Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for दिसम्बर, 2023

नारायण देसाई

संपूर्ण क्रांति विद्यालय, गांधी विद्यापीठ, वेडछी, जि. तापी – 394641

प्रिय मित्र,

सप्रेम जय जगत ।

लोकसभा के परिणामों को देख कर यह पत्र लिखने बैठा हूँ। मुझे यह सलाह मिल चुकी है कि अभी रुको, परिस्थिति देखो, फिर लिखो। मुझे लगता है कि यह पत्र भी थोडा सोचने का मौका देनेवाला प्रसंग है। और इसलिए बहुत देर ना करते हुए कुछ विचार तो प्रगट करना चाहिए।

सबसे बडी चिता जीतनेवाले दल के नायक की सोच के बारे में है। अभी तक की उनकी कार्यवाही फासिस्ट पद्धति से मिलती-जुलती रही है। १. एक विशिष्ट अमीर वर्ग का साथ लिया। २. वातावरण बनाने में अपनी वाक्पटुता का सहारा मिला है। ३. देश की शायद सबसे अधिक अनुशासित और फैली हुई संस्था का संबंध और पूरा समर्थन प्राप्त किया है। ४. अधिकांश माध्यमों को खरीद लिया है। ५. जिससे जूझना था वह शक्ति संपूर्ण खोखली हो चुकी थी।

देश की भावि दिशा पहले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या धर्म का आधार था। बाद में जिसने ‘विकास’ शब्द चुना है उस विकास में और कोंग्रेस के विकास में बहुत कम अंतर है। दोनों उन शक्तियों का अंधानुकरण करते हैं जो शीघ्र ही जगत को डुबा सकती हैं। हमारे देश के तेजी से बढते हुए मध्यम वर्ग को इस प्रगति में या विकास में स्वर्ग दिखता है। उसके समर्थन से फासीवाद जीता है, और जो देखते देखते ही हुकम माननेवाला, कायर बौद्धिक वर्ग बन जायेगा। अंतर्राष्ट्रीय सोच अल्पावधियों में युद्ध के कगार तक ले जा सकती है।

प्रश्न यह है कि ऐसी परिस्थितियों में जीवन की ताकतों का क्या कर्तव्य है ? यानी हम जैसे लोगों का कर्तव्य जो सोच से अपने आपको गांधी के साथ समझते है, लेकिन जो स्वयम् कर्तव्यविमूढ, धारा के साथ रहनेवाले, मन ही मन में अपने सिवा और सबको कोसनेवाले और प्रायः निष्क्रिय या जड हैं।

सोचना यह चाहिए कि देश में कोई नई ताकतें अंकुरित हो रही हैं क्या, जो दिशा बदलने में सहायक हो सके, जो आपस में लड कर शक्ति बरबाद न करें और जो

(१)

देश को नई दिशा में ले जाने में समर्थ न हो, तो कम से कम देश को गिरते हुए बचाने की कोशिश तो करेंगे। ऐसे लोगों में नीचे लिखे वर्गों को क्या शामिल किया जा सकता है – क्या उन्हें सही दिशा सुझाई जा सकती है, क्या आज से कुछ साल बाद ही सही, देश कुछ नया दर्शन जगत के सामने पेश कर सकता है खास कर उस परिस्थिति में जब हमारे पास न गांधी है, न विवेकानंद ?.

१. नवोदित युवा वर्ग

शायद दुनियाभर में कहीं न हो इतना बडा युवा वर्ग यह वर्ग जिसके पास आज तो सिने-स्टार और स्पोर्टहीरोझ के सिवाय कोई रोल मोडल नहीं है। न जो किसी रोल-मोडल की खोज में दिखते हैं। यह वर्ग दिशाहीन भटकता है या तो स्पर्धा में पडता है और कुछ सफल होता है और अधिकांश निराश होता है। फिर वे गडरिया धँसान में फंस जाते हैं। या फिर उनमें से अपराध के चुंगाल में फंसते हैं। बिगडी दुनिया को बदतर बनाने में यह सहायक बन सकते हैं और इनको सम्हालना ही मानों शासन के पराक्रम का मुख्य विषय बन जाता है।

२. दूसरे हैं दलित, आदिवासी या अन्य पिछडी जातियों के लोगों में से कुछ । इनमें से भी एक बहुत छोटा हिस्सा ही मुखर है, अधिकांश तो चुप है, दबे हुए हैं या यह भी नहीं जानते कि वे कहाँ है। इस वर्ग के पास सिवाय समाज को धिक्कारने के और कोई भी दर्शन नहीं है। कम से कम हमें तो आपस में लडकर शक्ति बरबाद नहीं करनी चाहिए। इतनी समझ भी नहीं है। इनमें से जो जागृत है, वे आपस के अभिमान की टक्कर में शक्ति बरबाद करते हैं। जो जागते नहीं वे सोते हैं – स्वप्न भी नहीं देखते ।

३. नारी-शक्ति

इनमें जो जागती हैं वे या तो पुरुष के तिरस्कार में जिसके लिए उनके पास शताब्दियों का अनुभव और पीडन है- या तो जो तिरस्कार नहीं करतीं वे पुरुषों की आज की दुष्ट व्यवस्था का अनुकरण करने में ही गौरव लेती है। मौलिक सूझ बहुत कम दिखती है, किन्तु इस शक्ति में बहुत बडी शक्तियाँ हैं- अधिक संभावना से भरी पड़ी है, कौन इन्हें जगायें ?

