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Posts Tagged ‘चुनाव’

वाराणसी कैंट विधान-सभा क्षेत्र से समाजवादी जनपरिषद (प्रत्याशी – अफलातून ) का चुनाव-खर्च व आय

चुनाव खर्च हेतु चन्दा

डॉ बी. के. यादव                     1000

जगनारायण सिंह                  1000

राजेन्द्र                                    2000

डॉ के के मिश्रा                          1000

प्रो . विपिन  त्रिपाठी                                 500

डॉ श्रीकृष्ण सिंह                                        500

अजीत सिंह                             5000

रमेश गिनोडिया                      11000

चचा                                         25 ,000

नचिकेता                                  10 ,000

अनूप सर्राफ                             28 ,800

दल                                           10 ,000

डॉ अशोक अग्रवाल                     5 ,000

जीतेंद्र गुप्ता                              11 ,000

अशोक सेकसरिया                     4000

डॉ राजीव                                   11 ,000

अनिल त्रिपाठी                            5000

महेश पांडे                                    5000

डॉ संघमित्रा                             11 ,000

विनोद सिंह (WNT)                    500

पवन कुमार                                1000

डॉ स्वाति                                      1400

दीपक पटेल                                     500

डॉ आई एस गंभीर                       2000

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कुल आय                           1,72200

खर्च

नुक्कड़ सभाएं (आठ )          21 ,940

परचा -स्टीकर                         6019

वाहन – इंधन                         28 ,869 .20

बैनर-झंडा                             1436

पार्टी   कार्यकर्ताओं का दौरा      2468

कार्यकर्ताओं पर व्यय                13000

जमानत राशि                           10000

अन्य फुटकर खर्च                      1952

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कुल खर्च                                       85 ,684

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हमारी मांग थी की चुनावी तंत्र हर उम्मीदवार को एक हिसाबनावीस मुहैया कराए । आयोग तो जब मानेगा तब मानेगा लेकिन दल के राष्ट्रीय महामंत्री डॉ सोमनाथ त्रिपाठी ने स्वयं यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई ।

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हम यह मान कर चले थे की आम जनता खुद से राजनीति को काफी दूर महसूस करने लगी है । राजनीति का मकसद जब स्पष्ट होता है तब समाज का हर तबका उससे जुड़ जाता है । राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में समाज का हर तबका राजनीति से जुड़ गया था क्योंकि उसका मकसद स्पष्ट था – देश को गुलामी के जुए से मुक्त कराना । हमने सोचा था कि चुनाव लड़कर आम आदमी को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करेंगे । समाजवादी जनपरिषद की  राजनीति का मकसद है नई राजनैतिक संस्कृति की स्थापना । लगभग सवा तीन लाख मतदाताओं के विधान सभा क्षेत्र में समाजवादी जनपरिषद के प्रत्याशी के रूप में मुझे मात्र ६३२ वोट मिले । जाति , सम्प्रदाय , पैसे के आधार पर राजनीति की मुख्यधारा के दलों से जुड़ना अधिकतर लोगों ने पसंद किया । लोगबाग प्रचलित राजनीति से मजबूती से जुड़े हैं । मुख्यधारा के दल राजनीति का जो भी उद्देश्य लेकर चल रहे हैं जनता को उससे परहेज नहीं है ।  लोगों में हमारी राजनीति के प्रति यकीन पैदा करने के लिए जो न्यूनतम ताकत आवश्यक है वह हम नहीं जुटा पाए हैं ।

हमें  मिले वोट अललटप्पू ढंग से नहीं पड़े थे । जिन इलाकों में दल का काम था अथवा साथियों का निजी संपर्क था वहीं से यह वोट आए । गिने – गिनाए । हमारे संभावित मतदाताओं पर नोंच-खसोट भी हुई , जिसे रोकने के लिए हमने प्रयास नहीं किए थे । जिस छोटे से क्षेत्र में हमारे दल ने काम किया था और पहचान भी थी उसके बाहर कम समय देने पर कुछ वोट बढ़ जाते।

एक मित्र ने सही कहा कि लड़ नहीं पाए लेकिन ललकारा तो खूब ! इस बार सर्वाधिक नुक्कड़ सभाएं हमने ही कीं । बड़े दलों के बड़े नेताओं की रैलियाँ हुईं  लेकिन नुक्कड़ सभाएं बिलकुल नहीं हुईं । १३ दिनों के लिए रखे गए एक वाहन के खर्च के बाद सबसे बड़ा खर्च नुक्कड़ सभाओं पर ही हुआ । हमारे परचे भी पसंद किए गए ।

