डॊलर -रुपये की लूट
अंतर्राष्ट्रीय विनिमय में अमरीका जैसे देश एक और तरीके से भारत जैसे देशों को लूट रहे हैं । वह है डॊलर और रुपए का विनिमय दर । बीस साल पहले एक डॊलर आठ-दस रुपये का था , आज वह ४८ रुपये का हो गया है। लेकिन क्रयशक्ति समता ( Purchasing Power Parity ) के हिसाब से देखें , अर्थात वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने की क्षमता से तुलना करें , तो एक डॊलर आज भी दस रुपये से ज्यादा का नहीं होना चाहिए । इस अत्यधिक गैरबराबर विनिमय दर का मतलब है कि हम अपने आयातों का पांच गुना ज्यादा भुगतान कर रहे हैं। यह जबरदस्त लूट और शोषण है ।
अब बात साफ हो जानी चाहिए । इस जबरदस्त लूट और शोषण को सुविधाजनक बनाने और बढ़ाने के लिए ही अमरीका व दुनिया के अन्य अमीर देश मुक्त व्यापार की हिमायत करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने की वकालत करते हैं । विश्व व्यापार संगठन भी इसीलिए बनाया गया है तथा मुक्त व्यापार के क्षेत्रीय समझौते भी इसीलिए किए जा रहे हैं । दरअसल वैश्वीकरण की यह व्यवस्था नव-औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवादी लूट का ही नया रूप है,नया औजार है । जैसे विदेशी पूंजी से भारत के विकास की बात वास्तविकता से परे एक अन्धविश्वास है , वैसे ही मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में निर्यातों से देश के विकास को गति मिलेगी,यह भी एक और अन्धविश्वास है ।
इन्हीं आर्थिक अंधविश्वासों के चलते आज भारत की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फंस गयी है । भले ही ऊपर बैठे शासक और अर्थशास्त्री ८ प्रतिशत विकास दर की खुशियाँ मनाते रहें , लेकिन देश की विशाल आबादी जबरदस्त बेरोजगारी,कंगाली,कुपोषण और अभावों से जूझ रही है । किसान , बुनकर , कारीगर और छोटे व्यापारी हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं । पिछले पन्द्रह वर्षों में देश के पांच लाख छोटे-बड़े उद्योग बंद हो चुके हैं । जिस तरह का औद्योगिक विनाश ( de-industrialisation) डेढ़ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों के राज में भारत में हुआ था , उसी तरह का औद्योगिक विनाश बड़े पैमाने पर एक बार फिर आजाद भारत में हो रहा है । तब खेती पर निर्भर आबादी बढ़ गयी थी , अब तथाकथित ‘ सेवाओं’ का हिस्सा बढ़ रहा है । लेकिन खेती , पशुपालन , उद्योग , खदानें , आदि में ही वास्तविक उत्पादन एवं आय सृजन होता है । एक सीमा के बाद सेवा क्षेत्र की वृद्धि भी इन पर निर्भर रहती है ।यदि खेती-उद्योग का विनाश होता है तो मात्र ‘ सेवाओं ‘ के दम पर कोई भी अर्थव्यवस्था नहीं चल पाएगी । पूरा देश एक बार फिर बरबादी ,कंगाली और गुलामी की राह पर है ।
देश बचेगा , तो हम बचेंगे
जैसे पुत्रमोह में धृतराष्ट्र अन्धे हो गए थे और सच्चाई व न्याय को नहीं देख पा रहे थे तथा न ही अवश्यंभावी कलह तथा विनाश को देख पाये , वैसे ही आज के शासक भी वैश्वीकरण की चकाचौंध में देश के ऊपर आसन्न संकट को देख नहीं पा रहे हैं। यदि इसे नहीं रोका गया, तो पौराणिक ‘महाभारत’ से ज्यादा बड़ी विनाशलीला होगी । ऐसे भारत का भविष्य अंधकारमय है । और यदि भारत का कोई भविष्य नहीं होगा,तो बी.एस.एन.एल का भी कोई भविष्य नहीं होगा। आज बी.एस.एन.एल. के ऊपर जो संकट आ रहा है, वह वैश्वीकरण की विनाशकारी प्रक्रिया का हिस्सा है । बी.एस.एन.एल. का भविष्य अनिवार्य रूप से देश के भविष्य से जुड़ा है ।
