 420 (झारखण्ड राज्य का यह आँकड़ा सबसे कम मात्र 60 का है) जांच ही क्योँ हुए, जबकी बाकी सभी प्रभावित देशों ने अपनी जनसंख्या के प्रति मिलियन 7000 से 27000 तक जांच किए हैं।
  • यदि हमने पीपीई (व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण) की व्ववस्था कर ली है तो सरकारी अस्पतालों के ओपीडी (ब्राह्य मरीज विभाग) क्योँ बन्द हैं? मरीजों को अन्य बीमारियों का इलाज क्योँ नहीं मिल पा रहा?

केंद्र एवं राज्य सरकारें (केरल और गोवा को छोडकर) अपनी नाकामी को छुपाने के लिए लॉकडाउन को ढाल बना रही है। लेकिन इस तरह के लंबे लॉकडाउन से कोरोना तो नहीं ही रुकेगा, अर्थव्यवस्था जरूर तबाह हो जाएगी। दिहाड़ी मजदूर और उनका परिवार भूख से बीमार होंगे/ मरेंगे, कोरोना के अलावा दूसरी बीमारियों से पीड़ित इलाज के अभाव में मरणासन्न होंगे/ मरेंगे और बहुत सारी समस्याएं पैदा होंगी। इसके साथ ही लॉकडाउन की पूरी कीमत असंगठित क्षेत्र के 60 फ़ीसदी आबादी से वसूली जा रही है, जिनकी दिहाड़ी चली गई और आगे भी आजीविका कोई साधन नजर नहीं आता। लॉकडाउन के कारण आनेवाली मंदी का खामियाजा भी उन्हें ही सबसे ज्यादा भुगतना पड़ेगा। इनके पास न संसाधन है और ना हीं भविष्य के लिए बचाया गया धन। सरकारी पैकेजों में इन की बुनियादी ज़रूरतों को भी अनदेखा किया गया है।

सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ावा देने वाली ख़बरें भी लगातार तेज हो रही हैं। इसके साथ ही विपक्षी दलों के शासन वाले राज्य सरकारों के साथ भेदभाव और विभिन्न नियमों को लागू कर सत्ता और व्यवस्था का केंद्रीकरण किया जा रहा है। इसी मौके का नाजायज फायदा उठाकर पीएम केयर्स फंड गठित कर दिया गया है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। क्योंकि प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष पहले से ही देश में मौजूद है, जिसमें सरकारी लोगों के अलावा विपक्ष के नेता और कई अन्य प्राधिकारी होते हैं। पीएम केयर्स के द्वारा सरकार ने इसे अपने कब्जे में कर लिया है। इसका न तो कोई ऑडिट होनेवाला है और न ही इसकी जानकारी स्वच्छ व साफ रहेगी। आगे वित्तीय इमरजेंसी की भी आशंका जताई जा रही है।

अब जबकि मामला यहां तक बढ़ गया है और आशंका है कि आगे देश में इस का संक्रमण तेजी से फैलेगा, एक बार फ़िर सरकारों से और प्रबुद्ध जनों से आग्रह है कि दूसरे देशों के अनुभव के आधार पर कोरोना से लडाई में हम निम्न प्राथमिकताओं के आधार पर आगे बढ़ने का माहौल बनाएं-

  1. हॉट स्पॉट इलाकों में हर व्यक्ति की जांच की व्यवस्था की जाए।

2 पीपीई किट की समुचित व्यवस्था कर स्वास्थ्यकर्मियों को संक्रमित होने से बचाया जाय। अस्पतालों और वहां के ओपीडी को चालू किया जाए।

  1. सरकार निजी अस्पतालों को सुविधाएं देना बंद करे तथा सरकारी स्वास्थ्य सेवा ढांचे को मजबूत करे, उस पर ज्यादा खर्च करे। डॉक्टरों की फ़ीस पर अंकुश लगाना चाहिए, उनके दाम सीजीएचएस फीस से ज़्यादा हरगिज़ नहीं होना चाहिए।
  2. जीडीपी का कम से कम 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी तौर पर खर्च की योजना बनें। यह योजना विकेंद्रित रूप में यानी केंद्र, राज्य, ज़िला परिषद और ग्राम पंचायत सरकारों के स्तर पर होना चाहिए। इस राशि में हरेक स्तर को 3% का स्वत: आवंटन मासिक किश्तों में हो और ज़िम्मेदारियों का भी साफ़ बँटवारा हो। महामारी पर किए गए खर्च इसके बाहर आपदा नियंत्रण कोष से हो।
    यह 12% अच्छे गरीब देशों के दशकों क़ा अनुभव जन्य आंकड़ा है। उन देशों ने स्वास्थ्य सुधार कर तुरत फ़ायदा लिया और GDP बढ़ाई।)

