दिसम्बर २००३ में साइबर कैफ़े में बैठ कर Anti MNC Forum नामक अंग्रेजी चिट्ठा बनाया । राजनैतिक विचारधारा के अनुकूल संजाल पर जो पढ़ता था उस चिट्ठे पर डाल देता था । कुछ अंग्रेजी के लेख और एकाध हिन्दी से अंग्रेजी तर्जुमे भी उसमें थे । उड़ीसा में बॉक्साइट खनन के विरुद्ध चल रहे जनान्दोलन के समर्थन में ट्राइपॉड पर एक ‘मुफ़्त-जाल स्थल’ बनाया Kashipur Solidarity , आन्दोलनकारियों ने सराहा ।
फुरसतिया को पढ़कर उन से ई-मेल पर सम्पर्क किया, नवम्बर २००५ में। वे मेरे छात्र-जीवन के मित्र निकले । अनूप ने मेरे राष्ट्रभाषा प्रेम को ललकारा । अब मुख्य तौर पर तीन हिन्दी चिट्ठों पर ही लिखता हूँ ।
जिनके घरों या दफ़्तर में कम्प्यूटर नहीं है उनके बीच हिन्दी चिट्ठेकारी का प्रचार होने के बाद संजाल पर हिन्दी का विस्तार होगा तथा यह वैकल्पिक मीडिया संसाधन बन सकेगी । विकल्प के बारे में जो सपना है वह विकेन्द्रीकरण और सहकारिता का है। चिट्ठेकारी में विकेन्द्रीकरण तो है ही क्योंकि जैसे स्वतंत्र, स्वाश्रयी ग्राम-गणतंत्रों के संघ की कल्पना गाँधीजी ने की थी वैसे ही स्वतंत्र , स्वाश्रयी एक-एक चिट्ठे हैं । नारद , अक्षरग्राम , परिचर्चा और निरन्तर में सहकारिता का अक्स साफ़-साफ़ दिखता है । जिन विषयों को सत्ता और पूँजी केन्द्रित मीडिया अनदेखी करती है या विकृतियाँ फैलाती है उन पर सही सोच के साथ वैकल्पिक मीडिया में पर्याप्त तरजीह दी जाएगी,मुझे उम्मीद है ।आशा है कि चिट्ठाकारिता चिट्ठेबाजी नहीं बनेगी । पत्रकारिता के छीजन से बच कर चिट्ठाकारिता पुष्ट होगी ।
संजाल पर हिन्दी पढ़ने-लिखने का प्रचार अभी तक ई-मेल द्वारा ही किया है । इस क्रम में मैंने पाया कि इसके सरल उपायों को सुनने और लागू करने का धीरज कई विद्वान नहीं रखते । एक अति-उत्साही अंग्रेजी-दाँ ने मेरे ओर्कुट के पन्ने पर यह निपटा – ‘ Hindi on internet ? Impossible . ‘ एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री ने राजेन्द्र राजन की कविता को PDF में बदल कर भेजने का निवेदन किया । एक महामहिम को रोमन लिपि में हिन्दी पढ़ने-लिखने के निर्देश भेजे,उसके बाद से ‘अन्तराल’ है ।चैट और ओर्कुट किस्म की चिरकुटई से उबारने के लिए साइबर कैफ़े,स्कूल – कॉलेजों में जा कर हिन्दी चिट्ठेकारों को प्रशिक्षण शिबिर लगाने होंगे ।
चिट्ठेकारी से आए व्यक्तिगत परिवर्तन :
मेरी पत्नी डॉ. स्वाति और बेटी प्योली को लगता है कि चिट्ठेकारी और चिट्ठे पर पत्रकारीय लेखन के कारण मेरे अन्य राजनैतिक काम प्रभावित हो रहे हैं । दोनों मेरे राजनैतिक साथी भी हैं ।
मेरे साथियों को लगता है कि संजाल का पाठक-वर्ग अभिजात्य है ।हाल में मेरे प्रिय साथी मक़सूद अली ने मेरी पत्नी से पूछा मैं उनके वॉर्ड में कम क्यों आ रहा हूँ ।उन्होंने मक़सूद भाई को बताया कि मैं चिट्ठे पर क्या-क्या लिख रहा हूँ या डाल रहा हूँ । उनका तुरन्त जवाब आया,’अख़बार में लिखते तो हम भी पढ़ते ।’
मक़सूद भाई : जरदोज़ फ़नकार: सदस्य राष्ट्रीय कार्यकारिणी,समाजवादी जनपरिषद
मैं पहले भी लिखता था । छपता भी था । उसका एक बड़ा पाठक-वर्ग था । सर्वोदय प्रेस सर्विस ( इन्दौर स्थित फ़ीचर सेवा ) द्वारा जारी एक-एक लेख ३० – ४० छोटे – बड़े अखबारों में छपता और उसकी कतरनें मिलतीं तो बड़ी खुशी होती।इन में चेन्नै , हैदराबाद ,गोहाटी , सूरत जैसे गैर हिन्दी प्रदेशों के अखबार भी होते थे ।
राजनीति में प्रेस वक्तव्य , परचे ,रपट और पुस्तिकाएं लिखी हैं ।बयान न छपने पर ‘मारकण्डेय सिंह के सिद्धन्त’ के तहत सन्तोष करना सीखा । ‘७० के दशक में काशी विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष रहे और लोकबन्धु राजनारायण के निकट सहकर्मी मारर्ण्डेय सिंहजी का कहना है कि न छ्पने वाले वक्तव्य भी डेस्क पर तो जरूर पढ़े जाते हैं ।
