पी. लंकेश कन्नड़ के लेखक ,पत्रकार और आंदोलनकारी।एक ऐसी जमात के प्रमुख स्तंभ जो लोहिया के मुरीद होने के कारण अम्बेडकर की समाज नीति और गांधी की अर्थ नीति के हामी थे।देवनूर महादेव,यू आर अनंतमूर्ति और किशन पटनायक के मित्र और साथी।
उनकी लोकप्रिय पत्रिका थी ‘लंकेश पत्रिके’।लंकेश के गुजर जाने के बाद उनकी इंकलाबी बेटी गौरी इस पत्रिका को निकालती थी।आज से ठीक साल भर पहले गौरी लंकेश की ‘सनातन संस्था’ से जुड़े कायरों ने हत्या की।समाजवादी युवजन सभा से अपना सामाजिक जीवन शुरू करने वाले महाराष्ट्र के अंध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी सनातन संस्था से जुड़े दरिंदों ने की थी यह सी बी आई जांचकर्ता कह रहे हैं।सनातन संस्था के लोगों के पास से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए तथा आतंक फैलाने की व्यापक साजिश का पर्दाफ़ाश हुआ है।यह पर्दाफाश भी राज्य की एजेंसी ने किया है।
महाराष्ट्र में व्यापक दलित आंदोलन को हिंसक मोड़ देने में RSS के पूर्व प्रचारक की भूमिका प्रमाणित है।ऐसे व्यक्ति के गैर नामजद FIR के आधार पर देश भर में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की निराधार गिरफ्तारियों से स्पष्ट है कि आरएसएस और सनातन संस्था की राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों के उजागर हो जाने के कारण राजनाथ सिंह-मोदी का यह मूर्खतापूर्ण ‘बचाव’ है।
रिजर्व बैंक की अधिकृत रपट में नोटबंदी की विफलता मान ली गई है।प्रधान मंत्री ने 50 दिनों की जो मोहलत मांगी थी उसकी मियाद पूरी हुए साल भर हो गई है। ’50 दिन बाद चौराहे पर न्याय देना’ यह स्वयं प्रधान मंत्री ने कहा था इसलिए उनके असुरक्षित होने की वजह वे खुद घोषित कर चुके हैं।
एक मात्र सत्ताधारी पार्टी चुनाव में पार्टियों द्वारा चुनाव खर्च पर सीमा की विरोधी है।इस पार्टी ने अज्ञात दानदाताओं द्वारा असीमित चंदा लेने को वैधानिकता प्रदान कर राजनीति में काले धन को औपचारिकता प्रदान की है।
समाजवादी जन परिषद इस अलोकतांत्रिक सरकार को चुनाव के माध्यम से उखाड़ फेंकने का आवाहन करती हैं।
अफ़लातून,
महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद।
Archive for the ‘capitalism’ Category
चुनाव के माध्यम से उखाड़ फेंको
Posted in ambedkar, तानाशाही dictatorship, नई राजनीति, राजनीति, brahminism, capitalism, communalism, corporatisation, corruption, criminalisation, election, half pant, kishan patanayak, lohia, nationalism, obituary, politics, samajwadi janparishad, tagged aatankvad, अनंतमूर्ति, गौरी लंकेश, देवनूर महादेव, नरेंद्र दाभोलकर, पी.लंकेश, भ्रष्टाचार, लंकेश पत्रिके, समाजवादी जन परिषद, swjp on सितम्बर 5, 2018| Leave a Comment »
कर चोरी के खिलाफ युद्ध या कर डकैतों की सुरक्षा?
Posted in तानाशाही dictatorship, capitalism, corruption, curruption, Uncategorized, tagged adani, ambani, अडाणी, अम्बानी, आर्थिक नसबन्दी, नरेन्द्र मोदी, नोटबन्दी, पनामा खाते, वेदान्त, demonetisation, economic vasectomy, HSBC, HSBC disclosure, Panama disclusure, Tax evasion, vedanta on नवम्बर 27, 2016| Leave a Comment »
ज्यादातर पेट्रोल पंप केन्द्र सरकार के मन्त्रालय की PSUs द्वारा संचालित हैं।
आज कल इन पंपो पर ‘कर-चोरी के खिलाफ लडाई में मेरा पैसा सुरक्षित है’ अभियान चलाया जा रहा है।इस दोगले प्रचार अभियान से आपको गुस्सा नहीं आया?
– मेरा पैसा इतना सुरक्षित है कि इसे मैं भी मनमाफिक नहीं निकाल सकता।
– मेरा पैसा इतना सुरक्षित हो गया कि मुझे स्थायी तौर पर असुरक्षित कर दिया।
-मेरा पैसा इतना सुरक्षित हो गया कि उसकी इज्जत हमारी ही नजरों में गिरा दी गई और उसका मूल्य अन्य मुद्राओं की तुलना में गिरता जा रहा है।
– अब तक कर-चोरी के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? CAG ने जहां अम्बानी-अडाणी की अरबों रुपयों का कर न वसूलने पर आपत्ति की है,वह भी नहीं नहीं वसूलेंगे।
– देश का पैसा चुरा कर बाहर जमा करने वालों में से जिनके नाम पनामा वाली सूची में आए उन्हें कोई सजा क्यों नहीं दी गई ? HSBC द्वारा उजागर विदेश में देश का धन जमा करने वालों को क्या सजा दी?इसमें भी इनके यार थे।
– सितंबर में खत्म हुई आय की ‘स्व-घोषणा’ में भी टैक्स चोरों को इज्जत बक्शी गयी है अथवा नहीं?
– सुप्रीम कोर्ट में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की खस्ताहाल की मुख्य वजह अम्बानी,अडाणी और वेदान्त वाले अनिल अग्रवाल जैसों की बकायेदारी को बताया गया। इस पर नोटबंदी के पहले अरुण जेटली कह चुके हैं कि सरकारी बैंकों में पैसा पंप किया जाएगा। अब जनता का पैसा हचाहच पंप हो ही रहा है। Non performing assets बढेंगे तो इन धन पशुओं को रियायत मिल जाएगी। यह आपके यारों द्वारा कर-डकैती नहीं है?
– जिन गांवों में बैंक नहीं हैं वहां पहुंच कर पैसे क्यों नहीं बदले जा रहे? क्या आपको पता है कि समाज के सबसे कमजोर तबकों के साथ उनकी गाढी कमाई की ठगी से 500 के बदले 250 तक दिए गए हैं?
