योगेन्द्र यादव
समाजशास्त्री
जो लोग आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं. ये वो लोग हैं जो कि हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग को अन्य वर्गों के लिए कुछ भी छोड़ना पड़े, इस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं.
ये वे लोग हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है.
मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं.
हाँ, अगर आप भिन्नताओं की ओर से आँख मूँदना समाज को तोड़ने का एक तयशुदा फ़ार्मूला है.
अगर पिछले 50 साल के अनुभव पर एक मोटी बात कहनी हो तो मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को समाज में एक स्थिति पर लाने का.
सफल कैसे, इसे समझने के लिए इसके उद्देश्य को समझना बहुत ज़रूरी है.
आरक्षण का उद्देश्य
आरक्षण की व्यवस्था पूरे दलित समाज की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है.
कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.
इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है.
आज अगर हम सिविल सेवाओं से लेकर चिकित्सकों, इंजीनियरों के रूप में दलित समाज के कुछ लोगों को देख पा रहे हैं तो इसका श्रेय आरक्षण को जाता है. बल्कि यूँ कह सकते हैं कि अगर यह व्यवस्था नहीं होती तो शायद दलित समाज की स्थिति वर्तमान स्थिति से भी बदतर होती.
वैश्विक रूप से देखें तो दुनिया के जिन देशों में हाशिए पर पड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए जो प्रयोग हुए हैं, भारत में आरक्षण की व्यवस्था उनमें सबसे सफल प्रयोग के रूप में देखा जाएगा और दुनिया के बाकी देश इससे सीख सकते हैं.
चिंता
दिक्कत की बात यह है कि इतने वर्षों तक प्रयोग चलाने के बाद आरक्षण हमारे समाज में सामाजिक न्याय का पर्याय बन गया है. कई मायनों में उसका विकल्प बन गया है. यह दुखद स्थिति है.
यह तो उस तरह है कि कोई सर्जन एक ही कैंची से हर तरह की सर्जरी करे.
असल में आरक्षण एक विशेष स्थिति से निपटने का औजार है और वह विशेष स्थिति यह है कि समाज का जो वर्ग सिर्फ़ पिछड़ा ही नहीं रहा बल्कि जिसे बहिष्कृत किया गया हो, उसे अगर कुछ चुनिंदा कुर्सियों पर बैठाना है तो उन कुर्सियों पर निशान लगाकर उन्हें आरक्षित कर देना एक बेहतर तरीका है.
अब होता यह जा रहा है कि हर वर्ग की समस्याओं के लिए आरक्षण ही एकमात्र विकल्प से रूप में सुझाया जा रहा है. सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग भी इसके बारे में सोचते नहीं हैं और केवल इसके बारे में आरक्षण को ही विकल्प मानते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि हम आरक्षण की व्यवस्था को और उसके इर्द-गिर्द जो ज़रूरतें हैं, उन्हें मज़बूत करें ताकि आरक्षण की व्यवस्था का सही अर्थों में सही लोगों तक लाभ पहुँच सके.
आरक्षण से आगे
आरक्षण सरकारी नौकरियों और राजनीति तक के सीमित क्षेत्र में लाभप्रद रहा है पर और भी मुद्दे हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और उनपर काम होना बाकी है.
इनमें भूमि के बँटवारे की समस्या, शिक्षा में ग़ैर-बराबरी की समस्या और आर्थिक क्षेत्र में ग़ैर बराबरी की समस्या जैसे सवाल आते हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और हम इन सवालों पर कुछ नहीं कर रहे हैं.
जो वर्ग वर्जना और वंचना का शिकार नहीं रहे हैं, जैसे अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं, जैसे महिलाएँ हैं, उनके लिए प्रारंभिक शिक्षा को बेहतर बनाने की ज़रूरत है.
इन वर्गों के लोगों को उससे ऊपर जाने पर जाति आधारित आरक्षण देने की ज़रूरत नहीं है बल्कि हम इसे मापने की कोशिश करें कि उसे किस तरह के पिछड़ेपन से गुज़रा है और उस आधार पर उसे वरीयता दी जाए.
साथ ही आरक्षण की व्यवस्था में कुछ बदलाव भी करने होंगे. जैसे एक पीढ़ी में जो लोग आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं, उनकी दूसरी पीढ़ी को उस स्तर तक इस व्यवस्था का लाभ न मिले.
मसलन, अगर आरक्षण के ज़रिए कोई अध्यापक बन जाता है तो उसकी संतान को अध्यापक बनने तक के प्रयास में आरक्षण का लाभ न मिले. हाँ, अगर वो आईएएस बनना चाहता है तो ज़रूर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहाँ स्थितियाँ दूसरी हो जाएंगी.
साथ ही जो जातियाँ राष्ट्रीय औसत से बेहतर हो चुकी हैं उनके लिए इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए.