5.आपात अवस्था में निजी अस्पतालों में सभी का निःशुल्क इलाज होना चाहिए। आयुष शाखाओं को मजबूत किया जाए और उनहें पर्याप्त मदद दी जाए।

  1. वैश्विक महामारी का सामना करने के लिए “राष्ट्रीय / राज्य एकता सरकार” भी अनिवार्य ज़रूरत है. अन्यथा इस आपदा का सामना करने की राजनीतिक ताक़त, सही “राष्ट्रीय मानसिक वातावरण” और निकम्मी – असम्वेदनशील अफ़सर शाही की सक्षमता नहीं बन सकते हैं. सजप इसकी माँग पहले ही कर चुकी है. सभी सरकारें विपक्ष के नेताओं को औपचारिक रूप से मंत्रिमंडल में शामिल कर इसका पहला और छोटा क़दम लेकर केन्द्र और राज्य सरकारें इस ढाँचे को तुरत लागू करें.

(गौरतलब है कि अमेरिका और जापान दोनों देशों में निजी अस्पताल है पर जापान में फ़ीस आदि पर सरकार ने एक सीमा निर्धारित की है और सभी को आय का एक निश्चित हिस्सा स्वास्थ्य निधि में काटा जाता है और जो असमर्थ है उनका बीमा सरकार करवाती है। इस तरह सभी के इलाज की बराबर व्यवस्था की गई है। दूसरी तरफ अमेरिका में बीमा राशि के अनुसार निजी बीमा कंपनियां इलाज का ग़ैर बराबर इंतज़ाम करती है। बीमा राशि कर्मचारी या व्यक्ति देते है। बुज़ुर्गों के लिए पूरा ख़र्च सरकार करती है. विधवाओं, महिला मुखिया वाले परिवार का भी ख़र्च सरकार करती है। इसके बाद भी 12 फ़ीसदी आबादी का इलाज के लिए बीमा नहीं होता है। दुनियां में अमेरिका राष्ट्रीय आय का सबसे ज़्यादा का 18 फ़ीसदी स्वास्थ्य पर ख़र्च करता है फिर भी यह लचर है। अरबों डॉलर कदाचार के मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं। यहां ध्यातव्य है कि पिछले तीस सालों में हम इसी लचर व्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं। निजी अस्पतालों पर आधारित आयुष्मान भारत योजना इन ख़ामियों से भरा है।)

  • लॉकडाउन कड़ाई से उन्हीं जगहों पर लागू किया जाय जहाँ कोरोना के संक्रमित पाए गए हों। अनावश्यक जगहों पर लॉकडाउन करने से बीमार अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाएंगे और कोरोना संक्रमितों की पहचान टलती जाएगी। ध्यान रहे 80% कोरोना संक्रमितों में किसी भी प्रकार के लक्षण नहीं होते। सभी जगहों से ज्यादा से ज्यादा लोगों के सैम्पल जांच होने आवश्यक हैं।
  • बुलेट ट्रेन, सेंट्रल विस्टा, एनपीआर जैसे फिजूल्खर्ची वाले प्रोजेक्ट निरस्त कर उन पैसों को स्वास्थ्य सुविधाओं सुधारने के लिए आवंटित किया जाए।
  • वैश्विक महामारी कोरोना, इतिहास का पहला और अपने आप में अनूठा महासंकट है जिसे जनता के हर तबके के साथ मिल कर ही हराया जा सकता है। इसमें लगातार और सही जानकारियां साझा करना, समाज के सभी वर्गों/ समूहों को विश्वास में लेना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना, अन्धविश्वास और अफवाहों को फैलने से रोकना और सम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखना जरूरी है।
  • असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए रेाजगार सृजन के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं में पर्याप्त राशि आवंटित की जाए और इनका पिछला भुगतान भी दिया जाए। निचले स्तर पर येाजनाएं बनने से पलायन रुकेगा। इन मजदूरों के खातों में प्रति व्यक्ति 10,000 रुपये तत्काल दिए जाएं।
  • बेरोजगारी के दिनों तक गरीब तबकों और किसानों को राशन, बिजली, मुफ्त दी जाए और कृषि ऋ्रणों को माफ किया जाए। पीडीएस और पीएचएस सेवाओं का विकेंद्रीकरण हो। नवउदारवादी व्यवस्था को खत्म किया जाए।
  • वैश्विक महामारी का सामना करने के लिए “राष्ट्रीय / राज्य एकता सरकार” अनिवार्य ज़रूरत है। अन्यथा इस आपदा का सामना करने की राजनीतिक ताक़त, राष्ट्रीय मानसिक वातावरण नहीं बन सकते हैं न ही निकम्मी- असंवेदनशील अफ़सरशाही इसे संभाल सकती है। विपक्ष को औपचारिक रूप से मंत्रिमंडल में शामिल कर केंद्र और राज्य सरकारें इस ढांचे को तुरत लागू करे।
  • अतुल
  • राष्ट्रीय सचिव