ऐसी हालत में , हम सबको मिलकर देश को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा । लेकिन यह लड़ाई बी.एस.एन.एल. के कर्मचारी अकेले नहीं लड़ पाएंगे। इसके लिए उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कर्मचारियों , किसानों, मजदूरों , बुनकरों,मछुआरों , आदिवासियों ,दलितों आदि के साथ एकता बनाना पड़ेगा। मरा आपसे अनुरोध है कि पगार तथा बोनस की लड़ाई छोड़ें।वे तो छोटी बातें हैं। इस बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो जाएं । तभी देश बचेगा और तभी बी.एस.एन.एल भी बचेगा ।
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( नेशनल फेडरेशन ओफ़ टेलिकोम एम्प्लाईज़,बी.एस.एन.एल औरंगाबाद जिला शाखा,महाराष्ट्र द्वारा विदेशी पूंजी और बी.एस.एन.एल. का भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में सुनील,राष्ट्रीय महामन्त्री,समाजवादी जनपरिषद का भाषण, दिनांक १० फरवरी २००६ )
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आपके पहले पैराग्राफ का गणित कुछ समझ नहीं आया, यदि विस्तार से समझा सकें कि कैसे विनिमय दर अमेरिका द्वारा नियंत्रित है तथा कैसे गलत विनिमय दर से वह हमारा शोषण कर रहा है? कृपया यह भी बतायें कि यदि विनिमय दर दस रु से भी कम हो गयी तो निर्यातकों पर इसका क्या असर होगा 🙂
अफ़लातून जी,
अच्छे लेख के लिये बधाई. कुछ शंकाये हैं आशा है निवारण करेंगे;
1) “एक डॊलर आज भी दस रुपये से ज्यादा का नहीं होना चाहिए.”
10 रुपये कैसे?
2) “इस अत्यधिक गैरबराबर विनिमय दर का मतलब है कि हम अपने आयातों का पांच गुना ज्यादा भुगतान कर रहे हैं।”
जहां तक मेरी छोटी सी सोच या जानकारी है भारतीय आयात या निर्यात भारतीय रुपयों में नहीं, बल्की विदेशी मुद्रा में हो रहे हैं – मतलब डॉलर कमाओ और डॉलर उडाओ. अगर विनियम दर में असमानता है (अगर) तो भी उसका असर कमाई या खर्चे पर नहीं होना चाहिये. जो चीज़ 2$ की है उसे भारत 2$ में खरीद रहा है ना कि 96 रुपये में.
3) “आज बी.एस.एन.एल. के ऊपर जो संकट आ रहा है, वह वैश्वीकरण की विनाशकारी प्रक्रिया का हिस्सा है ।”
टेलीकॉम के क्षेत्र में अधिकतर भारतीय खिलाड़ी ही हैं – रिलायंस, टाटा, भारती (एयरटेल), आइडिया – यह सब देशी कम्पनियां हैं ना कि वैश्वीकरण से उपजी हुयी बहुराष्ट्रीय कम्पनियॉ. आज़ादी के पचास वर्ष बाद तक बी एस एन एल ने पचास रुपये मिनट के हिसाब से उपभोक्ता को एस टी डी बेंचा और उसके बावजूद भी गरीब के गरीब ही रहे. कहां जाती रही सारी कमाई? आज निजी कम्पनियॉ 1 रुपये में एस टी डी बेंच रही हैं. भारत जैसे देश का भविष्य बी एस एन एल से जुड़ा है और खतरे में है – यह कथन समझ नहीं पा रहा हूं. बी एस एन एल को अपनी सोच में बदलाव लाना है – मुक्त बाज़ार है जो ‘सस्ता, मजबूत और टिकाऊ’ माल बेंचेगा और उत्तम सेवा देगा वह बचेगा. बी एस एन एल को अपनी रक्षा इन सिद्धांतों और सोच पर करनी चाहिये ना कि राजनीतिक क्रांति के पथ पर चल कर. यह फैसला तो उपभोक्ता करेगा कि बी एस एन एल चले या बंद हो.