पुरे चुनाव में यह हमेशा लगा कि तीसरी शक्ति के फलने-फूलने की  गुंजाइश है । वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों व् साम्प्रदायिकता के विरुद्ध और सामाजिक न्याय के हक़ में खड़ी होने वाली तीसरी शक्ति । इस ताकत को खडा करने में  राजनैतिक रूप से सचेत युवा और महिला संगठन बहुत कारगर साबित होंगे । वर्ग संगठनों की मजबूती होने पर लोग उस शक्ति को आपका आधार मान लेते हैं । ऐसा आधार जाति-सम्प्रदाय के आधार से बेहतर है ।

करीब एक लाख रुपये चुनाव में खर्च हुए । चन्दा इससे कुछ अधिक हुआ । चंदे का बड़ा हिस्सा बनारस के बाहर रहने वाले मित्रों से आया । १९७७ में मेरे साथ स्कूल पास करके जो मित्र निकले थे उनका सहयोग अधिक था ।

चुनाव-तंत्र की कमियाँ उजागर हुईं ।यह कमी थी – जायज चुनावी खर्च का फालतू  छिद्रान्वेषण और नाजायज खर्च रोक पानी में पूरी विफलता । दलों द्वारा चुनाव खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं है।  कांग्रेस  ने उम्मीदवारों को खर्च की अधिकतम सीमा (१६ लाख रूपए) से दुगने ज्यादा रकम प्रत्येक प्रत्याशी को दी थी ।  राजनैतिक समझ के अभाव में चुनाव तंत्र सुधार के नाम पर ऐसे कई कदम उठाता है जो छोटे दलों के विरुद्ध तथा भ्रष्ट राजनीति के पक्ष में होते हैं । लोकतंत्र का यह आवश्यक पर्व धारा १४४ के तहत नियंत्रित था।चार से अधिक लोगों के इकट्ठे होकर कुछ भी सार्वजनिक तौर पर करने के लिए पुलिस और प्रशासन से अनुमति लीजिए । गैर – मान्यताप्राप्त दलों के लिए मात्र १५ दिन प्रचार के लिए मिलते हैं । इन छोटे दलों को चुनाव चिह्न भी  इस पखवाड़े के शुरुआत में ही मिलता है । इस अवधि में तीन बार चुनाव-   खर्च बताने रिटर्निंग अफसर के दफ्तर जाना पड़ता है । खर्च – प्रेक्षक का आग्रह था की जिला प्रशासन द्वारा निर्धारित दरों पर ही खर्च दिखाया जाए , भले ही वास्तव में वह उससे कम या ज्यादा हो । इस प्रकार चुनाव – तंत्र झूट बोलने का आग्रह करता है। 

मीडिया की भूमिका पक्षपातपूर्ण , मुनाफाखोर और अलोकतांत्रिक थी । पिछले चुनाव में ‘पेड़ न्यूज’ की काफी चर्चा हो गई थी। हमने भी चुनाव आयोग और प्रेस परिषद् में शिकायत दर्ज कराई थी। इस बार इसकी निगरानी के लिए जिला-स्तर पर एक समिति बना दी गई थी । मनमानी  खबरें  पैसे लेकर छापने में कुछ कमी जरूर आई । इसकी भरपाई  बड़े अखबारों ने हर प्रत्याशी से पचीस हजार रुपये लेकर और छोटे अखबारों ने पंद्रह हजार रूपए लेकर की । जिन प्रत्याशियों ने  इतना पैसा नहीं दिया उनकी खबरों का ‘ब्लैक आउट ‘ हुआ  । स्थानीय अखबारों के इस रवैये का असर राष्ट्रीय अखबारों पर नहीं था । हिन्दू ,स्टार न्यूज, एनडीटीवी ,आज तक पर हमारी उम्मीदवारी ‘खबर’ मानी गई  – http://www.thehindu.com/news/states/other-states/article2889442.ece  , http://www.youtube.com/watch?v=YfVMi_sWvyI ,

चुनाव के लिए जन संपर्क के दौरान महसूस हुआ कि लोग  प्रत्याशियों की बात बहुत ही ध्यान से सुनते हैं । नई राजनैतिक संस्कृति की बात से प्रभावित होकर जिन मुष्टिमेय लोगों ने वोट दिया उनमें से एक ने बताया कि १९७७ के बाद वे पहली बार वोट देने गए । मुझे याद आया कि मेरे सर्वोदयी पिता पहले चुनाव से ही मतदान की उम्र पार कर चुके थे लेकिन पहली बार वोट देने १९७७ में ही गए थे – कुछ दूर तक कंधे पर हल लिए किसान का जनता पार्टी झंडा उठा कर भी ।

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घोषणा पत्र क्यों ?

