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सरकार प्रसन्न,
घोड़ा सन्न ,
कि घोड़े से तेज दौड़ता है –
कागज का घोड़ा .
– राजेन्द्र राजन
कवि मित्र राजेन्द्र राजन की यह छोटी-सी कविता उनकी ‘घोड़ा’ – सिरीज़ से ली गई है । कई अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया प्रतिष्ठानों द्वारा ब्लॉगों के ‘घुड़साल’ या अस्तबल शुरु किए जाने की सूचना पाने के बाद से इसका बार-बार याद आना लाजमी है । अस्तबल शब्द शायद अंग्रेजी के stable से पहले गढ़ा गया होगा , ध्वनि और तवारीख के लिहाज से लगता है । विलायत में घोड़े पहुँचे ही कब ?
अपने देश में हम जैसे दिल्ली के अखबारों और चैनलों को राष्ट्रीय चैनल और दिल्ली के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय बुद्धिजीवी मान लेते हैं उसी गणित से अमेरिकी हफ़िंग्टन पोस्ट या इग्लैंड के गार्जियन अखबार का ‘कमेन्ट इज़ फ़्री’ जैसे चिट्ठों के अस्तबलों को अन्तर्राष्ट्रीय चिट्ठा-घुड़साल मानना होगा । साइबर जगत के ‘ऑस्कर’ कहे जाने वाले पुरस्कार(इन वेब्बी पुरस्कारों पर फिर कभी) इन्हें मिलेते रहे हैं । इन मीडिया – चिट्ठों की सामग्री तय करने में अखबार के स्थापित स्तंभकारों के अलावा कुछ चर्चित चिट्ठेकार भी चुने जाते हैं । गार्जियन के अस्तबल की शुरुआत में अखबार के चार वरिष्ठ सम्पादकीय स्टाफ़ को जिम्मा दिया गया कि वे चिट्ठे और अखबार के बीच तालमेल बैठाने का काम करें । गार्जियन अनलिमिटेड की मुख्य सम्पादक एमिली बेल और ज्यॉर्जिना हेनरी इस परियोजना की शुरुआत से जुड़ी रहीं । एमिली बताती हैं ,’ गत वर्ष मार्च महीने(२००६) में मैंने इस काम को शुरु किया। दो महीने बीतते-बीतते पेशेवर स्तंभकारों और चिट्ठेकारों (जिन्हे मैं लिखने के लिए चुनती थी) के सन्दर्भ में मुझे अपना नजरिया बदलना पड़ा । ये चिट्ठेकार मुझे अत्यन्त बहुश्रुत और पाण्डित्यपूर्ण लगे ।’ इन चिट्ठेकारों द्वारा बिना मेहनताना लिए अपनी रुचि के विषयों पर बहस शुरु करने की ललक देख कर एमिली अचरज में पड़ जाती हैं । हांलाकि प्रतिदिन चुने गये टिप्पणीकारों और अखबार द्वारा निमंत्रित टिप्पणीकर्ताओं को धन भी दिया जाता है।
चिट्ठे चुनने का क्रम हिन्दी में भी शुरु हुआ है , फिलहाल बिना ईनाम।यहाँ यह शुरु करने वाले चिट्ठे शशि cum(या कम ?) अस्तबल ज्यादा लोकमंच हैं। इस प्रयोग(गार्जियन वाले) से जुड़े रसब्रिजर कहते हैं , ‘हमने जो प्रयोग किया है वह पहले किसी अखबार ने न किया होगा – दरमाह पाने वाले स्थापित प्रभु-स्तंभकारों को हम उसी अखाड़े में उतारते हैं जहाँ बिना पैसों के लिखने वाले हैं।पेशेवर पत्रकारिता क्या है और क्या नहीं , और दोनों एक ही अखाड़े में कैसे चलेंगे यह हम इस प्रयोग के दौरान तय करेंगे।’
बहरहाल इस स्थापित मीडिया समूह ( गार्जियन) को अपने अस्तबलों से जो मिला है उस पर गौर करें : ५०,००० पाठक टिप्पणियाँ और मासिक बीस लाख देखने वाले । एमिली बताती है कि हफ़िग्टन पोस्ट नौ महीने में ५०० चिट्ठेकारों को जोड़ सका था,हमने यह संख्या दो महीने में हासिल कर ली । एमिली का कहना है , ‘ हर युवा पत्रकार को चिट्ठेकारी पर हाथ आजमाना चाहिए ।’ यहाँ हाथ आजमाना शुरु करते न करते मुक्ति का बोध होने लगता है।
इस माध्यम (चिट्ठाकारी) में सबसे जरूरी है पारदर्शिता । कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ते वक्त यदि स्रोतों का जानबूझकर जिक्र न हो या अथवा किसी के अन्य स्थलों पर लिखे गये बयानों को ऐसे जोड़ देने से मानो वे बयान भी वहीं दिये गये हों बवेला ज्यादा होता है । – ऐसे में चिट्ठालोक में विश्वसनीयता ज्यादा तेजी से लुप्त हो जाती है और लुप्त हो जाते हैं पाठक । हाल ही में प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेता ज्यॉर्ज क्लूनी के सी.एन.एन के चर्चित कार्यक्रम लैरी किंग लाइव तथा गार्जियन को दिये गये साक्षात्कारों को हफ़िंग्टन पोस्ट के मोहल्ले अस्तबल पर क्लूनी की चिट्ठा प्रविष्टि के तौर पर छापने पर विश्वसनीयता का सवाल उभर कर आया था। इस प्रविष्टि के साथ मूल स्रोत का जिक्र नहीं था।क्लूनी को कहना पड़ा , ‘मैं उन बयानों पर कायम हूँ लेकिन यह चिट्ठा मैंने नहीं लिखा । सुश्री हफ़िंग्टन ने मेरे पूर्व के साक्षात्कारों से सामग्री लेने की अनुमति भी मुझसे ली थी।मुझसे उन्होंने सिर्फ़ मेरे उत्तरों को(प्रश्न हटा कर) सम्मिलित करने की अनुमति नहीं ली थी और इसी कारण पाठकों को यह लग रहा है कि यह मेरा लेख है।मुझसे पूछे गए सवालों के जवाबों और मेरे मौलिक लेख में अन्तर होगा ही ।’
टेलिविजन ,अखबार या रेडियो फोन कम्पनियों से व्यावसायिक सौदा तय कर के चाहे जितने पूर्व-निर्धारित, निश्चित विकल्पों वाले एस.एम.एस. प्राप्त कर लें और उन्हें फ़ीडबैक की संज्ञा दें , इन माध्यमों में संवाद मोटे तौर पर एकतरफा ही होता है । संजाल पर परस्पर होने वाले संवाद की श्रेष्ठता इन सब पर भारी है । ऐसे में अन्य माध्यमों द्वारा संजाल पर हाथ आजमाने को जरूर बढ़ावा दिया जायेगा ।
फिर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया हस्तियाँ अपने कारिन्दों को अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया समूहों की नकल करने के लिए प्रोत्साहित ही करेंगी अथवा नहीं ? क्योंकि कागजी घोड़ों से भी तेज होता है साइबर घोड़ा ।
इस प्रकार के लेख पढ़ कर अच्छा लग रहा है, आप अफ्लातुन ही है ना ? 🙂
आपने आसन्न खतरे को बहुत जल्दी और सही भांप लिया है . भारतीय और हिंदी चिट्ठा-जगत पर भी ये बादल मंडराएंगे ही . यहां के मीडिया प्रतिष्ठान भी ऐसे अस्तबल शुरु करने का प्रयास कर रहे होंगे . क्या पता शुरु कर भी दिये हों . पर इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निश्चित रूप से संकुचित होगी . उसे निर्दिष्ट मोड़ देने के भी संस्थागत और सामूहिक प्रयास होंगे . इससे सावधान रहने की ज़रूरत है .
विचारशील मनुष्य की तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकें तो सर्वोत्तम है . और अगर साइबर घोड़ा बनना ही हमारी नियति हो तो हमें इस आभासी और आकाशी वन में दुलकी चाल में चलने वाला और निर्द्वंद विचरण करने वाला स्वतंत्र घोड़ा होना चाहिए मीडिया प्रतिष्ठान की सवारी ढोने वाला लद्दू घोड़ा नहीं .