४. एक शक्ति है बाबा भक्तों की। इनमें अधिकांश भेडिया धँसान है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें आज की परिस्थिति से आध्यात्मिक उपाय चाहिए ।

(२)

काफी पढे-लिखे और सोचे-समझे लोग भी इनमें हैं। लेकिन उनमें कोई ऐसा मार्गदर्शक चाहिए जो भीतर से संतोष दे। बाहर से जो सुख प्राप्त है उसे जारी रखे । इनमें से भी कोई बगावत करनेवाला निकलेगा क्या ? जो स्वयम् त्याग-तपस्या के रोल-मोडल बन सकें? जो महात्माओं के केवल विज्ञापनबाज बन कर न रह जाय ?

प्रश्न उठता है इस परिस्थिति में करना क्या ? आज लिखने में संकोच इसलिए है कि कुछ महिनों के बाद मेरी आयु के ९० वर्ष पूरे होंगे। मन का उत्साह भले जैसा भी जोशपूर्ण हो शारीरिक मर्यादायें तो हैं ही। फिर भी विचार की दृष्टि से कुछ सुझाव :

१. यथासंभव तृणमूल (ग्रासरूट) को मजबूत करने में ताकत लगानी चाहिए। आजकल भले ही विपरीत दिखता हो, कल अनुकूल हो भी सकता है। उस परिस्थिति को बनाने में या उसका स्वागत करने के लिए जमीन चाहिए। वह तब होगा जब समाज को निम्नतम स्तर (ग्रासरुट्स) में कोई ताकत बची होगी।

२. कार्यक्रम मुझे तो वह ही सूझता है जो जयप्रकाशजी ने वर्षों पहले दिया था। वह था चतुर्विध कार्यक्रम : १. प्रबोधन २. संगठन ३. नमूने ४. संघर्ष ।

सकारात्मक विचारों को बहुत बहुत फैलाने की जरूरत है। स्कूली बच्चों से लेकर बूढों तक । माध्यम इसके लिए अपने अपने हो सकते हैं। मुझे गांधीकथा का माध्यम सूझ गया है। उसमें मैं यथाशक्ति मति सुधार संशोधन करता रहूंगा। सुना है कि कुछ लोग इस माध्यम को अपनाना चाहते हैं। स्वागत है। ध्यान इसमें इस बात का रखना होगा कि सोच या जानकारी पक्की रखनी होगी। उनमें शैथिल्य आने से लाभ से अधिक नुकसान हो सकता है।

अलग अलग श्रेणियों के श्रोताओं के लिए प्रबोधन का अलग अलग

माध्यम हो सकता है। गुजरात में जितना ध्यान प्राथमिक शिक्षा में दिया गया है, उच्च शिक्षा में नहीं। उस क्षेत्र में पश्चिम के अनुकरण के बदले में हमें अपने मौलिक उपाय ढूंढने होंगे ।

संगठन में अब तक अनुकरण ही दिखता है। कुछ अधिक स्वाभाविक मौलिक तरीके ढूंढने होंगे। अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहाँ जो संगठन के तरीके थे उन पर ध्यान लेकर कुछ नव-संस्करण करना होगा ।

संगठनों को भ्रष्ट करने का आजकल सबसे सुलभ मार्ग है चुनाव। हमें चुनावों

(३)

के विकल्प ढूंढने होंगे। कुछ मौलिक, जनतांत्रिक मार्ग ढूंढने पड़ेंगे। आपके कुछ सुझाव ? डो. आंबेडकर पारंपरिक ग्रामीण तरीकों पर चिढे हुए थे, क्योंकि उनके सबसे अधिक बुरे परिणाम वे भुगत चुके थे। गांधी ने अपनी कल्पना के गांवों के साथ अपने आदर्शों को भी जोडा था। वास्तव में वैसी व्यवस्था पहले कभी ना भी रही हो । संगठन के संबंध में कुछ प्रयास विदेशों में हुए हैं यथा क्वेकर संप्रदाय के, दुनिया भर के क्रियाशीलों के। आपके सुझाव ?

संघर्ष के गांधी के तरीके – सत्याग्रह – ने जगत को बहुत आकर्षित किया। किन्तु सत्याग्रह का एक समानार्थी शब्द, गांधी ने ‘Love Force’ कहा था। हम सुविधापूर्वक उसे भूल गये हैं।

विकल्प खड़े करने में हमारी बहुत शक्ति लगनी चाहिए। कम से कम जीवन की प्राथमिक जरूरत की चीजें तो हमारे गाँवों मे पैदा कर लें। चारों तरफ से परमाणु ताकत से घिरे हमारे ४ लाख गाँवों का यह शायद सर्वोत्तम सुरक्षा कदम बने, यह विचार इजराइल के किबुसिम के अनुभवी लोगों को भी व्यावहारिक विचार मालूम हुआ था ।

विकल्प में कुमारप्पा, शुमाखर आदि के आधुनिक वारस निकलने चाहिए। विनोबा का विचार तो विज्ञान और आध्यात्म के मेल का था। क्या हममें से किसी तरुण को इसके लिए अपना तारुण्य लगा देने की प्रेरणा नहीं होगी ?

ये तो मेरे विचार यथासंभव संक्षेप में लिखे हैं। लेकिन आज की वर्तमान परिस्थिति तथा उनके उपायों के बारे में सोचते होंगे। मेरे पत्र की लंबाई को क्षमा कर आप अपने विचार तथा सुझाव भेजिये ।

सप्रेम ।

नारायण देसाई

10 दिसम्बर 2014 को नारायण देसाई को पक्षाघात हुआ और वे अर्ध मूर्छा में चले गए। 2014 के चुनाव के बाद साथियों के नाम यह पत्र लिखा है।

2024 के चुनाव से पहले पत्र प्रासंगिक बना हुआ है।

सुझाव,टिप्पणियों का स्वागत।

Read Full Post »