(भारत में जारी आरक्षण व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर योगेंद्र यादव ने पाणिनी आनंद के साथ कुछ समय पूर्व हई बातचीत में ये विचार व्यक्त किए थे)
साभार बी बी सी हिन्दी
यही तो दुर्भाग्य है इस देश का कि चन्द मतलोलुप नेताओं और संकीर्ण राजनीति के चलते आरक्षण को सामाजिक न्याय का एकमात्र और अनिवार्य घटक मान लिया गया है। इस भ्रान्ति और दुष्प्रचार से सर्वाधिक हानि भी पिछडे वर्ग (कृपा करके इसे पिछडी जाति मत समझ लीजिएगा) और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य को ही हो रहा है। वंचित वर्गों के लिए विशेष कदम उठाये जाने चाहिए लेकिन वंचितों का निर्धारण उद्देश्यपरक दृष्टिकोण से होना चाहिए नाकि वोटबैंक का साइज़ देखकर। कोई भी जागरुक व्यक्ति सरलता से देख सकता है कि एक ही जाति के अलग-अलग लोगों के शैक्षिक और आर्थिक स्तर में बहुत अंतर है, तथकथित पिछडी जातियों के कई लोग आर्थिक और सामाजिक रुप से बहुत आगे हैं फिर भी बस जाति-विशेष का होने के कारण उन्हें वरीयता देना कहां तक उचित है। मेरे अपने कॉलेज़ में आरक्षित कोटे से प्रवेश पाने वाले छात्रों में भी लगभग सभी संपन्न परिवारों से हैं जिनके पिता आदि बडे सरकारी पदों पर हैं, उनकी शिक्षा भी देश के सबसे महंगे स्कूलों में हुइ है, जबकि सामान्य श्रेणी के कई छात्र ग्रामीण निर्धन परिवारों से हैं। आरक्षित जातियों में भी वास्तविक वंचित तो स्कूलों का मुंह ही नहीं देख पाते, जबकि मलाईदार तबके वालों को ही सारा लाभ मिलता है। आज के युग में जब हमारी पीढी के लोग जाति को असभ्य शब्द मानते हैं और जातिगत पुर्वाग्रह दफनायें जा रहे हैं तो राजनीति के दैत्य जाति के जिन्न को फिर से जिन्दा कर के अपनी दुकान चलाते रहना चाहते हैं। जाति के आधार पर ये भेदभाव समाज को विभाजित रखने की साजिश है, इसका पिछडेपन से कोई लेना देना नहीं है। संसद महिलाओं के लिए कानून क्यों नहीं बना पाइ, गरीबी के खिलाफ कुछ क्यों नहीं करत? दरअसल, गरीबों की कोई जाति नहीं होती जबकी मतों की तो होती है। आरक्षण या सकारात्मक कदम जैसा कोइ भी प्रावधान आर्थिक आधार पर होना चाहिए, जातिगत भेदों पर नहीं
hi,
Reservation is not the proper & stable solution for OBCs, SCs or STs. Poverty doesn’t know any kind of differensiation. If a person belongs to a brahmin or thakur family then it does’t mean that he is very able or rich, may be he needs some financial assistance for his education or employment. Don’t think over it with prejudice. Don’t u think that the way of upliftment of weaker sections is basically wrong and it should be based on the financial condition of a person.
Reservation is not the proper & stable solution for OBCs, SCs or STs. Poverty doesn’t know any kind of discrimination. If a person belongs to a brahmin or thakur family then it does’t mean that he is very capable or rich, may be he needs some financial assistance for his education or employment. Don’t think over it with prejudice. Don’t u think that the way of upliftment of weaker sections is basically wrong and it should be based on the financial condition of a person.
सवर्ण समाज में ही कुछ विभिसन जैसे गद्दार हैं जिनके कंधे पर सवार होकर सवर्णों का ही बुरा किया जा रहा है अब भारतीय प्रजा शक्ति पार्टी आरक्षण विरोधी मुहीम चला रही है आप भी इस मुहीम मर सामिल होकर अपना फ़र्ज़ अदा करें |
’विभिसन’ नहीं विभीषण ! आरक्षण विरोधियों अयोग्यता की द्योतक वर्तनी !
B
how can a buddy having 33% ability serve country better tahan a able person who is having 100% ability ?
do you like to take treatment from a doctor which is come through only reservetion . see around you why these kind of doctors not getting good prectise in a open market. my friend india need 100% able indian who take india in world stage in this comptative time.