वाह! बहुत बढ़िया। आपने सही नब्ज पकड़ी है। भारतीय मीडिया के कर्णधारों को अपनी प्रासंगिकता और विश्वसनीयता खोने और का डर सता तो रहा है और हो सकता है कि कभी-कभी उनका ज़मीर भी उन्हें अकेले में जन सरोकारों से कट जाने की विवशता पर कचोटता हो, लेकिन अभी भी वे स्वतंत्र चिट्ठाकारों की आवाज को मुख्यधारा में स्पेस देने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं।
टी.आर.पी. और विज्ञापन जुटाने के लिए वे राखी सावंत और मल्लिका शेरावत को दिखाएंगे और जब ज्वलंत मुद्दों पर बहस कहने की बात आएगी तो भाड़े पर कुछ सुविधाजीवी और ‘आइडेंडिटी क्रेजी’ विशेषज्ञों एवं बुद्धिजीवियों को बुलाकर उनके बीच प्रायोजित मुकाबला भी करा देंगे, लेकिन जागरूक जनता की स्वतंत्र मुखर आवाज करने वाले चिट्ठाकारों को निष्पक्ष ढंग से अपनी बात कहने का स्पेस नहीं देंगे।
भारतीय मीडिया को अभी अमेरिका एवं यूरोप के मीडिया जगत जैसी समझदारी और परिपक्वता हासिल करने में लंबा वक्त लगेगा। अभी तो यहां पत्रकारों के वेश में अधिकतर दलाल, एजेंट और चाकर ही छाए हुए हैं।
आपने खूब बेहतर लिखा है। मजा आ गया ब्लॉग की रेटिंग होने का मतबल है कि टीआरपी जैसी लड़ाई जबकि बेहतर चीजें खोजकर लिखना समाज के लिए ज्यादा अच्छा होगा। मैं सृजनशिल्पी जी से सहमत हूं कि फिर यहां लेखन में आइटम ही आइटम मौजूद रहेंगे। सामग्री का दर्जा भी गिर सकता है टीआरपी पाने के चक्कर में। हो सकता है मेरा जैसा आदमी जो आर्थिक मामलों पर लिखता रहे और कभी टीआरपी में जगह न पा सके क्योंकि बोरियत लगती है इसे पढ़ने में अधिकतर लोगों को। कुछ श्रेष्ठ रचनाओं जैसे पुरस्कार दिए जाने चाहिएं भले ही वे बगैर पैसे के हों। लेकिन कोई अवार्ड चालू करना चाहता हो तो हर महीने मैं एक हजार रुपए दे सकता हूं।
बहुत अच्छा लिखा है। दरअसल मीडिया वाले अब इसमे कमाई की गुंजाइश देखकर आकर्षित हो रहे है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ब्लॉग पर गंध नही लिखा जा सकता। मीडिया हाउस इस बात से परेशान हो रहे है कि उनके ब्लॉग को कोई पूछ क्यों नही रहा, जबकि विषय तो वे भड़काऊ उठा रहे है, लेकिन शायद अभी भी मीडिया वाले साथी हिन्दी ब्लॉगिंग की नब्ज को नही पकड़ सकें है। और ऐसे काम करते हुए शायद पकड़ भी नही सकेंगे।
सबसे बड़ी बात, अभी हम सभी चिट्ठाकार इसे सिर्फ़ शौंक बनाए हुए है, हम स्थापित लेखक नही है और ना ही चर्चित पत्रकार, लेकिन फिर भी विषय आधारित लेख लिखने मे हम ज्यादा पाठक बटोरेंगे क्योंकि हम सनसनी नही परोसते।
मेरा तो सभी चिट्ठाकारों से यही निवेदन है, कि अपनी मस्ती से लिखें। बिना किसी लाग-लपेट के, लेकिन हाँ लेख सही तथ्यों पर आधारित हो, पहचान मिलनी तय है। आज नही तो कल, दुनिया आपको ढूंढ ही लेगी। लेकिन हाँ अस्तबल वाले घोड़े मत बनना, निष्पक्ष, निर्भीक लेखन ही ब्लॉगिंग की पहचान होनी चाहिए।
बहुत अच्छा व सटीक लिखा है आपने । पढ़कर अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
बढ़िया लिखा है। अच्छा लगा पढ़कर। देरी से पढ़ने का अफसोस हुआ।
हमने तो अनूप से भी देर से पढ़ा और उसी अनुपात में और अणिक अफसोस हुआ कि इतनी देर से क्यों पढ़ा।
ये लेख चिट्ठा स्मृति में बहुत दूर तक जाएगा, ऐसा मुझे लगता है।
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