नोटबन्दी पर सजप का एक त्वरित नोट
Posted in capitalism, corruption, demonetisation, tagged छोटे नोट, नोटबंदी, बड़े नोट, रिजर्व बैंक on नवम्बर 13, 2016| Leave a Comment »
नोट छापने का काम रिजर्व बैंक का है। जो नोट कट-फट जाते हैं या सड़ जाते हैं उन्हें नष्ट करके बाजार में विभिन्न मूल्य वाले नये नोट छापने का काम भी रिजर्व बैंक का है। हमारी अर्थव्यवस्था में 86 फीसदी नोट 500 तथा 1000 रुपये के थे। यानि छोटे नोट अर्थव्यवस्था में मात्र 14 फीसदी रहे होंगे। इस निर्णय के पहले से बैंकों के ए टी एम से अधिकतर 500 और हजार के नोट ही मिलते थे।प्रधान मंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश के माध्यम से 500 और 1000 रुपये के नोट सन्देश के चार घन्ट के बाद से रद्द करने की घोषणा की।उनका दावा था कि इससे काला धन पर प्रभावी रोक लगेगी और अर्थव्यवस्था का शुद्धीकरण हो जाएगा।
यह भी कहा गया कि ऐसा पहली बार किया जा रहा है।यह बात गलत थी।1978 में जनता पार्टी की सरकार ने हजार, 5 हजार और 10 हजार के नोटों को रद्द किया था। तब यह बडे नोट 165 करोड मूल्य के थे तथा नोटबंदी के बाद 135 करोड के नोट वापस जमा हो गये थे। काले धन पर विशेष प्रभाव नहीं पडा था तथा इस कदम के बाद भी काले पैसे की अर्थव्यवस्था फलती-फूलती रही।उस जमाने में आम आदमी की जेब में आम तौर पर 10-10 के नोट और कभी कदाच 100 के नोट रहते थे। रद्द किए गए नोटों को लौटाने के लिए लम्बी कतारें नहीं थीं।तथा अर्थव्यवस्था में छोटे व्यवसायों और उससे जुडे लोगों पर इसका कोई असर नहीं पडा था।
80-85 फीसदी मुद्रा के चलन पर रोक से स्वाभाविक तौर जनता में हाहाकार मचा हुआ और अत्यन्त तंगी का सामना करना पड रहा है। छोटे व्यवसाय पर भारी असर हुआ है।अब भी सरकार द्वारा नये छोटे नोटों को छापने की बात नहीं हो रही है।इसलिए यह संकट लम्बे समय तक चलेगा ऐसा लगता है। इस कदम से गैर कानूनी मुद्रा बाजार (हवाला) में तेजी आ गई है। काले धन को समय समय पर सोने,डॉलर में परिवर्तित कर लिया जाता है इसलिए सोने और हवाला कारोबार में भी तेजी बनी रहेगी।
जहां तक काला धन समाप्त करने का सवाल यह कदम न सिर्फ अपर्याप्त है बल्कि काला धन बनाने के स्रोतों और उसकी मशीनरी पर भी चोट नहीं करता है। घूस कभी चेक से नहीं दी जाती इसलिए यदि घूस लेना चालू रहा तो नगद में काले धन की जरूरत बनी रहेगी।
जनता द्वारा अच्छा उत्पादन,व्यवसाय और रोजगार करने के बाद यदि पैसा बचाया जाता है तो उससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है।
उत्पादन,व्यवसाय,रोजगार के विकास के बिना जनता का पैसा बैंक में जमा करने के उपाय विफल होते हैं। प्रधान मंत्री जन-धन योजना में खुले अधिकांश खाते बिना लेन-देन के पडे रहे। ऐसा माना जा रहा है चूंकि इनमें से अधिकांश गरीबों के खाते थे जो पहली बार खुल रहे थे इसलिए इनका उपयोग काले धन को बचाने की प्रक्रिया में उपयोग हो सकता है।इसमें उन गरीबों का लाभ नगण्य होगा।
काल धन पर गहराई से अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का मत है कि अर्थव्यवस्था से जुडा करीब 90 लाख करोड रुपया काला धन है| इस कदम से इसका एक बहुत छोटा हिस्सा प्रभावित होगा और विभिन्न क्षेत्रों में काला धन बनने के स्रोत बने रहेंगे।
इस कदम से पूरी तरह से अप्रभावित वह पूंजीपति वर्ग है जिन्हें सरकार के निर्णयों से हजारों करोड का लाभ होता है। यह निर्णय प्राकृतिक संसाधनों को इन लोगों को सौंपने से होने वाले अरबों के मुनाफे तथा सरकारी बैंकों में इन लोगों के बकाया हजारों करोड की वसूली न करने को कहां प्रभावित करता है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खिंचाई के बाद इन बडे बकायेदारों की सूची गोपनीय तौर पर न्यायालय को सौंपी गयी है। बैंकों द्वारा कर्जा देने की सीमा निर्द्धारित होती है बैंकों में जमा पैसे से। बहरहाल जनता की ईमानदारी की कमाई का पैसा बैंकों में जमा होगा तथा इसको निकालने पर सरकार का नियन्त्रण होगा।इस तरीके से बालात की गयी बचत के बहाने इन बडे बकायेदारों को राहत न मिले यह देखने वाली बात होगी।
अफलातून
संगठन सचिव,समाजवादी जनपरिषद
NDTV पर हमले के प्रतिकार का प्रसंग पूरी तरह पवित्र नहीं हो पा रहा
Posted in तानाशाही dictatorship, capitalism, corporatisation, mining, nationalism, news, odisha, tagged censorship, coca cola, ndtv, prannoy roy, ravish, vedanta on नवम्बर 5, 2016| Leave a Comment »
आपातकाल के दौरान खबर के प्रकाशन के पहले और बाद दोनों सेन्सरशिप लागू थी। रामनाथ गोयन्का के एक्सप्रेस समूह,गुजराती के सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े ‘भूमिपुत्र’,राजमोहन गांधी के ‘हिम्मत’ ,नारायण देसाई द्वारा संपादित ‘बुनियादी यकीन’आदि द्वारा दिखाई गई हिम्मत के अलावा जगह-जगह से ‘रणभेरी’,’चिंगारी’ जैसी स्टेन्सिल पर हस्तलिखित और साइक्लोस्टाईल्ड बुलेटिन ने इसका प्रतिवाद किया था। विलायत से स्वराज नामक बुलेटिन आती थी और बीबीसी हिन्दी भी खबरों के लिए ज्यादा सुनी जाती थी। उस दौर में संवैधानिक प्रावधान द्वारा समस्त मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे। ‘रणभेरी’ का संपादन-प्रकाशन इंकलाबी किस्म के समाजवादी युवा करते थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा इसके वितरण से इस टोली को आपत्ति नहीं थी। 1977 में आई जनता पार्टी की सरकार ने आंतरिक संकट की वजह से मौलिक अधिकार को निलंबित रखने के संवैधानिक प्रावधान को संवैधानिक संशोधन द्वारा दुरूह बना दिया। संसद के अलावा दो तिहाई राज्यों में दो-तिहाई बहुमत होने पर ही आन्तरिक संकट की वजह से आपातकाल लागू किया जा सकता है। जनता पार्टी लोकतंत्र बनाम तानाशाही के मुद्दे पर चुनी गई थी।आन्तरिक आपातकाल को दुरूह बनाने का संवैधानिक संशोधन इस सरकार का सर्वाधिक जरूरी काम था।उस सरकार को सिर्फ इस कदम के लिए भी इतिहास में याद किया जाएगा।
बहरहाल,1977 की जनता सरकार में सूचना प्रसारण मंत्रालय संघ से जुडे लालकृष्ण अडवाणी के जिम्मे था। उन्होंने आकाशवाणी और दूरदर्शन में जम कर ‘अपने’ लोगों को नौकरी दी। समय-समय पर वे अपनी जिम्मेदारी खूब निभाते हैं। कहा जाता है मंडल सिफारिशों को लगू करने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह जिस राष्ट्र के नाम प्रसारण में अपना इस्तीफा दे रहे थे उसे एक विशिष्ट शत्रु-कोण से खींच कर प्रसारित किया जा रहा था। निजी उपग्रह चैनल तब नहीं थे।
मौजूदा दौर 1992 में शुरु हुई वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद का दौर है। जीवन के हर क्षेत्र को नकारात्मक दिशा में ले जाने वाली प्रतिक्रांति के रूप में वैश्वीकरण को समझा जा सकता है। लाजमी तौर पर सूचना-प्रसारण का क्षेत्र भी इस प्रतिक्रांति से अछूता नहीं रहा। निजी उपग्रह चैनल भी नन्हे-मुन्ने ही सही सत्ता-केन्द्र बन गए हैं। इनसे भी सवाल पूछना होगा।नरेन्द्र मोदी की सरकार ने NDTV-इंडिया को छांट कर ,सजा देने की नियत से एक असंवैधानिक आदेश दे दिया है। सभी लोकतांत्रिक नागरिकों, समूहों और दलों को इसका तीव्रतम प्रतिवाद करना चाहिए । नागरिकों के हाथ में अब एक नया औजार इंटरनेट भी है जिस पर रोक लगाना कठिन है। आपातकाल के बाद के दौर में भी बिहार प्रेस विधेयक जैसे प्रावधानों से जब अभिव्यक्ति को बाधित करने की चेष्टा हुई थी तब उसके राष्ट्रव्यापी प्रतिकार ने उसे विफल कर दिया था।
