राष्ट्र की सारी बचत राशि बैंकों और बीमा के पास जाती है । वहाँ हमारी राष्ट्रीय पूंजी संचित है । उस पर भी विदेशी कंपनियों को वर्चस्व चाहिए । इसलिए भाजपा सरकार कांग्रेस का समर्थन पाकर इससे संबंधित कानूनों को बदल रही है । पेटेंट कानून भी बदल रहा है । दुनिया से सीखकर नयी तकनीकों को अपनाने का रास्ता इससे बन्द हो जायेगा । प्रत्येक उन्नत देश ने अतीत में दूसरे देशों और दूसरी सभ्यताओं से ज्ञान-विज्ञान का सहारा लिया है । आधुनिक टेक्नोलाजी के बारे में अमरीका ने यूरोप से सीखा , जापान ने अमरीका से सीखा । अब विकासशील देशों की बारी आई तब नियम बन गया है कि यह चोरी है।तकनीकी का अनुसरण करना भी अपराध है । सीखना और प्रयोग करना भी अपराध है।विदेशी उद्योगों को हम राष्ट्रीय सम्मान देने के लिए बाध्य होंगे , लेकिन उन उद्योगों से तकनीक की शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते हैं । उनकी कंपनियों के लिए हम दरवाजा खोल देंगे लेकिन हमारे प्रशिक्षित मजदूरों के लिए उनका दरवाजा बंद रहेगा । अगर कंपनी यहाँ आती है तो मजदूर वहाँ भी जा सकते हैं – यह राय सारे विकासशील देशों की है ।लेकिन यह मानी नहीं जाती है क्योंकि विश्वव्यापार संगठन के नियम मतदान के द्वारा नहीं बने हैं ।बातचीत के द्वारा , धौंस जमाकर निर्णय कराए जाते हैं । विश्वबैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन ये तीनों धनी पूँजीवादी देशों के हथकंडे हैं । हम उसमें सदस्य होने पर भी विदेशी हैं। जैसे कि हम अंग्रेजी साम्राज्य में थे लेकिन अंग्रेज हमारे लिए विदेशी थे ।
विदेशी पूंजी भारत और चीन
कोई पूछ सकता है – ये सब तो नकारात्मक बातें हैं , कुछ सकारात्मक पहलू भी तो होगा ? हमारे देश में पूंजी की कमी है । अब बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी आ रही है । अगर हम पूंजी प्राप्त कर रहे हैं तो क्या उससे हमारा भविष्य बेहतर नहीं होगा ?
अगर अर्थनीति की बातों को विद्वान लोग लोक भाषा में सहज ढंग से समझा कर लिखते तो इस तरह के भ्रम नहीं होते । तब तो साधारण आदमी अपनी बुद्धि का भी इस्तेमाल कर सकता है ।इस वक्त चाहिए कि जो लोग अर्थशास्त्री हैं और देशभक्त भी हैं वे भारतीय भाषा में औसत शिक्षित लोगों को समझायें की देश की अर्थनीति का क्या हो रहा है । इससे विदेशी पूंजी के बारे में पढ़े लिखे लोगों की मोहग्रस्तता टूटती ।(इस विषय पर सरल भाषा में इन लेखों को पढ़ा जा सकता है ।-अफ़लातून)
तर्क के लिए मान लें कि विदेशी पूंजी बड़ी मात्रा में आ रही है । तो पूछना चाहिए क्या फायदा हुआ है ? १९९१ से हम कह रहे हैं कि आ रही है , विदेशी पूंजी उत्साहित होकर आ रही है । तब से लोगों का ध्यान कृषि से हटकर उद्योग के ऊपर बंध गया है – उद्योग की बहुत ज्यादा तरक्की होगी । हमारा औद्योगिक क्षेत्र गतिशील हो जाएगा ; बहुत रोजगार भी देगा ।
