पूंजीवाद एक बार फिर संकट में है। पिछले दिनों आई जबरदस्त मंदी ने इसकी चूलें हिला दी है और दुनिया अभी इससे पूरी तरह उबरी नहीं है। पूंजीवाद का संकट सिर्फ बैंकों, कंपनियों व शेयर बाजार तक सीमित नहीं है। दुनिया में भूखे, कुपोषित, बेघर और बेरोजगार लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। आज दुनिया में एक अरब से ज्यादा लोग भूखे रहते हैं, यानी हर छठा आदमी भरपेट नहीं खा पाता है। इंसान की सबसे बुनियादी जरुरत भोजन को भी पूरा नहीं कर पाना पूंजीवादी सभ्यता की सबसे बड़ी विफलता है। पर्यावरण का संकट भी गहराता जा रहा है, जिसे कोपनहेगन सम्मेलन की विफलता ने और उजागर कर दिया है।
इन संकटो ने पूंजीवादी सभ्यता के चमत्कारिक दावों पर एक बार फिर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। इसके विकल्पों की तलाश तेज हो गई है। लेकिन इसके लिए जरुरी है कि पहले इसकी बुनियादी गड़बड़ियों को समझा जाए और उनका सम्यक रुप से विश्लेषण किया जा सके।
कार्ल मार्क्स पूंजीजीवाद के सबसे बड़े और सशक्त व्याख्याकार व टीकाकार रहे हैं। किन्तु डेढ़ सौ सालों बाद उनके विश्लेषण और सिद्धांतों में कई कमियां दिखाई देती है। पूंजीवाद के विकास ,विनाश और क्रांति के बारे में उनकी भविष्यवाणियां सही साबित नहीं हुई हैं। पूरी दुनिया पूंजीपतियों और मजदूरों में नहीं बंटी। कारखानों का संगठित मजदूर वर्ग क्रांति का अगुआ अब नहीं रहा। रुस, पूर्वी यूरोप, चीन, वियतनाम आदि में जो कम्युनिस्ट क्रांतियां हुई, वे धराशायी हो गई हैं, और ये देश वापस पूंजीवाद के आगोश में चले गए हैं। इधर लातीनी अमरीका में जो समाजवाद की बयार चली है, वह शास्त्रीय मार्क्सवादी धारा से काफी अलग है।
दुनिया में आंदोलन और संघर्ष तो बहुत हो रहे हैं। किन्तु मजदूर-मालिक संघर्ष अब खबरों में नहीं है। किसानों, आदिवासियों और असंगठित मजदूरों के आंदोलन, जल-जंगल-जमीन के आंदोलन, धार्मिक-सामुदायिक-राष्ट्रीय पहचान आधारित आंदोलन तो हैं , किन्तु वे मार्क्स के विचारों से काफी अलग हैं। तब हम इन्हें कैसे समझे ?
इस मामले में डॉ० राममनोहर लोहिया से हमें मदद मिल सकती है। उन्होंनें 1943 में ‘अर्थशास्त्र मार्क्स के आगे’ नामक निबंध लिखा। उन्होंने बताया कि पूंजीवादी शोषण का मुख्य आधार एक कारखाने या एक देश के अंदर मालिक द्वारा मजदूर का शोषण नहीं, बल्कि उपनिवेशों का शोषण है। उपनिवेशों के किसान, कारीगर व मजदूर ही असली सर्वहारा है। लेनिन का यह कथन गलत है कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अंतिम अवस्था है। बल्कि, यह पूंजीवाद की पहली और अनिवार्य अवस्था है। यदि पश्चिम यूरोप के देशों ने अमरीका, अफ्रीका, एशिया और आस्ट्रेलिया के विशाल भूभागों पर कब्जा करने और लूटने का काम न किया होता, तो वहां औद्योगिक क्रांति नहीं हो सकती थी।
उपनिवेशों के आजाद होने के बाद भी नव-औपनिवेशिक और नव-साम्राज्यवादी तरीकों से यह लूट व शोषण चालू है और इसीलिए पूंजीवाद फल-फूल रहा है। यह शोषण सिर्फ औपनिवेशिक श्रम का ही नहीं है। इसमें पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों का बढ़ता हुआ दोहन, लूट और विनाश भी अनिवार्य रुप से छिपा है। इसीलिए आज दुनिया में सबसे ज्यादा झगड़े प्राकृतिक संसाधनों को लेकर हो रहे हैं। इसीलिए पर्यावरण के संकट भी पैदा हो रहे हैं।
औपनिवेशिक शोषण की जरुरत पूंजीवादी विकास के लिए इतनी जरुरी है, कि तीसरी दुनिया के जिन देशों ने इस तरह का विकास करने की कोशिश की, बाहरी उपनिवेश न होने पर उन्होंनें आंतरिक उपनिवेश विकसित किए। आंतरिक उपनिवेश सिर्फ क्षेत्रीय व भौगोलिक ही नहीं होते हैं। अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से भी (जैसे गांव या खेती) आंतरिक उपनिवेश बन जाते हैं। भारतीय खेती के अभूतपूर्व संकट और किसानों की आत्महत्याओं के पीछे आंतरिक उपनिवेश की व्यवस्था ही है।