अभिव्यक्ति के बाधित होने में नागरिक का निष्पक्ष सूचना पाने का अधिकार भी बाधित हो जाता है। मौजूदा दौर में NDTV इंडिया के लिए जारी फरमान के जरिए हर नागरिक का निष्पक्ष सूचना पाने का अधिकार बाधित हुआ है। निष्पक्ष सूचनाएं अन्य वजहों से भी बाधित होती आई हैं। उन वजहों के खिलाफ इस दौर में प्रतिकार बहुत कमजोर है। इन आन्तरिक वजहों पर भी इस मौके पर गौर करना हमें जरूरी लगता है।
हमारे देश में अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है जिनकी वजह से भारतीय अर्थशास्त्र के पहले पाठ में पढाया जाता था-‘भारत एक समृद्ध देश है जिसमें गरीब बसते हैं’।संसाधनों पर हक उस दौर की राजनीति तय करती है। यह दौर उन संसाधनों को अडाणी-अम्बानी जैसे देशी और अनिल अग्रवाल और मित्तल जैसे विदेशी पूंजीपतियों को सौंपने का दौर है। मुख्यमंत्री और केंद्र में बैठे मंत्री वंदनवार सजा कर इनका स्वागत करते हैं। संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए कंपनियां घिनौनी करतूतें अपनाती हैं। स्थानीय समूहों द्वारा इस प्रकार के दोहन का प्रतिकार किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर स्थानीय आबादी के बीच जनमत संग्रह कराया गया कि वेदांत कंपनी द्वारा नियामगिरी पर्वत से बॉक्साइट खोदा जाए अथवा नहीं। एक भी वोट इंग्लैण्ड स्टॉक एक्सचेंज में पंजीकृत वेदांत कंपनी के पक्ष में नहीं पड़ा। इसी प्रकार कोका कोला-पेप्सी कोला जैसी कंपनियों द्वारा भूगर्भ जल के दोहन से इन संयंत्रों के आस पास जल स्तर बहुत नीचे चला गया है। इंसान और पर्यावरण के विनाश द्वारा मुनाफ़ा कमाने वाली वेदान्त,कोक-पेप्सी जैसी कंपनियां निजी मीडिया प्रतिष्ठानों को भारी पैसा दे कर कार्यक्रम प्रायोजित करती हैं। इस परिस्थिति में मीडिया समूह सत्य से परे होने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
NDTV और उसके नव उदारवादी संस्थापक प्रणोय रॉय ने अपने चैनल के साथ वेदांत और कोका कोला कंपनी से गठबंधन किए हैं।लाजमी तौर पर इन कंपनियों की करतूतों पर पर्दा डालने में NDTV के यह कार्यक्रम सहायक बन जाते हैं। वेदान्त के साथ NDTV महिलाओं पर केन्द्रित कार्यक्रम चला रहा था तथा कोका कोला के साथ स्कूलों के बारे में कार्यक्रम चला रहा था। इस प्रकार के गठबंधनों से दर्शक देश बचाने के महत्वपूर्ण आन्दोलनों की खबरों से वंचित हो जाते हैं तथा ये घिनौनी कम्पनियां अपनी करतूतों पर परदा डालने में सफल हो जाती हैं।
वेदान्त का अनिल अग्रवाल मोदी और प्रणोय रॉय के बीच पंचायत कराने की स्थिति में है अथवा नहीं,पता नहीं।
नई पगडंडियां बनाने वाला साथी सुनील
Posted in capitalism, consumerism, corporatisation, corruption, displacement, tagged adivasi, capitalism, development, gandhi, globalisation, internal colony, lohia, marx, rosa luxemberg, sunil on अप्रैल 20, 2015| 4 Comments »
मार्क्स हों ,गांधी हों या लोहिया उनके बताये रस्ते पर चलते रहने के बजाए नई पगडंडिया बनाने वाला ही योग्य अनुगामी होता है। वह लकीर का फकीर नहीं होता , नए उसूल बताता है और उन पर चल कर दिखाता है। सुनील ने इन महापुरुषों के विचार ,सिद्धान्त और काम में नया जोड़ा। सुनील की बनाई पगडंडियों की आज चर्चा का दिन है। सुनील इन पगडंडियों पर चला भी इसलिए यह चर्चा आगे भी प्रासंगिक रहेगी।
केसला इलाके में पीने के पानी और सिंचाई के लिए छोटे बन्धों के लिए भौंरा बेतूल पैदल मार्च इलाके को रचनात्मक उर्जा देने वाला कार्यक्रम सिद्ध हुआ। इन बन्धों का प्रस्ताव मोतीलाल वोरा को किसान आदिवासी संगठन ने दिया।
आदिवासी गांव में नियुक्त मास्टर की मौजूदगी के लिए भी इस व्यवस्था में महीनों जेल जाना पड़ता है यह राजनारायण और सुनील ने बताया।
सुनील ने लम्बे चौड़े विधान सभा ,लोक सभा क्षेत्रों के बजाए व्यावाहारिक विकेन्द्रीकरण का मॉडल बताया जिनमें पंचायती व्यवस्था के वित्तीय-आर्थिक अधिकार का प्रावधान होता। पूंजीपतियों के भरोसे चलने वाले मुख्यधारा के दल ही इन बड़े चुनाव क्षेत्रों में सफल होते हैं।
जल,जंगल,जमीन के हक को स्थापित करने के लिए आदिवासी में स्वाभिमान जगाने के बाद और लगातार अस्तित्व के लिए संघर्ष करते करते सहकारिता की मिल्कियत का एक अनूठा मॉडल चला कर दिखाया।
संसदीय लोकतंत्र ,रचनात्मक काम और संघर्ष इनके प्रतीक ‘वोट,फावड़ा ,जेल’ का सूत्र लोहिया ने दिया।’वोट , फावड़ा,जेल’ के इन नये प्रयोगों के साथ-साथ सुनील ने इस सूत्र में दो नये तत्व जोड़े- संगठन और विचार । जीवन के हर क्षेत्र को प्रतिकूल दिशा में ले जाने वाली ‘प्रतिक्रांति’ वैश्वीकरण के षड़्यन्त्र को कदम-कदम पर बेनकाब करने का काम सुनील ने किया। ‘पूंजी के आदिम संचय’ के दौरान होने वाला प्रकृति का दोहन सिर्फ आदिम प्रक्रिया नहीं थी,सतत प्रक्रिया है। १९४३ में लिखे लोहिया के निबन्ध ‘अर्थशास्त्र , मार्क्स से आगे’। मार्क्स की शिष्या रोजा लक्सेमबर्ग की तरह लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी शोषण जरूरी है। समाजवादी मनीषी सच्चिदानन्द ने आन्तरिक उपनिवेशवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सुनील ने इस सिद्धान्त को परिमार्जित करते हुए कहा कि सिर्फ देश के अन्दर के पिछाड़े गये भौगोलिक इलाके ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के खेती,छोटे उद्योग जैसे क्षेत्र भी आन्तरिक उपनिवेश हैं। खेती के शोषण से भी पूंजीवाद को ताकत मिलती है।
भ्रष्टाचार और घोटालों से उदारीकरण की नीतियों का संबध है यह सुनील हर्षद मेहता के जमाने से सरल ढंग से समझाते आए थे। इस संबंध को पिछले दिनों चले ‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन’ ने पूरी तरह नजरअन्दाज किया था। बल्कि इस आन्दोलन के तमाम प्रणेता इसे सिर्फ नैतिकतावादी मुहिम के रूप में चला कर घोटालों से जुड़े कॉर्पोरेट घरानों और फिक्की जैसे उद्योगपतियों के समूहों को इस बात द्वारा आश्वस्त करते रहे कि आपको लाभ देने वाली नीतियों की चर्चा को हम अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे हैं ।
सुनील की बताई राह यथास्थितिवाद की राह नहीं है , बुनियादी बदलाव की राह है। सुनील के क्रांति के लिए समर्पित जीवन से हम ताकत और प्रेरणा पाते रहेंगे।
मैं आआपा में क्यों नहीं ? – संदीप पाण्डे , राष्ट्रीय संयोजक,लोक राजनीति मंच
Posted in नई राजनीति, capitalism, tagged आआपा, आम आदमी पार्टी, लोक राजनीति मंच, सन्दीप पांडे on जनवरी 29, 2014| 3 Comments »
मैं आप में क्यों नहीं?