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रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद पर बेहतर फैसले की उम्मीद थी, आगे असंख्य विवादों पर रोक लगे : समाजवादी जन परिषद

राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद मामले में लंबे समय की मुकदमेबाजी के बाद आखि‍र सर्वोच्च न्याजयालय का फैसला आया है। इससे पहले इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला 2010 में आया जिसमें विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटकर मुकदमा लड़ रहे तीन पक्षों- निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड को बांटा गया था। तीनों पक्ष इससे असहमत होकर सुप्रीम कोर्ट आए थे। इसका अलग से आपराधिक मुकदमा चल रहा है। इस पर अभी निचली अदालत का फैसला आना बाकी है। इस बीच 1992 में आरएसएस-भाजपा द्वारा बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट में कोई पक्ष अपना दावा साबित नहीं पाया। यह भी साबित नहीं हो पाया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर या राम मंदिर को तोड़कर हुआ था। ऐसे में 6 दिसंबर 1992 में मस्जिद का ध्वंस का अपराध और संगीन हो जाता है। लेकिन इसमें हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाबरी मस्जिद की नींव इससे पहले 1949 से ही कमजोर होना शुरू हो गई थी जब उसमें रामलला की प्रतिमा चोरी-चुपके रखी गईं और तत्कालीन सरकार ने उसे तत्काल हटाने की कोई कार्रवाई नहीं की। नींव 1986 में उस समय और कमजोर हो गई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने केस निर्णित होने से पहले ही ताला खुलवाया और वहां मंदिर का शिलान्या‍स कर दिया। इतनी कमजोर हो चुकी नींव वाली मस्जिद विवादित ढांचा भर रह गई और अंतत ध्वस्त कर दी गई।

सजप यह पाती है कि सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्ववादियों द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वं‍स को ग़ैरकानूनी ठहराया है लेकिन उसका फैसला इस कृत्य को वैधता प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए विवादित भूमि पर किसी पक्ष द्वारा दावा साबित न कर पाने की स्थिति में विवादित भूमि एक पक्ष को देकर केंद्र व राज्य सरकार को वहां मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का निर्देश दिया है। यह फैसला विवाद को समाप्त करने के लिए वस्तुस्थिति से अलग हटकर पंचायती करने जैसा है। लेकिन अदालत एकतरफा आदेश के चलते दोनों पक्षों के साथ ही देश के न्याय पसंद लोगों को संतुष्ट करने में असफल रहा है। इस तरह की पंचायती तब तक को ठीक कही जाती जब तक मस्जिद नहीं ढहाई गई थी। लेकिन मस्जिद ध्वंस के बाद विध्वंसकारियों के पक्ष में इस तरह की पंचायत में बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव दिख रहा है जो देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

इस फैसले के बाद से कुछ लोग बार बार यह कह रहे हैं कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबको चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। उसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। इस समय ऐसा कहने वालों में उनकी संख्या ज्यादा है जो कुछ समय पहले तक यह कहते थे कि मंदिर के पक्ष में फैसला नहीं आया तो कानून बना कर उसे बदला जाएगा। ऐसा कहते हुए वे शाहबानो प्रकरण का उदाहरण देते थे। बताते थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला जा सकता है।

दरअसल यहां मसला स्वीकार-अस्वीकार का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक बेतुके फैसले भी इस देश ने स्वीकार ही किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई बेतुके फैसले दिए हैं। अपने ही बनाए नियम उसने तोड़े हैं। नर्मदा बांध मामले में पर्यावरण को ताक पर रख कर सुप्रीम कोर्ट ने विकास की एक बेतुकी परियोजना के पक्ष में फैसला दिया। हजारों लोग बेघर हुए। लेकिन एक दूसरे मामले में उसी पर्यावरण की दुहाई देकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से सैकड़ों फैक्ट्रियों को बाहर कर दिया। फिर हजारों, लाखों लोग बेरोजगार हुए, वह फैसला भी स्वीकार किया गया।