मारकण्डेय सिंह,पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष काशी विश्वविद्यालय
अब मुख्यधारा के विकल्प के बारे में सोचना शुरु करने के पीछे कैसे कारण हैं,कुछ नमूने सुनिए। बनारस के निकट मेंहदीगंज स्थित कोका-कोला संयंत्र द्वारा जल-दोहन के खिलाफ़ चले आन्दोलन के शुरुआती दौर में स्थानीय अखबारों से लगायत रायटर और याहू-न्यूज से खबरें आती थीं। फिर कम्पनी के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अफसरों ने बनारस के पाँच सितारा होटल में स्थानीय सम्पादकों की बैठकें-पारटियाँ आयोजित करनी शुरु की । ‘कोका-कोला पीओ, — पढ़ो’ जैसे अभियान चले , वहीं मलयालम अखबार मातृभूमि ने तय किया कि पेप्सी-कोक के विज्ञापन नहीं लेंगे और इसका ऐलान अपने सम्पादकीय में किया। इन सब का हवाला दे कर मैंने एक लेख लिखा,यह ‘हिन्दुस्तान’ के सम्पादकीय पृष्ट पर छपा। कुछ भाई स्थानीय सम्पादक को वह लेख दिखा भी आए। लेख में उनका हवाला बिना नाम के था। दिल्ली जा कर उन्होंने रोया-गाया । फिर पूरे समूह को करीब दो करोड़ रुपये का विज्ञापन कम्पनी से दिलाया । अब (तीन साल बाद) स्थिति यह है कि मृणाल पाण्डे अपने लेख में लिखती हैं , ‘ वैश्वीकरण विरोधी विधवा-विलाप बन्द करें’।
बहरहाल, मुझे लगता है कि इस दौर में लिख-लिख कर एक पाठक वर्ग बनाना बहुत जरूरी काम हो गया है ।
एक फ़ीचर सेवा ने निजी जेल कम्पनियों वाले लेख को जारी करने की अनुमति ली, सन्तोष हुआ । उनके फ़ीचर २०० अखबारों के पास जाते हैं ।
चिट्ठेकारी से प्रेम को समझने के लिए इस कविता(२३ नवम्बर,’८१) को पढ़ें।पाठक ‘कविता’ की जगह ‘चिट्ठा’ मान सकते हैं ।
कविता से प्रेम है,
इसका सबूत है-
कविता का मरहमी प्रेम
तुम्हारे प्रति ।
कविता को देते हो तुम उसका रूप-
उसकी चाल यदि,
समझने की कोशिश करते हो
उसका भेद
उसका ताल कभी,
तो कविता भी तुम्हे देती है-
ताल-भरी चाल
चाल-भरा ताल (अपना)।
और तुकबन्दियाँ ऐसी ही ।
कविता से प्यार में-
औरों से प्यार
दीखता है साफ़-साफ़ तो,
यह प्यार की कमजोरी नहीं
मजबूती है ।
कमजोरी है-
कविता को,
प्यार को ,
अघोषित काले पैसे की तरह-
दबाने में, छिपाने में ।
पसन्दीदा टिप्पणीकार
कुछ लोग टिपियाते हैं, कुछ निपटते हैं और कुछ टिप्पणी देते हैं । मुझे सब प्रिय हैं।
अपने खेत में चाँद छाप यूरिया के ‘चाँद चाचा अनुभवी किसान’ की तरह गंभीरता से खेती करने वाले दूसरे के खेतों में ‘ यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो’ स्टाइल में टिपियाते हैं ।
अपने खेतों में जो निपटते हैं,वे दूसरे के खेतॊं में भी जैविक खाद छोड़ने के माहिर हैं । इस श्रेणी के पसन्दीदा लोगों का नाम नहीं देना चाहिए।
टिप्पणीकार रचनाकार के गोत्र के होते हैं।नामवर द्वारा काशी पर टिप्पणी करने वालों की जमात को इन में से घटा दीजिए।इनमें प्रियंकर और सृजन शिल्पी हैं ।
इन सब श्रेणियों के लोग मुझे प्रिय हैं । सभी श्रेणियों में पसन्दीदा की शिनाख्त भी आसान है। लेकिन मेरे दो पसन्दीदा टिप्पणीकार ‘पानी के बताशे’ वाले अनुराग श्रीवास्तव और अनुनाद सिंह जिनकी गम्भीर टिप्पणियाँ पत्र पेटिका में प्राप्त होती है।
चिट्ठेकारों की अन्तरंग बातें , जो जानना चाहूँगा
मैं जो जानना चाहता हूँ,वह अन्तरंग नहीं है ।‘ संस्कार’ और ‘दीक्षा’ की बात है । ‘हिन्दू जागरण के अमिताभ त्रिपाठी से जानना चाहूँगा कि वे ITC हैं या OTC ? यदि OTC हैं तो किस स्तर के ?