दिल्ली में आप की अभूतपूर्व सफलता के बाद सामाजिक कार्यों से जुड़े कुछ मित्र तो मुझे सलाह दे रहे हैं कि मैं भी आप में शामिल हो जाऊं तो कई ये पूछ रहे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए? कुछ तो यह मान कर चल रहे हैं कि आप से मेरा निकट का सम्बंध हैं और चाह रहे हैं कि मैं उनके इलाके से लोकसभा चुनाव हेतु आप के उम्मीदवार के रूप में उनके नामों की संस्तुति कर दूं तो कुछ विषेषज्ञ अपना ज्ञान आप की सेवा में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रख रहे हैं। एक महिला पुलिसकर्मी ने तो फोन करके कहा कि अपनी जिन्दगी में राजनेताओं को करीब से देखने के बाद वह इस निर्णय पर पहुंची है कि इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता और अरविंद केजरीवाल को सुरक्षा स्वीकार कर लेनी चाहिए।
मेरे आप में न होने की एक वजह यह है कि न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर ने 2011 में सोषलिस्ट पार्टी को पुनर्जीवित किया तो उनके कहने पर मै उसमें शामिल हो गया। यह पार्टी डाॅ. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्द्धन, आदि, द्वारा बनाई गई पार्टी है जिसका 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया था। इसके पूर्व पिछले लोक सभा चुनाव से पहले जब कुलदीप नैयर ने लोक राजनीति मंच बनाया था तो मैं उसमें भी शामिल हुआ था। फिलहाल मैं सोषलिस्ट पार्टी और लोक राजनीति मंच, जिसमें कई अन्य छोटे-छोटे दल भी शामिल हैं, को मजबूत करने में लगा हुआ हूं। मुझे नहीं लगता कि सिर्फ इसलिए कि आज आप को सफलता मिल रही है तो हमें अपने दल छोड़ कर उसमें शामिल हो जाना चाहिए। याद रहे कि इस देष को जिन राजनीतिक बुराइयों से मुक्त कराना है उसमें से एक दल बदलने वाली अवसरवादिता भी है। दल बदलने के खिलाफ इसीलिए एक कानून भी बना है। हां, यदि विचार और कार्यशैली मिलते हों तो, गठबंधन के बारे में जरूर सोचा जा सकता है।
किंतु आप में न जाने का प्रमुख कारण यह है कि आप के लिए केन्द्रीय मुद्दा है भ्रष्टाचार। जबकि मुझे लगता है कि हमारे देष ही नहीं मनुष्य समाज का केन्द्रीय मुद्दा है गैर-बराबरी। जब तक हम एक ऐसा समाज नहीं बना लेते जिसमें हरेक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का इतना सम्मान करने लगे जितना कि वह दूसरों से अपने लिए चाहता है तब तक हम एक मानवीय व्यवस्था कायम नहीं कर सकते। यह सिर्फ भ्रष्टाचार खत्म होने से या स्वाराज्य आ जाने से नहीं होगा।
मान लीजिए कि कल अरविंद केजरीवाल के शासन में भ्रष्टाचार एकदम समाप्त हो जाए। कहीं भी एक पैसा न तो कोई घूस लेने वाला हो न ही कोई देने वाला। यह भी मान लीजिए कि सारे निर्णय जनता की सीधी भागीदारी से होने लगे, यानी स्वराज्य आ गया। तो क्या हम संतुष्ट हो जाएंगे?
क्या जाति के आधार पर ऊंच-नीच की भावना खत्म हो जाएगी? क्या हरेक अमीर गरीब को अपने साथ बैठाने लगेगा? क्या महिलाओं के प्रति हिंसा या पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था समाप्त हो जाएगी और महिला अपने को सुरक्षित महसूस करने लगेगी? क्या आधे बच्चे, जो कुपोषण का शिकार हैं और इस वजह से विद्यालय स्तर की भी शिक्षा पूरी नहीं कर पाते, को पर्याप्त पौष्टिक भोजन मिलने लगेगा और वे भी उतने ही गुणवत्तापूर्ण विद्यालयों में जाने लगेंगे जिनमें अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं? क्या हरेक गरीब को मुफ्त उतना गुणवत्तापूर्ण इलाज मिलेगा जितना अमीर लोग निजी अस्पतालों में खरीदने की क्षमता रखते हैं?
आप ने बिजली के दामों को आधा करने कर वायदा किया है किंतु उन लोगों का क्या जिनके पास अभी बिजली पहंुची ही नहीं है और न कभी पहुंचेगी? जितने लोग इस देष में हैं उन सबको बिजली उपलब्ध करा पाने लायक उत्पादन ही हम नहीं करते क्योंकि उतने संसाधन ही हमारे पास नहीं हैं। इसलिए प्रभावशाली या पैसे वाले तो बिजली का सपना देख सकते हैं लेकिन हरेक गरीब नहीं। खत्म होते कोयले के संसाधन से बिजली पैदा करने का यदि हमने कोई विकल्प नहीं ढूंढा तो निकट भविष्य में यह स्थिति बदलने वाली नहीं।
पानी तो प्राकृतिक संपदा है और सभी मनुष्यों को उपलब्ध है। उसपर सरकार या किसी निजी कम्पनी को पैसा कमाने की छूट नहीं होनी चाहिए। सरकार की यह जिम्मेदारी है कि जिस मनुष्य को जरूरी आवष्यकताओं जैसे पीने, सिंचाई, स्नान, कपड़ा धोने, आदि के लिए जितना चाहिए उतना उसे मिलना चाहिए। किंतु मनोरंजन, जैसे स्वीमिंग पूल, वाॅटर पार्क, गोल्फ के मैदान और बड़े-बड़े लाॅन हेतु उसका दुरुपयोग बंद होना चाहिए। सिंचाई को छोड़कर जमीन के नीचे से निजी पम्प द्वारा पानी निकालने पर प्रतिबंध होना चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो पानी के उपभोग पर कोई सीमा नहीं तय करनी पड़ेगी। बिना रासायनिक खाद व कीटनाषक के खेती होने लगी तो पानी की आवष्यकता भी कम हो जाएगी।
चूंकि हमारा लक्ष्य एक मानवीय व्यवस्था को कायम करना है जिसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होगी इसलिए हम एक हथियार मुक्त दुनिया की कल्पना करते हैं – व्यक्तिगत स्तर पर भी और राष्ट्रों के स्तर पर भी। इसलिए सोषलिस्ट पार्टी ने तय किया है कि हमारे सदस्य मनुष्यों में कोई भेदभाव न मानने वाले व भ्रष्टचार के खिलाफ तो होने ही चाहिए वे हथियारों के आधार पर सुरक्षा की अवधारणा को न मानने वाले भी होने चाहिए। असल में देखा जाए तो बहादुर व्यक्तियों, जैसे अरविंद केजरीवाल, को अपनी सुरक्षा के लिए हथियारों की जरूरत ही नहीं महसूस होती।
आप पार्टी के निर्माण में राष्ट्रवाद की भावना उसकी नींव में है। उसके प्रमुख नारे हैं भारतामाता की जय और वंदे मात्राम जबकि हमारा मानना है कि राष्ट्रवाद की अवधारणा तो मनुष्यों को वैसे की बांटती है जैसे कि जाति और धर्म की। राष्ट्र की सुरक्षा पड़ोसियों के साथ विष्वास पर आधारित सम्बंधों से होती है न कि परमाणु बम बनाने से।
उपर्युक्त कुछ वैचारिक मतभेदों और आप की काॅरपोरेट कार्यषैली, जिसमें व्यक्तियों को उनकी उपयोगिता के हिसाब से जोड़ा जा रहा है न कि मानवीय सम्बंधों के आधार पर, के कारण हमारे जैसे लोग आप में सहज महसूस नहीं कर सकते। हां, चूंकि आप का प्रयोग इस देष में सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था की बदलने के लिए एक ताजी बयार लेकर आया है हम इसका स्वागत करते हैं और हम इसके सफलता की कामना करते हैं ताकि यह देष की राजनीति को भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से मुक्त कराए।