सोवियत संघ का सबसे बड़ा अंतर्विरोध यही था कि उसने उसी तरह का औद्योगीकरण और विकास करने की कोशिश की, जैसा पूंजीवादी यूरोप-अमरीका में हुआ था। किन्तु बाहरी और आंतरिक उपनिवेशों की वैसी सुविधा उसके पास नहीं थी।
इसलिए, पूंजीवाद का एक बुनियादी नियम हम इस तरह बयान कर सकते हैं :
पूंजीवादी विकास के लिए औपनिवेशिक, नव-औपनिवेशिक या आंतरिक – औपनिवेशिक
शोषण जरुरी है। यह शोषण दोनों का होता है – श्रम का भी और प्राकृतिक संसाधनों का भी।
दुनिया के स्तर पर इस नियम का अभी तक कोई महत्वपूर्ण अपवाद नहीं है।
लोहिया के पहले गांधी ने आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के इस शोषणकारी-विनाशकारी चरित्र के बारे में चेतावनी दी थी। मार्क्स के अनुयायियों में रोजा लक्ज़मबर्ग ने इस विषय में मार्क्स की खामियों को उजागर किया था और उसे सुधारने की कोशिश की। लोहिया के बाद लातीनी अमरीका के आन्द्रे गुन्दर फ्रेंक और मिस्त्र के समीर अमीन नामक मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों ने लोहिया से मिलती-जुलती बातें कही है।
यदि ऊपर कही गई बातें सही हैं, तो इनसे कई निष्कर्ष निकलते हैं :
’ तीसरी दुनिया के गरीब देशों में यूरोप-अमरीका जैसा औद्योगीकरण एवं विकास संभव नहीं है, चाहे वह पूंजीवादी तरीके से किया जाए या साम्यवादी (राज्य पूंजीवादी) तरीके से किया जाए।
’ चूंकि अमरीका-यूरोप की समृद्धि व जीवन-शैली पूरी दुनिया के श्रम व प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर टिकी है, वह दुनिया के सारे लोगों के लिए हासिल करना संभव नहीं है। इसलिए समाजवादियों को उसका सपना छोड़ देना होगा। सबकी न्यूनतम बुनियादी जरुरतें तो पूरी हो सकती हैं, किन्तु विलासितापूर्ण जीवन सबका नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के साथ ‘सादगी’ और ‘स्वावलंबन’ भी समाजवादी समाज के निर्माण के महत्वपूर्ण एवं जरुरी सूत्र होंगे।
’ इस अर्थ में दुनिया का आर्थिक-राजनैतिक संकट और पर्यावरणीय संकट आपस में जुड़े हैं। एक वैकल्पिक समाजवादी व्यवस्था में ही दोनों संकटों से मुक्ति मिल सकेगी। दूसरे शब्दों में, समाजवाद निर्माण के किसी भी प्रयास में दोनों तरह के आंदोलनों – आर्थिक-सामाजिक बराबरी के आंदोलन एवं पर्यावरण के आंदोलन – को मिलकर ताकत लगाना होगा।
’ विकल्प सिर्फ पूंजीवाद (उत्पादन संबंधों के संकुचित अर्थ में) का नहीं हो सकता। निजी संपत्ति को खतम करना काफी नहीं है। पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के साथ पूंजीवादी तकनालॉजी, जीवन-शैली और जीवन-मूल्यों का भी विकल्प खोजना होगा। दूसरे शब्दों में हमें ‘पूंजीवादी सभ्यता’ का विकल्प खोजना होगा। एक नयी सभ्यता का निर्माण करना होगा।
इक्कीसवीं सदी में समाजवाद की किसी भी संकल्पना, तलाश और कोशिश में ये महत्वपूर्ण सूत्र होंगे। इनके लिए हम लोहिया के आभारी हैं।
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(साहित्य अकादमी द्वारा डॉ० राममनोहर लोहिया पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी (18-20फरवरी 2010) में पेश आलेख – हिन्दी सारांश)
– सुनील
ग्रा/पो केसला,
जि. होशंगाबाद, मध्य प्रदेश
461111
ईमेल – sjpsunil@gmail.com
कार्य :- समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार। आदिवासियों, किसानों,
मछुआरों एवं विस्थापितों के संघर्ष एवं संगठन में पिछले 25 वर्ष से सक्रिय। अखबारों, पत्रिकाओं में लेखन। कई पुस्तिकाएं भी प्रकाशित।
पद :- राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद।
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