देश ने सुप्रीम कोर्ट के सभी फैसले इसलिए स्वीकार किए क्योंकि उन्हें अस्वीकार करने से व्यवस्था टूट जाएगी, अराजकता फैलेगी और देश संकट में होगा। लेकिन स्वीकार करने का यह मतलब नहीं है कि उसकी विवेचना नहीं की जाए। फैसले की विवेचना होनी चाहिए. उसके असर का मूल्यांकन होना चाहिए। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर चर्चा होनी चाहिए। इससे भविष्य में न्यायिक प्रक्रिया मजबूत होती है। समाज में न्यायिक चेतना विकसित होती है। न्याय और अन्याय का भेद पता चलता है। न्याय और अन्याय के बीच समझौते का भी एक विकल्प होता है, जहां दोनों ही पक्ष थोड़ा हारते हैं, थोड़ा जीतते हैं।

फैसले पर गौर करने से साफ है कि अदालत ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है ताकि टकराव टाला जा सके। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सर्वधर्म समभाव वाला बेंच तैयार किया था, और उस बेंच ने सुलह का फॉर्मूला आम सहमति से निकालने की कोशिश की। लेकिन फैसले से एक पक्ष में पाने का और दूसरे पक्ष में खोने का अहसास पैदा हो गया है।

मौजूदा सरकार को भी देश के भविष्य से कोई मतलब नहीं है। तात्कालिक फायदे के लिए सरकार भविष्य से खिलवाड़ करने पर उतारू है। इस फैसले होना तो यह चाहिए था कि कोर्ट मस्जिद की ही तरह मंदिर के लिए भी कहीं और जगह जमीन उपलब्ध कराती और जमीन अपने कब्जे में रखती। दुनिया में इस तरह के उदाहरण मौजूद भी है। तुर्की की सोफि‍या मस्जिद इसका सटीक प्रमाण है। हजार साल की इस मस्जिद को अतातुर्क कमाल पाशा ने बैजेंटाइन काल का संग्रहालय बना दिया था।

इस समय सवाल देश की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सह अस्तित्व की परंपरा को बनाए रखने और बचाने का है। इस फैसले को इस उम्मीद, सतर्कता और जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि इस तरह के असंख्य विवादों पर आगे पूर्ण विराम लग जाए। देश की करीब तीन हजार साल की ज्ञात इतिहास में अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के पूजास्थलों, पूजनीय प्रतिमाओं का ध्वंस, उनका दूसरे मतावलंबियों द्वारा हरण किया गया है।

अब व्यवस्था होनी चाहिए कि आगे ये मुद्दे विवाद का कारण न बन पाएं। सरकार, संविधान, न्यायपालिका और वृहत्तर तौर पर समाज को यह मन से स्वीकार करना चाहिए कि संसद द्वारा 1991 में पारित ‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप कानून’ का पालन किया जाएगा, जिसमें धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति मानी गई है। सजप मानती है कि देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों को उजागर करने की जरूरत है। इसे नए सिरे से व्याख्यायित करने की जरूरत है और ‘अभी तो केवल झांकी है। काशी,मथुरा बाकी है।‘, ‘तीन नहीं, अब तीस हजार, बचे न एको कब्र, मजार’ जैसी मानसिकता और विचारधाराओं से निरंतर संघर्ष जारी रखने की जरूरत है।

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पी. लंकेश कन्नड़ के लेखक ,पत्रकार और आंदोलनकारी।एक ऐसी जमात के प्रमुख स्तंभ जो लोहिया के मुरीद होने के कारण अम्बेडकर की समाज नीति और गांधी की अर्थ नीति के हामी थे।देवनूर महादेव,यू आर अनंतमूर्ति और किशन पटनायक के मित्र और साथी।
उनकी लोकप्रिय पत्रिका थी ‘लंकेश पत्रिके’।लंकेश के गुजर जाने के बाद उनकी इंकलाबी बेटी गौरी इस पत्रिका को निकालती थी।आज से ठीक साल भर पहले गौरी लंकेश की ‘सनातन संस्था’ से जुड़े कायरों ने हत्या की।समाजवादी युवजन सभा से अपना सामाजिक जीवन शुरू करने वाले महाराष्ट्र के अंध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी सनातन संस्था से जुड़े दरिंदों ने की थी यह सी बी आई जांचकर्ता कह रहे हैं।सनातन संस्था के लोगों के पास से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए तथा आतंक फैलाने की व्यापक साजिश का पर्दाफ़ाश हुआ है।यह पर्दाफाश भी राज्य की एजेंसी ने किया है।
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अफ़लातून,
महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद।

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