लेखकः संदीप
पताः ए-893, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
फोनः 0522 2347365, मोबाइलः 9415022772
वर्तमान सभ्यता का मूल रोग और इसका समाधान – सच्चिदानंद सिन्हा –
Posted in capitalism, consumerism, corporatisation, globalisation, globalisation , privatisation, tagged capitalism, globalisation, sachchidanand sinha on अप्रैल 9, 2012| 3 Comments »
1991 से भारत में जिस आर्थिक नीति को घोषित रूप से लागू किया गया है उसे द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों से लेकर 1990 आते-आते सोवियत यूनियन के ध्वस्त होने जैसी घटनाओं के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शोषण के पुराने रूप पर एक हद का विराम लग गया। भारत समेत दुनिया के अनेक देश साम्राज्यवादी नियंत्रण से आजाद हो गये जिन पर पुराने तरह तक आर्थिक नियंत्रण असंभव हो गया। सोवियत यूनियन एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा और स्वयं यूरोप के बड़े भू-भाग पर इसका नियंत्रण काफी दिनों तक बना रहा। इसी पृष्ठभूमि में ब्रेटनवुड्स संस्थाएं – विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन – 2 जुलाई 1944 में अस्तित्व में आयीं, जिनका मूल उद्देश्य युद्ध से ध्वस्त हो चुकी पश्चिमी यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाकर एक हद तक संसार पर इनके वर्चस्व को फिर से स्थापित करना था।
पश्चिमी वर्चस्व को कायम रखने का यह प्रयास चल ही रहा था कि रूस और चीन में भारी आर्थिक बदलाव आये जिसने पश्चिमी ढ़ंग के औद्योगिक विकास के लिए एक संजीवनी का काम किया। चीन में कई उथल-पुथल, जैसे ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’, ‘बड़ा उछाल’ (ग्रेट लीप) आदि के बाद देंग द्वारा कम्युनिश्ट राजनीतिक सत्ता के तहत ही पूंजीवाद की ओर संक्रमण शुरू हुआ और रूस में, 1990 आते आते थोड़े ही समय में पूरी कम्युनिश्ट व्यवस्था धराशायी हो गयी।
सोवियत व्यवस्था के अंतर्विरोध
रूस के ऐसे अप्रत्याशित बदलाव के निहितार्थ को समझना जरूरी है। रूस ने अपने सामने वैसे ही औद्योगिक समाज के विकास का लक्ष्य रखा जैसा औद्योगिक क्रान्ति के बाद पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में विकसित हुआ था। दरअसल रूस ने तेजी से इस दिशा में अमेरिका से आगे निकलने का लक्ष्य अपने सामने रखा था। लेकिन आधुनिक उद्योगों के लिए पूंजी संचय की प्रक्रिया का समतामूलक समाज के लक्ष्य से इतना विरोध था कि इस व्यवस्था पर असह्य दबाव बना रहा। मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ाने के लिए ‘पीस रेट’1 की असह्य (तथाकथित स्टैखनोवाइट) व्यवस्था लागू की जाने लगी। किसानों की जमीन को जबर्दस्ती सामूहिक फार्मों के लिए ले लिया गया और उन्हें एक नौकरशाही के तहत श्रमिक की तरह कठिन शर्तों पर काम करने को मजबूर किया गया। कृषि के अधिशेष (surplus) को उद्योगों के विकास के लिए लगाया जाने लगा। इससे उद्योगों के लिए तो पूंजी संचय तेज हुआ लेकिन चारों ओर पार्टी और इससे जुड़ी नौकरशाही के खिलाफ इतना आक्रोश हुआ कि अंततः व्यवस्था धराशायी हो गयी। जो नतीजे हुए वे जग जाहिर है। इससे जो पूंजीवाद पैदा हुआ वह बहुत ही अस्वस्थ ढ़ंग का है। एक खास तरह की उद्यमिता और मितव्ययिता जो पूंजीपतियों के साथ पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में जुड़ी थीं उसका वहां अभाव था और सामूहिक संपत्ति की लूट और विशाल मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन (जैसे प्राकृतिक गैस एवं दूसरे खनिजों) की खरीद फरोख्त से धनाढ्य बनने की होड़ लग गयी। इस क्रम में सोवियत काल की जो सामाजिक सुरक्षा आम लोगों को उपलब्ध थी वह छिन्न-भिन्न हो गयी। थोड़े से लोग अल्पकाल में ही धनाढ्य हो गये। फिर भी अपने प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर रूस एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में प्रभावी बना हुआ है। लेकिन आम लोगों का जीवन स्तर देश की विशाल संपदा के हिसाब से काफी नीचा है।
चीन के अंतर्विरोध
चीन में जो बदलाव आये हैं वे कुछ अचरज में डालने वाले लगते हैं। लेकिन गहराई से विचार करने पर साफ दिखाई देता है कि यह भी समतामूलक समाज के लक्ष्यों से आधुनिक ढंग के औद्योगीकरण के अंतरविरोध का ही नतीजा है। माओ ने शुरू में ऐसा सोचा था कि एक साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए औद्योगिक विकास के अति उच्च स्तर पर पहुँचना जरूरी नहीं, जैसी कि मार्क्सवादियों की प्रारंभिक मान्यता थी। उसका ऐसा मानना था कि लोगों की चेतना और जीवन शैली में बदलाव से, ऊंचे औद्योगिक विकास के बिना भी, समतामूलक, साम्यवादी समाज बनाया जा सकता है। इसी सोच से सांस्कृतिक क्रांति के प्रयास हुए जिसमें लोगों की सोच को बदलने के लिए शहरी लोगों को ग्रामीण अंचलों में कृषि से जुड़े कामों को करने को बाध्य किया गया। सामूहिक जीवन के लिए सभी स्तर पर कम्युनों की स्थापना की जाने लगी। पर माओ के इस सपने के बिखरने के दो कारण थे। एक तो जिस कम्युन पद्धति को वह लागू करना चाहता था, वह स्वतः स्फूर्त रूप से नीचे से विकसित नहीं हो रही थी बल्कि ऊपर से एक केन्द्रीय सत्ता के द्वारा लागू की जा रही थी, जिसके पीछे वहां की सैन्य शक्ति थी। इस तरह यह एक सहयोगी व्यवस्था को केन्द्रीकृत पार्टी नौकरशाही के दबाव में विकसित करने का प्रयास था। इससे पैदा संस्थागत अवरोध के खिलाफ छात्रों और युवाजनों की शक्ति को उभारने का प्रयास किया गया, जिससे जगह-जगह संघर्ष होने लगे और सैन्य शक्ति से ही स्थिति को नियंत्रित किया गया। दूसरा, माओ नेे ‘बैकयार्ड स्टील मिल’ की बात जरूर की लेकिन यह छोटे और घरेलू उद्योगों के आदर्श को लागू करने के लिए नहीं हुआ। इसे तत्कालिक मजबूरी से ज्यादा नहीं माना गया। भारी सैन्यबल के विकास और इसके लिए जरूरी अत्याधुनिक उद्योगों के विकास का लक्ष्य कभी भी नहीं छोडा गया। अंततः अति विकसित उद्योगों की महत्वाकंाक्षा ने छोटे उद्योगों और स्वशासी कम्युनों की कल्पना को रौंद दिया और माओ के जाते-जाते अत्याधुनिक उद्योगों पर आश्रित सैन्यबल की महत्वाकांक्षा हावी हो गई। आधुनिक ढ़ंग की औद्योगिक व्यवस्था के विकास के लिए पूंजी संचय के वे सारे रास्ते अपनाना अपरिहार्य हो गया जिन्हें अन्यत्र अपनाया गया था। चीन में ‘‘मंडारिनों’’ (केन्द्रीकृत नौकरशाही) के तहत राज्य के उद्देश्यों के लिए आम लोगों की कई पीढि़यों की बलि देने की परंपरा दो हजार वर्षों से अधिक पुरानी है, जिसका गवाह चीन की दीवार है। इसलिए जब एक बार आधुनिक ढंग के औद्योगिक विकास का लक्ष्य अपनाया गया तो आम लोगों, विशेषकर ग्रामीण लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जाने लगा। इसके लिए चीन के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का अबाध शोषण शुरू हुआ और संसार भर के अत्याधुनिक पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को आमंत्रित कर इस विकास में लगाया गया। विशेष सुविधाओं से युक्त ‘‘स्पेशल इकाॅनोमिक जोन’’ SEZ का जाल बिछ गया। पूंजीवाद के विकास से जुड़ा औपनिवेशक शोषण का यह आंतरिक और आत्यांतिक रूप बन गया है।
प्राथमिक पूंजी संचय प्राथमिक नहीं, निरंतर
मार्क्स ने औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ 2 को किसानों के क्रूर विस्थापन और श्रमिकों के घोर शोषण से जोड़ा था। उसने यह मान लिया था कि इसके बाद स्थापित उद्योगों में मजदूरों के शोषण से प्राप्त अधिशेष के आधार पर पूंजी का विस्तार होता रहेगा। श्रमिकों और पंूजीपतियों का संघर्ष श्रम के अधिशेष के अनुपात को लेकर होगा जो पूंजीपतियों के मुनाफे का आधार है। लेकिन समग्रता में परिणाम सुखदायी होगा क्योंकि अंततः इससे एक नयी सभ्यता का विस्तार होता रहेगा। इनमें रूकावट श्रम से जुडे अधिशेष को हासिल करने और इससे जुड़े समय-समय पर आने वाले व्यापार के संकटों (ट्रेड साइकिल) से आएगी। रोजा लक्जमबर्ग जैसी मार्क्सवादी चिन्तकों ने भी इस व्यवस्था का मूल संकट अधिशेष जनित पण्यों के बाजार से ही जोड़ा था। स्वयं धरती के संसाधनों के सिकुड़न के संकट पर किसी का ध्यान नहीं गया था।
अब तस्वीर ज्यादा जटिल और भयावह है। औद्योगिक विकास शून्य में नहीं होता और सकल उत्पाद में श्रम निर्गुण या अदेह रूप में संचित नहीं होता बल्कि अन्न, जल और अनगिनत जैविक पदार्थो के परिवर्तन और परिवर्धन से उपयोग की वस्तुओं के अंसख्य रूपों में संचित होता है। यह प्रक्रिया पूरी धरती को संसाधन के रूप में जज्ब कर असंख्य उपयोग की वस्तुओं के रूप में बदलने की प्रक्रिया होती है।
प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का असीमित दोहन
इस क्रम में धरती के सारे तत्व जैविक प्रक्रिया से बाहर हो जीवन के लिए अनुपलब्ध बनते जाते हैं – जैसे ईंट, सीमेंट, लोहा या प्लास्टिक, जिन्हें मनुष्य से लेकर जीवाणु तक कोई भी जज्ब नहीं कर सकता। इस सारी प्रक्रिया केा धरती पर जीवन या स्वयं धरती की मौत के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि यह किसी भी जैविक प्रक्रिया के लिए अनुपयोगी बन जायेगी। ध्यान देने की बात है कि पूंजी संचय और इस पर आधारित औद्योगिक विकास की प्रक्रिया सिर्फ प्राथमिक स्तर पर हीं नहीं बल्कि सतत् चलने वाली होती है और इसमें प्राकृतिक और मानव संसाधनों का दोहन हर स्तर पर चलता रहता है। यह संभव इसलिए होता है क्योंकि समाज में एक ऐसा वर्ग भी बना रहता है जो इस से लाभान्वित होता है – सिर्फ पूंजीपति ही नहीं बल्कि विस्तृत नौकरशाही, व्यवस्थापक और विनिमय करने वाला वर्ग भी जिसका जीवन स्तर इस विकास के साथ ऊंचा होता रहता है। यह समूह विकास का वाहक और पेरोकार बना रहता है क्योंकि इससे इसकी समृद्धि और उपभोग के दायरे का विस्तार होता रहता है। दूसरे इसका अनुकरण करते है। इससे अपनी पारी आने का भ्रम बना रहता है।
वैसे समूह जिनके आवास और पारंपरिक रूप से जीवन के आधार वैसे प्रदेश हैं जहां वन हैं, खनिज पदार्थ हैं और ऐसी जल धाराएं जिन्हें बिजली पैदा करने के लिए बांधों से नियंत्रित किया जा रहा है – विस्थापित हो इस उत्पादन पद्धति के पायदान पर डाल दिये जाते हैं। किसानों की उपज को सस्ते दाम पर लेने का प्रयास होता है ताकि इन पर आधारित औद्योगिक उत्पादों की कीमतें कम कर ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। विशाल पैमाने पर होने वाले विस्थापन से श्रम बाजार में काम तलाशने वालों की भीड़ बनी रहती है जिससे श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देना होता है। इस तरह देश के मजदूर और किसान लगातार गरीबी रेखा पर बने रहते हैं। अगर उपभोग की वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है तो ये भूखमरी और कंगाली झेलते हैं। जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं हैं वे लगातार इस प्रयास में लगी रहती हैं कि सस्ते श्रम और संसाधनों के क्षेत्र में पंूजी का प्रवेश निर्बाध बना रहे। जैसे पानी बहकर एक स्तर पर फैल जाता है वैसे ही निर्धनता भी अपना स्तर ढूंढ़ते हुए व्यापक बनती जाती है। श्रमिकों के पलायन से संपन्न क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ना और फिर इससे वहां के मजदूरों के जीवन पर विपरीत प्रभाव और बाहरी श्रमिकों के खिलाफ आक्रोश इसका परिणाम होता है।
महंगाई का मूल कारण
ऊपर के संदर्भ में आज की महंगाई पर भी विचार करने की जरूरत है। महंगाई को आम तौर से आपूर्ति और मंाग से जोड़ा जाता है। यह बाजार के दैनन्दिन के अनुभवों पर आधारित है। लेकिन अब हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि आपूर्ति का संकट स्थायी और वैश्विक बन गया है। इसमें तत्कालिक रूप से कहीं मंदी और कीमतों में गिरावट भले ही दिखे, स्थायी रूप से महंगाई का दबाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बना रहेगा। इसका मूल कारण है हमारी सभ्यता और खासकर पूंजीवादी सभ्यता, जिसका मूल उद्देश्य अविरल मुनाफे के लिए ‘‘उपभोग’’ की वस्तुओं की विविधता और मात्रा का विस्तार करते जाना है। इनके पैमानों के उत्तरोत्तर विस्तार के साथ प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर उन्नीसवीं शताब्दी से ही दबाव बढ़ने लगा है, जबसे औद्योगिक क्रान्ति का असर दुनिया पर पड़ने लगा। इनसे अनेक आवश्यक खनिज जिनमें ऊर्जा के मूल स्त्रोत कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस एवं उत्पादन के ढांचे के लिए आधार तांबा, लोहा एवं अल्युमिनियम आदि के अयस्क इतनी तेजी से खतम होते जा रहे हैं कि इनकी उपलब्धता घटने लगी है और ये दिनों दिन महंगे होते जा रहे हैं। इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर महंगाई का दबाव बनता है। बाहर की किन्हीं तात्कालिक स्थितियों या अचानक ऊर्जा के किसी स्त्रोत के सुलभ होने से कभी-कभी महंगाई से राहत भले ही मिल जाये, ऊपर वर्णित संसाधनों की आपूर्ति का मूल संकट सदा बना रहता है। इससे भी बढ़कर जीवन के लिए अपरिहार्य पेयजल, जो वनस्पति जगत से लेकर सभी जीव और मानव जीवन के लिए अपरिहार्य है, अपर्याप्त होता जा रहा है। इसके खत्म होने का कारण इसका बड़ी मात्रा में उपयोग ही नहीं बल्कि आधुनिक उद्योगों और औद्योगिक आबादियों के कचड़े एवं कृषि में विशाल मात्रा में इस्तेमाल किये जा रहे रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का जलश्रोतों और भूजल में घुलने से हो रहा प्रदूषण भी है। इनका प्रयोग अब जटिल रासायनिक प्रक्रिया से सफाई के बाद ही संभव होता है जिससे यह ये महंगे पण्य की श्रेणी में आ जाते हैं। इसका बोझ गरीब वर्गो के लिए असह्य हो जाता है जो न महंगे बोतलबन्द पानी खरीद सकते हैं न नगरों के भारी पानी के टैक्स का बोझ उठा सकते हैं। अन्न महंगा करने में ये सभी कारक शामिल हो जाते है।
मूल बीमारी औद्योगिक सभ्यता
संसार की बड़ी वित्तीय संस्थाएं इस कोशिश में रहती हैं कि पूंजी का प्रवाह बिना अवरोध के बना रहे और इससे औद्योगिक सभ्यता की मूल बीमारी धीरे-धीरे उन देशों और भू-भागों को भी ग्रसित करती है जो पहले इस औद्योगिक सभ्यता की चपेट में नहीं आये थे। जैसे-जैसे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता घटती है दुनिया के तमाम लोगों पर अपने जल और जमीन को पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के लिए खोलने का दबाव बढ़ता है। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के प्रावधानों का मूल उद्देश्य इसी प्रक्रिया की औपचारक मान्यता का उद्घोष है। इसलिए इस समस्या का निदान एक ऐसी विकेन्द्रित व्यवस्था ही हो सकता है जिसमें लोग स्थानीय संसाधनों के आधार पर सरल जीवन पद्धति अपनायें। यह व्यवस्था समतामूलक ही हो सकती है।
टिप्पणियां
1. ‘पीस रेट’ (Piece Rate) का मतलब है कि एक निश्चित मात्रा में काम करने पर ही निर्धारित मजदूरी दी जाएगी। मजदूरी देने के दो तरीके हो सकते हैं – एक, दिन के हिसाब से मजदूरी दी जाए (डेली वेज रेट) और दो, काम की मात्रा के हिसाब से मजदूरी दी जाए (पीस रेट)। दूसरे तरीके में मजदूरों का शोषण बढ़ जाता है। जो हट्टे-कट्टे जवान होते है, वे पैसे के लालच में अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके एक दिन में ज्यादा काम करते है। जो थोड़ा कमजोर होते है, वे निर्धारित मात्रा में काम नहीं कर पाने के कारण एक दिन की मजदूरी भी नहीं पाते हैं। भारत में मनरेगा की बहुचर्चित योजना में पीस रेट का उपयोग करने के कारण मजदूरों का काफी शोषण हो रहा है। कई बार मजदूरो को एक दिन की मजदूरी 50-60 रू. ही मिल पाती है।
2. कार्ल मार्क्स ने ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ (Primitive Accumulation of Capital)पूंजीवाद के प्रारंभ की उस प्रक्रिया को कहा था, जिसमें 16 वीं से 18 वीं सदी तक बड़े पैमाने पर इंग्लैण्ड के खेतों से किसानों को विस्थापित करके उन्हें ऊनी वस्त्र उद्योग की ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पालने के लिए चरागाहों में बदला गया। इससे औद्योगीकरण में दो तरह से मदद मिली। एक, उद्योगांे को सस्ता कच्चा माल मिला। दो, विस्थापित किसानों से बेरोजगार मजदूरों की सुरक्षित फौज तैयार हुई और उद्योगों को सस्ते मजदूर मिले। सच्चिदानंद सिन्हा कहना चाहते हैं कि यह प्रक्रिया मार्क्स के बताए मुताबिक पूंजीवाद की महज प्राथमिक या प्रारंभिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लगातार चलने वाली पूंजीवाद की अनिवार्य प्रक्रिया है।
3. ‘पण्य’ मार्क्स द्वारा इस्तेमाल की गई अवधारणा Commodity का अनुवाद है। इसका मतलब वे वस्तुएं है जिनकी बाजार में खरीद-फरोख्त होती है। जैसे पानी यदि मुफ्त में उपलब्ध है तो वह पण्य नहीं है। किंतु वह बोतलों में बंद होकर बिकने लगा है तो पण्य बन गया है।
क्या माओवादियों ने चीन के विकास पर ध्यान दिया ? -सच्चिदानन्द सिन्हा
Posted in capitalism, consumerism, corporatisation, displacement, gandhi, globalisation, industralisation, jharkhand, Maoist Ideology, samajwadi janparishad, tribal, tagged 'limitation of maoist ideology', capitalism, gandhi, mao on नवम्बर 1, 2009| 7 Comments »
पिछले भाग से आगे :
वैसे तो यह औद्योगिक व्यवस्था पूंजीवाद द्वारा पैदा की गयी है जिसमें निजी स्वामित्व की प्रधानता है , लेकिन धीरे धीरे उद्योगों का यह ढांचा , जो वृहद कॉर्पोरेशनों के रूप में विकसित हुआ है , पूंजीपतियों के व्यक्तिगत नियन्त्रण से मुक्त हो एक स्वतंत्र स्वरूप धारण करने लगा है और इसका मूल रुझान पूर्ववत श्रम और संसाधनों के शोषण से प्रतिष्ठानों के लिए ज्यादा मुनाफा कमाना होता है । विख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री गालब्रेथ ने विकसित हो रहे स्वायत्त पूंजी के व्यवस्थापकों के इस समूह को ’टेक्नोस्ट्रक्चर’ का नाम दिया था । निजी या सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में इनकी व्यवस्था को चलाने के लिए व्यवस्थापकों और नौकरशाहों का ऐसा ही संवेदनहीन ढांचा तैयार हुआ है जिसका एक मात्र लक्ष्य अपना विस्तार करना और कॉर्पोरेशन के मुनाफे को बढ़ाना भर है । सार्वजनिक क्षेत्र के कॉर्पोरेशन एक अर्थ में जरूर भिन्न होते हैं। इनके मुनाफे पर एक हद तक – जहाँ लोकतंत्र है, जन प्रतिनिधियों का नियन्त्रण होता है । लेकिन इनकी मूल प्रवृत्तियाँ निजी पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से भिन्न नहीं होतीं । और इसी कारण यह भी पूंजीवादी व्यवस्था के फैलाव और संकोच के व्यापार चक्र से बिल्कुल मुक्त नहीं होते । चूँकि बुनियादी तौर से यह निजी प्रतिष्ठानों से भिन्न नहीं होते सरकारें जब चाहें तो विनिवेश द्वारा इनकी पूँजी को निजी क्षेत्र में स्थानान्तरित कर सकती है – जैसा हाल में मनमोहन सिंह सरकार ने एन.टी.पी.सी में किया है ।