इसके साथ ही मैथिलीजी से जानना चाहूँगा कि ऐसा क्या समान दिखा कि आपने लोकमंच के साथ ,एक ही साँस में मेरे चिट्ठे को भी पसन्द किया?
पिक्चर
स्कूल में पिक्चर दिखाई जाती थीं । फ़ीचर फ़िल्में और वृत्तचित्र भी ।वृत्तचित्रों को ‘ डाकू मंत्री ‘ ( docu_mentary) कह कर साथियों को भ्रमित भी करने की कोशिश की जाती थी । अब तो मेघनाद और आनन्द पटवर्धन जैसे फ़िल्मकारों के वृत्त चित्र ज्यादातर फ़ीचर फ़िल्मों से बेहतर लगते हैं ।स्कूल वाले कभी-कभी शहर के हॉल में भी ले जाते थे । स्कूल से निकलकर एक साल भारतीय सांख्यिकीय संस्थान (Indian Statistical Institute), कोलकाता में था। वहाँ का कर्मचारी संघ फ़िल्में दिखाने के साथ-साथ मृणाल सेन और उत्पल दत्त जैसी हस्तियों को उन्हीं फ़िल्मों पर चर्चा के लिए भी बुलाता था ।
सिनेमा हॉल में ज्यादा नहीं देखीं ।’ आई एम बॉबी,क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगे?’ डिम्पल कापड़िया के इस संवाद के कारण बॉबी तीन-चार बार देखी थी ।गुजरात के दूध-सहकारिता पर आधारित फ़िल्म मंथन से लगायत विक्टोरिया नं. २०३(अशोक कुमार और प्राण के राजा-राणा वाले गीत से लगता था कि ‘अहिन्सक’ सम्बन्ध दिखाया गया है।मेरे नाना की थिसिस थी की समलैंगिक सम्बन्ध ‘अहिन्सक’ होते हैं ।)
टेलीविजन-युग में कई अंग्रेजी फ़िल्में पसन्द आयीं ।बनारस में २०-२५ साल पहले तक रविवार के मॉर्निंग शो में दो-तीन हॉल बांग्ला फ़िल्में दिखाते थे,उन में कई पसन्द हैं ।
पसन्दीदा लेखक
विश्व के विशालतम वांग्मय के रचयिता गाँधीजी को सब से ज्यादा पढ़ा है।(इस जवाब में सृजन शिल्पी की नकल का आरोप बनता है,लेकिन ऐसा नहीं है।)
गद्य : उपन्यास : अमृतलाल नागर ( मानस का हंस,नाच्यो बहुत गोपाल)
शिवप्रसाद सिंह ( गली आगे मुड़ती है)
कथेतर गद्य : अनुपम मिश्र ( आज भी खरे हैं तालाब,राजस्थान की रजत बूँदें )
पत्रकारीय लेखन : अशोक सेक्सरिया(इनकी कहानियाँ भी हैं), ओमप्रकाश दीपक(इनका उपन्यास ‘ कुछ जिदगियाँ बेमतलब’ भी बिना छोड़े पढ़ा था,लोहिया की ‘असमाप्त जीवनी’ और ‘समाजवाद : एक लोहियावादी व्याख्या’ पढ़कर इस राजनीति की धारा से जुड़ा ।),किशन पटनायक,अरुन्धती रॉय,सिद्धार्थ वरदराजन और कृष्ण कुमार।
कविता : भवानीप्रसाद मिश्र ,कुँवरनारायण , रघुवीर सहाय , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , राजेन्द्र राजन , ज्ञानेन्द्रपति ।
प्रविष्टियों की नकल :
एक मार्गदर्शक वरिष्ठ चिट्ठेकार के सुझाव पर कैफ़े हिन्दी को कम्प्यूटर पर बचा कर रखा,’ताकि सनद रहे,वक्त पर काम दे’ वाले भाव में।