    आमतौर पर पार्टियों के लिए चुनाव घोषणापत्र एक रस्म अदायगी होता है । चुनाव के बाद वे इसे भूल जाती हैं । जो पार्टी सरकार बनाती है , वे अपनी घोषणाओं को लागू करने की कोई जरूरत नहीं समझती है । कई दफ़े वे अपने घोषणा पत्र के खिलाफ़ काम करती हैं । जो पार्टी हार जाती है , वह भी अपने घोषणापत्र के मुद्दों को लेकर आवाज उठाने और संघर्ष करने के बजाय चुपचाप बैठकर पांच साल तक तमाशा देखती है ।

    समाजवादी जनपरिषद यह घोषणापत्र पूरी गंभीरता से मध्य प्रदेश की जनता के सामने पेश कर रही है । इसमें न केवल प्रदेश की मौजूदा खराब हालत के बारे में विश्लेषण है , और मौजूदा सरकारों और पार्टियों की नीतियों पर टिप्पणी है , बल्कि मध्यप्रदेश की जनता की मुक्ति कैसे होगी , मध्यप्रदेश का विकास कैसे होगा , नया मध्यप्रदेश कैसे बनेगा , इस बारे में समाजवादी जनपरिषद की समझ तथा कार्य योजना का यह एक दस्तावेज है । बड़ी पार्टियों द्वारा उछाले गए नकली मुद्दों और नारों को एक तरफ करके जनता के असली मुद्दों को सामने लाने की एक ईमानदार कोशिश है ।

    समाजवादी जनपरिषद जीते या हारे , इस घोषणापत्र में घोषित मुद्दों , नीतियों व घोषणाओं को लेकर वह लगातार विधानसभा के अंदर व बाहर संघर्ष करेगी । यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा , जब तक जनता की छाती पर चढ़कर उसका खून चूसने वाले भ्रष्टाचारियों , बेईमानों , लुटेरों का राज खतम नहीं हो जाता और मेहनतकश लोगों की बराबरी एवं हक वाली एक नयी क्रांतिकारी व्यवस्था कायम नहीं हो जाती ।

मध्यप्रदेश के राजनैतिक हालात

    जो हालत भारत की राजनीति की है , वही कमोबेश मध्यप्रदेश की है , बल्कि यहाँ पर पिछले काफी समय दो पार्टियों का एकाधिकार होने से हालत और खराब है । कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों अदल-बदल कर इस प्रदेश पर राज कर रही हैं । दोनों की नीतियों , चरित्र व आचरण में कोई खास फर्क नहीं है । दोनों ने मिलकर प्रदेश की जनता को फुटबॉल बना दिया है । जनता एक से त्रस्त होकर दूसरी पार्टी को सत्ता में लाती है , फिर उनसे परेशान होकर वापस पहली को गद्दी पर बैठाती है । जो पार्टी सरकार में नहीं होती है , वह जनता के मुद्दों और कष्टों को लेकर कोई जोरदार आन्दोलन करने की जरूरत नहीं समझती , बल्कि वह चाहती है कि जनता की परेशानी बढ़े , जिससे उन्हें वापस सत्ता में आने का मौका मिले ।

    कांग्रेस ने सड़क , बिजली , पानी , शिक्षा और स्वास्थ्य का निजीकरण शुरु किया जिसे भाजपा ने आगे बढ़ाया । मतलब जनता की इन जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने की जवाबदारी सरकार की बजाए निजी कम्पनियों ( सेठों ) की हो गयी ।  यह कम्पनियां यह सुविधायें उन्हीं लोगों को देंगी जो उसका , उनकी तय की गई दरों पर भुगतान कर सकेगा।

    सरकारी स्कूलों में मास्टर और किताबें नहीं हैं । चारों तरफ़ निजी स्कूलों का बोलबाला है । अस्पतालों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, लोग प्रायवेट डॉक्टरों से भरोसे इलाज करा रहे हैं । बात यहीं रुक जाती है ऐसा नहीं है । प्रदेश की लाखों एकड़ जमीन भूमिहीनों को देने के बजाए बड़ी बड़ी कम्पनियों को लम्बी लीज पर दी जा रही है ।

    प्रदेश सरकार की सारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं । चाहे वो रोजगार गारंटी योजना हो , या शक्तिमान या जननी सुरक्षा । न तो रोजगार गारंटी में पूरा काम मिल रहा है न मजदूरी । सरकार ने रही सही कसर गरीबी रेखा से लोगों के नाम काटकर पूरी कर दी है ।  प्रदेश में भूख और कुपोषण से बच्चों की मौत का ताण्डव चल रहा है । ” गरीब की थाली नहीं रहेगी खाली” का जो नारा भाजपा ने दिया था वो उलटा हो गया । प्रदेश का किसान खाद , बिजली पानी के साथ-साथ समर्थन मूल्य और समय पर अपनी फसल का भुगतान पाने के लिए भटकता रहा । राजनैतिक विकल्पहीनता और जड़ता की इस हालत को बदलना जरूरी है । समाजवादी जनपरिषद इसके लिए पूरी कोशिश करेगी ।

[ जारी ]

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