हीनता की ग्रन्थि से उबरो । अशुद्ध अंग्रेजी की बजाए अशुद्ध हिन्दी में लिखो । १०० प्रतिशत ’क्षमता ’ प्रकट है ,भाषा में ।
[…] ‘आरक्षण की व्यवस्था एक सफल प्रयोग है… […]
reservation must be given on the basis of financially condition
@ अमित तोमर , आरक्षण वित्तीय स्थिति के सुधार का कार्यक्रम नहीं है इसलिए वित्तीय आधार पर नहीं दिया जाता। यह सामाजिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का कार्यक्रम है इसलिए सामाजिक आधार पर दिया जाता है ।
आरक्षण के बारे में मैंने एक बात पढ़ी हें व तथा जो मुझे याद हें वों यह हें कि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने अपने अंतिम समय में शायद यह कहा था की मुझे सबसे ज्यादा धोखा उस पढ़े लिखे लोगो ने दिया हें जिन्होंने आरक्षण का फायदा उढा लिया व अब उस कमजोर समाज का साथ नहीं देते. वों पढ़ा लिखा समाज कोनसा, केसा हें? तथा एसा आखिर वह क्यों कर रहा हें ? क्या आप जान सकतें हें !
मैं यंहा यह कहना चाहता हूँ की जब एक व्यक्ति पढ़ लिख जाता हें तथा जेसे ही व्यवसाय व नोकरी से उसके पास पैसा आता हें तब उसमे भोतिकवाद व उपभोक्तावाद का आकर्षण उत्पन हों जाता हें, इस अवस्था में उसकी जाती में या जाती के बाहर ज्यादा पैसेवालो से सम्बन्ध मजबूत हों जाते हें तथा गरीब से प्राय खत्म हों जातें हें. कारण शायद आप सहमत न भी होंगे पर मुझे यह लगता हें कि “प्राय यंहा पर जाती तो रहती ही हें उसके साथ ही वर्ग चरित्र बदल जाता हें” . वह इंसान अपनी जाती का सरकारी काम में फायदा उठालेगा, मगर वह अपनी जाती के अदर ऊँचे ओह्देवाले से ही संपर्क रखेगा तथा उसके साथ ही फिर अन्य जाती के आमिर व्यक्ति से भी संपर्क रखेगा. यह उसका दोहरा चरित्र हें . वही इंसान जन्हा से उठकर आया उसका हाल भूल क्यों जाता हें? जवाब दे सकते हें ?
एसी अवस्था में वर्ग व जाती के आधार पर लड़ाई लड़ना बहुत जरुरी हों जाता हें तथा हमें जाती व वर्ग का चरित्र भी समज लिया जाना चाहिए. अगर हम वास्तव में समाज का नव निर्माण करना चाहते हें तो!
जब तक कि जाती व वर्ग का चरित्र नहीं समज लिया जाता तब तक हमारा संघर्ष दिशाहीन होंगा . जिस तरह वर्ग कि एकता जरुरी हें उसी तरह से जाती कि एकता भी जरुरी हों जाती हें, यंहा पर जाती आपको जन उन्मुख लगेगी ,जरा इसी द्रष्टिकोण से हम देखें तो सही ! रास्ता यही हें .दुसरा रास्ता भटकाव व हताशा के आलावा कुच्छ नहीं.
naan aflatoon rakh lene se har koi vaise hi aflatoon nahin ho sakta jaise ghoda naam rakhne se gadha ghoda nahin ho sakta.
आरक्षण की व्यवस्था जिस वर्ग के उत्थान को की गयी थी आज उसी वर्ग में एक नया वर्ग बन चुका है। और यही नया वर्ग आज सही मायनों में आरक्षण का लाभ पा रहा है न कि योग्य।
axe नाम रख लेने से आप कुल्हाडी हो जाते !
[…] ‘आरक्षण की व्यवस्था एक सफल प्रयोग है… […]
अफ़लातून जी,
अब तो जातिगत घृणा कम से कम सार्वजनिक स्तर पर बहुत घटी है या नहीं के बराबर है। सम्भव है कई जगहों पर अब भी यह बरकरार हो लेकिन मेरे खयाल से आरक्षण की व्यवस्था जब दी गयी थी तब बेहतर थी लेकिन अब उसका आधार निश्चित तौर पर आर्थिक ही होना चाहिए क्योंकि आप चाहें तो देख सकते हैं ऊँची जाति के लोगों के साथ भी जमकर अन्याय हो रहा है। जैसे यह आधार बिलकुल पचने लायक नहीं है कि इस विधान सभा सीट पर इस जाति का उम्मीदवार ही चुनाव लड़ेगा जैसा कि अभी होता है, कम से कम बिहार में पक्का होता है। यह लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है। किसी इलाके के लिए हम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि इस जाति विशेष के लोग ही चुनाव लड़ सकते हैं। मैं समझता हूँ अब आरक्षण का आधार आर्थिक ही होना चाहिए। …बाकी आप बताएँ तो बेहतर होगा। लेकिन ईमेल से क्योंकि आवश्यक नहीं कि मैं यहाँ इसी लेख पर आकर देख सकूँ। जैसे एक्स को आपने कहा है लेकिन वह बेकार चला गया क्योंकि वह आपने एक्स के कहने के 14-15 दिन बाद कहा है और एक्स ने देखा नहीं होगा।
आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान की विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभप्रद के रूप में देखता है. सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने और/या बढाने का समर्थन करती हैं. आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी हैं. गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है.
हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कम करती हैं लेकिन फिर भी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं काम कर रही हैं. हार्वर्ड विश्वविद्याल में हुए शोध के अनुसार सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं सुविधाहीन लोगों के लिए लाभप्रद साबित हुई हैं.[22] अध्ययनों के अनुसार गोरों की तुलना में कम परीक्षण अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले कालों ने स्नातक के बाद उल्लेखनीय सफलता हासिल की. अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में उन्होंने समान श्रेणी में उन्नत डिग्री अर्जित की हैं. यहां तक कि वे एक ही संस्थाओं से कानून, व्यापार और औषधि में व्यावसायिक डिग्री प्राप्त करने में गोरों की तुलना में जरा अधिक होनहार रहे हैं. वे नागरिक और सामुदायिक गतिविधियों में अपने गोरे सहपाठियों से अधिक सक्रिय हुए हैं.[23]
हालांकि आरक्षण योजनाओं से शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है लेकिन विकास करने में और विश्व के प्रमुख उद्योगों में शीर्ष पदों आसीन होने में, अगर सबको नहीं भी तो कमजोर और/या कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अनेक लोगों को सकारात्मक कार्रवाई से मदद मिली है. (तमिलनाडु पर अनुभाग देखें) शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण एकमात्र समाधान नहीं है, यह सिर्फ कई समाधानों में से एक है. आरक्षण कम प्रतिनिधित्व जाति समूहों का अब तक का प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाला एक साधन है और इस तरह परिसर में विविधता में वृद्धि करता है.
हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है. आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा. (लगभग 60% भारतीय आबादी गांवों में रहती है)
आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है. प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की “इच्छा” है. अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आपमें मानव जाति से अलगाववाद है. अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है.
आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता (meritrocracy) और योग्यता की चिंता है. लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है. पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाय या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाय. उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं. आरक्षण या “प्रतिभावादिता” की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया. आरक्षण ने केवल “अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने” की प्रक्रिया को धीमा किया है. चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं. जापान में, हर कोई बहुत अधित योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है. इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं.
band kar do aarakachan
mera ishi karan ache clg me admisson nahi ho paya clg m to kam s kam band kar do
गरीबी हटाओ आन्दोलन नहीं है आरक्षण आरक्षण को समझने के लिए आरक्षण का इतिहास भी झाक लेना जरुरी है | आरक्षण की शुरूआती मांग हुई थी 1891 में | उस समय भारत में अंग्रेज राज करते थे | अंग्रेज सरकार ने कई नौकरियां निकलवाई थी लेकिन भर्ती प्रक्रिया में भारतीयों से भेदभाव के चलते सिर्फ अंग्रेजो को ही नौकरी दी जाती थी, और काबिल भारतीय नौकरी से वंचित रह जाते थे | भारतीयों ने नौकरी में आरक्षण के लिए आन्दोलन किया | भारतीयों का नौकरी में आरक्षण का आंदोलन सफल रहा और हमारे कई भाइयो को इसका फायदा हुआ | आजादी के बाद कई लोगो को इस बात का यकीं था की पिछडो के साथ भेदभाव के चलते उन्हें नौकरियों में काबिल होने के बावजूद जगह नहीं दी जाएगी, क्योकि जितना भेदभाव अंग्रेज भारतीयों से करते थे उससे कही ज्यादा भेदभाव भारतीय पिछड़ी जाती के लोगो से करते है | सवाल यह उठता है की क्या पिछड़ी जातियों के साथ भेदभाव ख़त्म हो गया है ? जवाब है नहीं | Being Indian Group ने एक सर्वे किया, जिससे पता चला की जहा गावो में यह भेदभाव स्पष्ट रूप से मौजूद है वाही शहरों में यह अदृश्य और अप्रत्यक्ष रूप से जिन्दा है वैसे दुनिया के कई देशो में आरक्षण है, पर इसका नाम अलग-अलग है | जैसे अफर्मेटिव एक्शन और पोसिटिव डिस्क्रिमिनेशन | एक बात और हमारे संविधान निर्माताओ ने आरक्षण सिर्फ ST(7%) और SC(15%) के लिए ही रखा था | लेकिन आजादी के 43 साल बाद 1990 में आए मंडल आयोग में OBC के लिए 27% आरक्षण कर दिया | आज भी देश के कायर लोग और नेता OBC का नाम लेने से डरते है, क्योकि सक्षम जातीया है भाई, आग लगा देगी | जैसे हरियाणा में लगा दी