एक पत्रकार चिट्ठेकार की भाषा पर नारद से हटाने की माँग की थी, उसके पृष्ट को भी ‘सनद रहे’-भाव में छाप कर रख लिया था।उसने प्रविष्टी को हटा कर बहस शुरु की।
हिन्दी सॉफ़्ट्वेयर :
सब से पहले वेब दुनिया के ई-पत्र पर हिन्दी लिखी । चिट्ठे पर सर्वप्रथम ‘हिन्दिनी’ का प्रयोग किया, फुरसतिया की कड़ी से। अनुनादजी का कम्यूटर और संजाल पर हिन्दी पढ़ने-लिखने से सम्बन्धित सभी कड़ियों को एक साथ देने वाले चिट्ठे से बाराह का प्रयोग शुरु किया,सो जारी है ।
ये लेख मजेदार लगा। खासकर ये डायलाग-
अपने खेत में चाँद छाप यूरिया के ‘चाँद चाचा अनुभवी किसान’ की तरह गंभीरता से खेती करने वाले दूसरे के खेतों में ‘ यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो’ स्टाइल में टिपियाते हैं ।
अपने खेतों में जो निपटते हैं,वे दूसरे के खेतॊं में भी जैविक खाद छोड़ने के माहिर हैं । इस श्रेणी के पसन्दीदा लोगों का नाम नहीं देना चाहिए।
इसमें बनारसी खुराफात झलक रही है। होली है मौज है। अपने नानाजी की थिसिस पढ़वाऒ भाई। यह बात कुछ हद तक सही है कि नेट पर लिखने-पढ़ने से जनसंपर्क अभियान कम होता होगा। संतुलन बनाना होगा!
अफ़लातूनजी, आपकी यह उत्तर पुस्तिका शानदार हैं…
पता नहीं क्यूँ मगर आपकी इस पुस्तिका से आभास हो रहा है कि आपका परिवार (पत्नि और बेटी के अलावा आपके साथीगण भी) आपके चिट्ठालेखन से खुश नहीं है, फिर भी आपका चिट्ठालेखन निरंतर जारी है।
चिट्ठा-प्रेम का काव्य-रूप भी अच्छा लगा और आपका वृतचित्रों को ‘डाकू मंत्री’ बताने वाला वाक्य मजेदार लगा…
अरे हां कविता की तारीफ़ करना हम भूल ही गये। अच्छी लगी खासकर ये लाइनें:-
कमजोरी है-/ कविता को,/ प्यार को / अघोषित काले पैसे की तरह-/ दबाने में, छिपाने में ।
“अपने खेतों में जो निपटते हैं,वे दूसरे के खेतॊं में भी जैविक खाद छोड़ने के माहिर हैं ।”
अद्भुत वाक्य है. यह आप ही लिख सकते थे.
जिन लेखकों का आपने जिक्र किया उनमें सभी को पढ़ने का सौभाग्य मिला है.पर राजेन्द्र राजन को मैंने आपके माध्यम से जाना. इतने अच्छे कवि हैं और आश्चर्य कि मैं अब तक उनसे अपरिचित था.
मैं समझता था चूंकि कविता में रुचि है और अधिकांश पत्रिकाएं खंगालता रहता हूं अतः लगभग-लगभग सभी महत्वपूर्ण हिंदी कवियों से थोड़ा-बहुत परिचित हूं. मेरी अहमन्यता दूर हुई है. और यह स्वीकारने में कोई शर्म नहीं है कि इतने बेहतरीन कवि को मैंने आपके जरिये जाना है.
