संजय बेंगाणी के चिट्ठे पर टिप्पणी
गांधी की निन्दा अवश्य करें लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखें :
अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग’ कहने वाला यह कहता था कि चूंकि यह प्रयोग है इसलिए यदि मेरे विचारों में एक विषय पर दो परस्पर विरोधी बातें मिलें तो बाद वाली को सही मानना.
जैसे जाति प्रथा के बारे में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ,खास तौर पर पुणे में बाबासाहब से उपवास के दौरान हुई चर्चा के बाद.दोनों महापुरुषों ने एक दूसरे को समझने की पूरी कोशिश की.
‘४६,’४७ आते आते गांधी ने नियम बना लिया कि सवर्ण-अवर्ण शादी न हुई तो शरीक नहीं हूंगा.
सेक्स और गुस्से के बारे में शायद कुछ सामने आता अगर ,लोहिया जिसे ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ के द्वन्द्व की घटना मानते थे – वह न होता.यानि हाफ़ पैंट वालों के हिसाब से-‘गांधी-वध’.
सरदार ने विभाजन का प्रस्ताव नहीं माना,या मानने की जल्दीबाजी नहीं दिखाई -यह एक प्रचार है.अंग्रेजों ने १२ मोटे-मोटे खण्डों में सत्ता हस्तांतरण के तमाम दस्तावेजों को प्रकाशित किया है,खूफ़िया रपटों सहित, उनमें झांका जा सकता है.
गांधी के किसी पुत्र ने उनकी मदद से कुछ हासिल नहीं किया.
नेहरू -गांधी दृष्टिभेद पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुख्यधारा की सामयिक राजनीति नेहरू के साथ ही गिनी जाएगी.
पढाई से भागना अच्छा गुण नहीं है.
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