नयी आर्थिक नीति के समर्थक लोगों को यह समझ में आना चाहिए कि जितनी मात्रा में विदेशी पूंजी भारत में आ रही है और जिस काम के लिए आ रही है , उससे भारत के औद्योगीकरण में कोई तेजी नहीं आएगी । जो भी विदेशी पूंजी आ रही है उसका निवेश मोटरगाड़ी ,बिस्कुट,टेलिविजन,वाशिंग मशीन, कोका कोला ,कंप्यूटर,सौन्दर्य प्रसाधन आदि उपभोक्तावादी उद्योगों में हो रहा है ।इन वस्तुओं का खरीददार देश का संपन्न वर्ग है । संख्या में यह बहुत छोटा है। आश्चर्य की बात यह है कि उन वस्तुओं के खरीददारों की संख्या बढ़ाने के लिए पांचवें वेतन आयोग के बहाने देश के सभी सरकारी अफसरो-कर्मचारियों का वेतन भत्ता बढ़ाया गया है । वेतन लेनेवाले और उनके ट्रेड यूनियन भी शायद नहीं जानते हैं कि उनके वेतनों में वृद्धि का मुख्य कारण यह है । वे यह जानेंगे तो उन्हें कुछ शर्म भी लगेगी ।
इसके बावजूद उद्योग में प्रगति नहीं होगी उलटा आर्थिक प्रगति के बगैर वेतनवृद्धि होने से विषमतायें बढ़ेंगी और अर्थव्यवस्था में नये असंतुलन पैदा होंगे । उद्योगों में गतिशीलता तब आयेगी जब आबादी का बड़ा हिस्सा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं का खरीददार होगा । इसका मतलब है कि कृषि की उन्नति से जब छोटे किसानों और मजदूरों की क्रय शक्ति बढ़ेगी तब उनकी आवश्यकता पूरी करने वाले उद्योगों को बल मिलेगा । आधुनिक उपभोक्तावादी बाजार पैदा करके भारत के उद्योगों में लम्बे समय तक तेजी नहीं आएगी ।रोजगार बढ़ने से क्रय शक्ति बढ़ती है ।भारत में जितना देशी या विदेशी पूंजी निवेश १९९१ के बाद हो रहा है उससे रोजगार बढ़ने के बजाये घट रहा है । अत्याधुनिक टेक्नोलाजी के कारण ऐसा हो रहा है । बेरोजगारी अधिक व्यापक होगी तो उद्योग किस आधार पर बढ़ेगा ? भारत के कई प्रसिद्ध औद्योगिक घरानों की ओर से (उदाहरण के लिए टाटा कंपनी) यह ऐलान हो रहा है कि अगले कुछ सालों में उनके मजदूरों की संख्या कम हो जाएगी ।इनसे पूछा जाना चाहिए कि मजदूरों की संख्या अगर घटती जाएगी तो किन किन समूहों की क्रय शक्ति के बल पर भारत का औद्योगीकरण होगा ?
विदेशी पूंजी के बारे में और एक तथ्य जानना जरूरी है । सारे विश्व में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के जो परिणाम हैं उसका नब्बे प्रतिशत दुनिया के विकसित औद्योगिक इलाकों में चला जाता है। यानि उत्तर अमरीका ,यूरोप , जापान में । चीन का जो नया औद्योगीक इलाका चाएन के तटीय प्रांत में विकसित हो रहा है वह भी इसमें शामिल है । बाकी दस प्रतिशत में से अपना हिस्सा मांगने के लिए सारे विकासशील देश होड़ लगाये हुए हैं । इससे यह समझ में आना चाहिए कि हमको एक नगण्य हिस्सा ही मिल सकता है । हमारी अपनी पूंजी से विदेशी पूंजी का अनुपात बहुत छोटा होगा । लेकिन विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए हम अपनी औद्योगिक नीतियों को विदेशियों के हित में बदल रहे हैं । नतीजा यह हो रहा है कि हमारी अपनी पूंजी का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है ।वह सड़ रही है । क्योंकि विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए हम दिन-रात सार्वजनिक क्षेत्र की निन्दा कर रहे हैं । उसकी इतनी बदनामी हो चुकी है कि लोगों के मन से भी उस पर भरोसा उठ रहा है ।उसको बेचने पर भी उचित दाम नहीं मिलेगा ।होना यह चाहिए था कि सार्वजनिक उद्योगों की त्रुटियों को समझकर उनकी कार्यकुशलता बढ़ाई जाती । स्वदेशी उद्योग का नारा देने वालों को यही करना चाहिए था ।
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