आपके बारे में कुछ विस्तार से जानकर मन में फिर वही पुराना सवाल जाग उठा, “आप इतनी सारी चीजें कैसे कर पाते हैं? शायद गांधीजी और लोहिया जी की प्रेरणा से? अपने विचार इसी तरह व्यक्त करते रहिये; बहुत से विचारों के टक्कर (सम्मिश्रण) से ही उत्कृष्ट विचार जन्म लेते हैं।
सब कुछ पढ़कर बहुत अच्छा लगा, आपकी टिप्पणी प्राप्त हुई, आप मेरे सम्माननीय है, मैने ही आपको सूचना नही दिया था, अन्यथा आप मेरे प्रश्नों के भी उत्तर देते मै भी आपका क्षमा प्रार्थी हूँ।
एक दो दिन पूर्व मै अत्यनत व्यस्त कार्यक्रम से वाराणसी गया था, शायद भाग्य मे नही था आपसे मिलना, फिर कभी आना हुआ तो जरूर आपसे मिलूँगा। आप भी प्रयाग आइयेगा तो जरूर मिलियेगा, मुझे आपसे मिलने की हार्दिक इच्छा है।
अच्छा लगा आपके बारे में जानकर !
हिन्दी टाइपिंग संबंधी आपके बातों से सहमत हूँ। लोगों के मन से यह वहम निकालना बड़ा मुश्किल है कि हिन्दी पढ़ना लिखना मुश्किल काम है। इसीलिए मैं इस बारे में सरल से सरल लेख लिखता रहता हूँ।
हाँ, चिट्ठाकारी और सामान्य जीवन मे संतुलन बनाना बहुत ही आवशयक है, मुझे भी अब लगने लगा है कि चिट्ठाकारी का एक निशिचित समय सीमा ही रख कर संतुलन बना सकते हैं,।
बहुत अच्छा लगा पढ़कर! संजाल का पाठक-वर्ग अभी वाकई अभिजात्य है और यह असत्य तभीस ाबित होगा जब हिन्दी के मुख्यधारा के मीडिया की नज़र में चिट्ठाकारी को महत्व मिलेगा और यहाँ उठाये मुद्दे वहाँ भी कुछ लहर पैदा करेंगे। कम से कम शुरुवाती दौर में तो यह ज़रूरी है ताकि नये लोग इस विधा से जुड़ें। जब क्रिटिकल मास बनेगा और चिट्ठाकारी क्लासेस से मासेस तक पहुँचेगी। पर सच कहूं तो अब भी लगता है कि दिल्ली काफी दूर है।
आपके सवालों के जवाब तो बहुत अच्छे लगे भई।
मेरे विचार से अफलातून जी से मेरी पहचान शायद परिचर्चा के दौरान हुई थी, अव्वल तो अमित ने मेरे से पूछा भई ये अफलातून है कोई रजिस्टर किए है, क्या करें, हमने कहा, कि भई आने दो, अभी तो बहुत सारे अफ़लातून आएंगे, बहुत हातिमताई आएंगे।
धीरे धीरे पता चले कि आपका ब्लॉग भी है, अनूप को हमने पता दिया, अनूप बोले नारद पर जोड़ो, हमारे बचपन के मित्र है। फिर एक दिन अचानक, गूगल चैट पर अफलातून जी को पाया। उसके बाद से आज तक, ऐसा कोई दिन नही गुज़रता, जिसमे एक बार बात ना हो। अफलातून जी एक बात मै कहना चाहूंगा कि इतने बुजुर्गवार होने के बावजूद भी उनमे नयी चीजे सीखने की ललक है, कुछ नया करने का उत्साह है। इनकी टिप्पणियां भी काफी प्रेरणादायक होती है। कुल मिलाकर अफलातून जी के रुप मे हिन्दी चिट्ठाजगत को एक मैच्योर चिट्ठाकार मिला है, जिसकी विषय पर मजबूत पकड़ है और जो मुद्दों को गम्भीरता से उठाता है।
हिन्दी चिट्ठाजगत मे जितने भी नए नए लोग जुड़ते जाएंगे, उतना ही इसका रुप विस्तृत होता जाएगा। हर विचारधारा के लोग आएंगे, तब शायद हम सभी के नाम भी ना याद रख सकें, लेकिन हाँ कम से कम पुराने चिट्ठों को पढकर जरुर कहा करेंगे, कितना सामन्जस्य और सहजता थी इन पुराने चिट्ठाकारों में।
[…] मेरी चिट्ठाकारी और उसका भविष्य […]
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फुरसतिया जी के मित्र होने का अर्थ है कि आप इतने अधिक उम्र के नहीं लगते…अनुनाद जी पर आगे छद्म हाफपैंटी शब्द कहा गया था, यहाँ कुछ और ही है…फुरसतिया के यहाँ से ही आया अभी…
फुरसतिया ,उम्र में कुछ वर्ष छोटे हैं ।
bahut achha afloo da