जगदीशभाई,
गणित सरल है और आप उसे समझ भी रहे हैं।भारत में बनी १०० रु. की शर्ट दो डॊलर की जगह अमरीकियों को दस डॊलर की पड़ेगी।इससे हमारा निर्यात प्रभावित होगा।मौजूदा तर्क से ही दुनिया भर का सामान और सेवाएं अमरीका भेजने की होड़ रहती है ।लेकिन फिलहाल Purchasing Power Parity के आधार पर विनिमय न होने के कारण जो लूट है,उस पर विद्वान जनता का ध्यान क्यों नहीं दिलाना चाहते?
एक मुद्दा रह गया था । “कैसे विनिमय दर अमेरिका द्वारा नियंत्रित है”?
रुपये और डॊलर की दर उस मुद्रा की अन्तर्राष्ट्रीय माँग पर आधारित होती है । अन्तर्राष्ट्रीय बैंक,मुद्रा कोष आदि पर प्रभुत्व मुद्रा की माँग को प्रभावित करता है।कर्ज की किस्त,कर्ज की किस्त पर सूद आदि का भुगतान डॊलर में होता है।सट्टेबाजी(अंतर्राष्ट्रीय) भी डॊलर में होती है।
क्रय-शक्ति के आधार पर विनिमय निर्धारण समझ लेने पर ही लूट और शोषण समझ में आएंगे,आवश्यकता हो तो इस पर आगे कभी इन्हीं पृष्टों पर सामग्री दी जा सकती है।
माफी चाहता हुँ अफलातुनजी,
पर बी.एस.एन.एल. पर संकट की आपकी थ्योरी पढकर हँसी आ गई।
अनुरागजी सही कह रहे हैं कि बी.एस.एन.एल. से टक्कर लेने वाली ज्यादातर कम्पनीयाँ भारतीय ही हैं.. इसमें वैश्वीकरण कहाँ से आया।
निजि कम्पनीयों के उतरने से ही आज टेलिकोम क्षेत्र में क्रांति आई है, और हमें इतने सस्ते दर में फोन की सुविधा मिल पा रही है। बी.एस.एन.एल. के भरोसे तो हो जाता….
खैर यह मेरी सोच है।
पंकज जी,
क्या आपने निजी टेलिफोन कम्पनियों द्वारा जनता के पैसे से बने आधारभूत ढ़ाँचे के प्रयोग की फीस -माफ़ी कैसे कराई गयी ,यह पढ़ा ? https://samatavadi.wordpress.com/2007/01/03/fdi-corporatisation-globalisation-4/
यह लेख ‘विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास’ पर है।चूँकि बी.एस.एन.एल. की यूनियन द्वारा आयोजित परिसंवाद में यह दिया गया था।इसका अन्तिम प्रविष्टी में हवाला है ।इस लिए आप एक सरल ‘थ्योरी’ को बिना पढ़े कैसे समझ पाएंगे ?
हँसी आपको कई बार आएगी,रुक – रुक कर !
“आवश्यकता हो तो इस पर आगे कभी इन्हीं पृष्टों पर सामग्री दी जा सकती है।”
बड़ी मेहरबानी होगी, इससे हमारे (कम से कम मेरे) मन में यदि कोई भ्रांतियॉ हैं तो उनको दूर करने में बड़ी मदद मिलेगी.
🙂
महोदय,
लिंक देने के लिए धन्यवाद। आपने यह लिंक लेख मे भी दी होती तो अच्छा होता।
आपके लेख अब से नियमित पढना शुरू कर रहा हुँ। पहले भी थोडा बहुत पढा तो है, लेकिन आपका लेखन मुझे पक्षपातपूर्ण लगता था।
खैर जो भी हो, आप अच्छा कार्य कर रहे हैं, हमें नए विचारों को जानने का सुअवसर भी मिल रहा है।
मै आपके आदर्शो और विचारो से एकदम भी सहमत नही हुँ… लेकिन आपकी बहुत ईज्जत करता हुँ।
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