समग्र रूप से यह पूंजीवादी कॉर्पोरेटी दुनिया आम आदमियों , विशेष कर आदिवासियों और किसानों के जीवन पर कहर बरसाती है | जिस औपनिवेशिक शोषण के बल पूंजीवाद का विकास हुआ है वह शोषण और भी भयावह होता जा रहा है क्योंकि इस व्यवस्था की संसाधनों की भूख असीम है । इसका सरल सूत्र है – अधिक मुनाफे के लिए अधिक उत्पादन चाहिए और अधिक उत्पादन के लिए अधिक संसाधान यानी अधिक जंगल की कटाई , अधिक खनिजों का खनन , अधिक अन्न और दूसरे कृषिजन्य कच्चे माल । इनके संयन्त्रों के लिए भूमि और सबसे ऊपर व्यापार के लिए परिवहन का तानाबाना चाहिए , ताकि सभी दूरदराज स्थानों को यह ऑक्टोपस (अष्टपाद) की तरह अपनी गिरफ़्त में ले सकें । पिछले दिनों ’स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन ’के नाम पर और सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर एक्सप्रेस वे एवं हाईवे के लिए देश भर में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला चलाया जा रहा है । इन्हीं के खिलाफ़ प्रतिरोध से सिंगूर और नन्दीग्राम की त्रासदीपूर्ण घटनाएं हुई हैं । इसके पहले उड़ीसा , छत्तीसगढ़ और स्वयं झारखण्ड में देशी , विदेशी बड़ी कंपनियों द्वारा आदिवासियों और किसानों की जमीन पर सरकारी बल के सहारे अधिग्रहण के ऐसे प्रयास लगातार होते रहे हैं और जगह जगह इनके खिलाफ़ आन्दोलन होते रहे हैं जिन्हें दबाने की कोशिश भी होती रही है । जहाँ तहाँ माओवादी गतिविधियों में उभार में भी यह जन प्रतिरोध प्रतिबिंबित होता है । जब भारत के प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह “नक्सली हिंसा” को देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बताते हैं तो उनकी चिंता व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए संसाधनों की उपलब्धि की ही है । विश्व बैंक की आर्थिक नीति को देश में लागू करने में अग्रिम भूमिका निभाने वाले हमारे प्रधान मन्त्री का यह रुख स्वाभाविक है ।
लेकिन हमारे माओवादी मित्र भी लगभग वैसे ही दृष्टिकोण के शिकार हैं । अगर उन्होंने माओ के देश चीन पर ध्यान दिया होता तो वे माओवाद की जगह समाज परिवर्तन की किसी वैकल्पिक नीति की तलाश करते । माओ के चीन में आज क्या हो रहा है ? माओ के नेतृत्व में चालीस वर्ष से अधिक तक चलने वाले आन्दोलन – जिसमें अनगिनत लोगों ने अपनी आहुति – का अन्तिम परिणाम क्या हुआ? आज चीन पूंजीवादी विकास और कॉर्पोरेटी व्यवस्था का सबसे सशक्त और निर्मम नमूना है । वहाँ की सालाना विकास दर भारत से भी कहीं ज्यादा है , जो कभी १२ प्रतिशत पार कर गयी थी । लेकिन इसका फायदा वहाँ के नवोदित पूंजीपति वर्ग और व्यवस्थापक वर्ग को मिल रहा है , जिनकी सुविधायें पश्चिमी दुनिया के संपन्नों की बराबरी कर रही हैं । लेकिन आम किसानों और मजदूरों की स्थिति दर्दनाक बनी हुई है । सरकार को उनकी सुरक्षा की चिंता इतनी कम है कि हजारों लोग कोयला खदानों की दुर्घतनाओं में मरते रहते हैं । माओवादी मित्रों को इस पर विचार करना चाहिए कि वे माओ की तर्ज पर खूनी क्रांति में स्वयं अपनी और हजारों दूसरे प्रतिबद्ध लोगों की शहादत से फिर चीन जैसा ही पूंजीवादी ढांचा तैयार करना चाहते हैं क्या ? वैसे ढाचे में तो आदिवासी और किसान वैसे ही विस्थापित होंगे और कुचले जायेंगे जैसे भारत और दुनिया के दूसरे देशों में पूंजीवादी विकास के क्रम में हो रहा है । देंग या कुछ दूसरे व्यक्तियों पर इस “भटकाव” की जवाबदेही डाल हम गंभीर सामाजिक विश्लेषण से बच नहीं सकते ।
समाजवादी जन परिषद बुनियादी तौर से ऐसे विकास को ( भले ही वह समाजवाद के नाम पर हो रहा हो ) नकारती रही है और आगे भी नकारती रहेगी । हमें एक ऐसे वैकल्पिक ढांचे की तलाश जारी रखनी होगी जिसमें मेहनतकशों की स्वायत्तता और व्यवस्था की मानवीयता बनी रहे । हमें स्पष्ट रूप से यह घोषित करना है कि किसानों और आदिवासियों के जीवन पर आघात करने वाली किसी विकास की व्यवस्था को हम स्वीकार नहीं करेंगे । हमें ऐसी छोटी राजकीय और आर्थिक इकाइयाँ विकसित करने की दिशा में पहल करना होगा जिसमें आदमी पूरे अर्थ में स्वतंत्र हो और अपनी व्यवस्था बनाने के लिए उसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हो । खनिजों की खुदाई के लिए किसानों और आदिवासियों के विस्थापन का हम शुरु से विरोध करते रहे हैं। बाल्को के गंधमार्दन में बॉक्साईट खनन का अहिंसक विरोध समता संगठन ( जिसके प्रयासों से बाद में समाजवादी जनपरिषद का निर्माण हुआ ) ने कुछ दूसरे सहयोगी संगठनों के साथ किया था और उसमें एक हद की सफलता भी मिली थी। हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि आगे भी हम सदा ऐसा अहिंसक प्रतिरोध जारी रखेंगे ।
ऐसे अहिंसक संघर्षों की श्रृंखला से ही भविष्य में वह वातावरण तैयार होगा जिसमें एक वैकल्पिक समाज व्यवस्था – जो केन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था और विशाल पूंजीवादी और नौकरशाही शोषण से समाज को मुक्त कर सके – अस्तित्व में आये । समाजवादी जनपरिषद को अपने इस प्रयास में देश के तमाम शोषित लोगों , आदिवासियों , किसानों , मजदूरों एवं बुद्धिजीवियों को शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए । हमें लोगों को सचेत करना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा के अन्धाधुंध दोहन की मुहिम को वर्तमान औद्योगिक विकास और उपभोक्तावादी संस्कृति से अलग कर नहीं देखें । जो लोग आज की विकास प्रक्रिया को तो कबूल करते हैं पर जल , जंगल , और जमीन के कॉर्पोरेटी अधिग्रहण का विरोध करते हैं , वे स्वयं अपने को और तमाम जनता को भ्रम में डालते हैं । दोनों का अनिवार्य संबंध है इस सत्य को हमें उजागर करते रहना है ।
हमारा पिछला राष्ट्रीय सम्मेलन सत्याग्रह आन्दोलन के शताब्दी वर्ष में हुआ था । आज का सम्मेलन “हिन्द स्वराज” के शताब्दी वर्ष में हो रहा है । आज की व्यवस्था के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष के क्रम में विकेन्द्रित ग्राम गणतंत्र की दिशा में समाज को ले जाने के प्रयास में “हिन्द स्वराज” की मूल कल्पना से प्रेरणा मिलेगी यह आशा है ।
– सच्चिदानन्द सिन्हा , धनबाद ,२८ अक्टूबर , २००९ .