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भूमिका
हमारा निजी रहन – सहन कैसा होता है , इसके सामाजिक प्रभाव के सम्बन्ध में बहुत विचार नहीं किया जाता । ऐसे लोग भी जो समाज-परिवर्तन करना चाहते हैं , समाज से गरीबी हटाना चाहते हैं और समता लाना चाहते हैं , खुद कैसे रहते हैं इस बारे में नहीं सोचते। लेकिन हमारा रहन-सहन और उपभोग का स्तर वास्तव में एक नितान्त निजी मामला नहीं है । यह एक विशेष वातावरण की उपज है और स्वयं एक वातावरण बनाता है। यह वातावरण बहुत हद तक समाज की दिशा को प्रभावित करता है और इस बात का भी निर्धारण करता है कि उपलब्ध साधनों का कैसे उपयोग होगा । अत: यह एक ऐसा विषय है जिस पर कुछ गहराई से विचार करने की जरूरत है ।
निजी रहन-सहन के सम्बन्ध में इस लापरवाही को वामपंथी और मार्क्सवादी पार्टियों में एक तरह की सैद्धान्तिक मान्यता प्राप्त हो गयी थी । एक यूरोपीय वामपंथी ने इस सम्बन्ध में एक दिलचस्प बात बतायी । उसने बताया कि मार्क्स की स्वयं की आदतें फिजूलखरची की थीं हालांकि उनकी जिन्दगी प्राय: अभाव में ही बीती ।इस व्यक्ति ने यह भी बताया कि पश्चिम के मार्क्सवादी मार्क्स की इस कमजोरी को अपनी फिजूलखरची के समर्थन में उदाहरण की तरह पेश करते हैं । भारत में भी जब किसी वामपंथी नेता के खरचीले रहन-सहन की आलोचना की जाती है तो झट से यह जवाब मिलता है कि ‘ हमारा काम श्रमिकों का जीवन-स्तर ऊपर उठाना है , खुद अपने जीवन-स्तर को नीचे गिराना नहीं’ । शुरु के दिनों मे समाजवादियों और गाँधीवादियों के बीच अक्सर यह एक विवाद का मुद्दा रहता था । यह बात अलग है कि आमतौर से समाजवादी कार्यकर्ताओं का जीवन बहुत ही सादगी और कभी-कभी तो अत्यन्त गरीबी का होता था , क्योंकि ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए दूसरे तरह की जिन्दगी सम्भव नहीं थी । जब सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह हाल था तो आम आदमी में इस विषय पर सोचने की जरूरत कैसे पैदा होती ?
इस समस्या को इस तरह नजरअंदाज करने के पीछे एक कारण यह भी था कि आजादी के पहले तक शहरी संस्कृति अपने आप में विचार का विषय नहीं थी । लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह संस्कृति जलकुम्भी की तरह समाज पर छाती गयी है । जो गरीब हैं वे तो गरीबी के कारण इससे अछूते रह जाते हैं या इसके प्रभाव से और गरीब होते चले जाते हैं , लेकिन मध्यमवर्ग में तो यह महामारी की तरह फैल गयी है । सामाजिक कार्यकर्ताओं के रहन – सहन और इसके प्रति उनकी दृष्टि का भी इस संस्कृति से गहरा सम्बन्ध है । अत: इस प्रश्न पर पूरी स्पष्टता की जरूरत है ।
एक कारण और था जिससे वामपंथी लोगों में उपभोग की सीमा के सवाल पर कोई विचार नहीं होता था । यह मान लिया जाता था कि औद्योगिक उत्पादन की क्षमता सीमाहीन है और इसके अंधाधुंध प्रसार से कोई सामाजिक समस्या पैदा नहीं होगी । यह विचार भी पश्चिमी देशों से ही हमें मिला था । लेकिन अब पश्चिम के अधिकांश वैज्ञानिक और चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि इस उत्पादन की एक सीमा है और हम उस सीमा के काफी करीब आ चुके हैं । इस कारण वहाँ छात्रों तथा बुद्धिजीवियों के बीच एक नया वामपंथ पैदा हो रहा है जो प्राकृतिक साधनों की सीमाओं , प्रदूषण आदि की समस्याओं के साथ वामपंथ को जोड़ने का प्रयास कर रहा है । इन लोगों ने भी यह अनुभव किया है कि मानव विकास की कल्पना प्रकृति द्वारा बांधी गयी सीमाओं के भीतर ही की जा सकती है । स्पष्ट है कि कोई भी दीर्घकालीन विकास प्राकृतिक साधनों के अपव्यय को रोक कर ही सम्भव है ।हमारा उपभोग कितना और किन वस्तुओं का हो वह इससे सीधा जुड़ा हुआ है । इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति एक तरह से समाज के विकास के लिए सबसे प्रमुख अवरोध बन गयी है ।
इस सवाल पर साफ दृष्टि की इसलिए भी जरूरत है क्योंकि उपभोक्तावाद का दबाव बहुत जबरदस्त होता है । किसी व्यक्ति के इर्दगिर्द लोग कैसे रहते हैं , क्या पहनते हैं आदि की देखा-देखी ही वह अपना रहन-सहन बनाने की कोशिश करता है । अगर सामाजिक कार्यकर्ता किसी भी स्तर के उपभोग को सामान्य मान लें तो वह इस दबाव से नहीं बच सकता । इससे वह तभी बचेगा जब उसे यह पता हो कि कौन सी सामाजिक शक्तियाँ इस दबाव के पीछे काम करती हैं और कैसे वे उसके बुनियादी मूल्यों के विपरीत प्रभाव डालती हैं या उन उद्देश्यों को नष्ट करने वाली हैं जिनको लेकर वह चलता है । आज उपभोक्तावाद पूँजीवादी शोषण व्यवस्था का परिणाम भर नहीं है बल्कि उसे जिन्दा रखने का सबसे कारगर हथियार भी है। इसलिए भी संघर्ष को उपभोक्तावाद के खिलाफ केन्द्रित करना जरूरी हो जाता है । यह पुस्तिका उपभोक्तावाद के विभिन्न पहलुओं पर इसी दृष्टि से विचार करती है ।
सच्चिदानन्द सिन्हा.
( जारी )
हम सभी उपभोक्तावाद का दबाव महसूस करने लगे हैं. उम्मीद है कि कोई हल निकले
अगली किश्त की प्रतीक्षा में – मैथिली
अच्छा लेख है..इस पर और बात होनी चाहिये, और बात ही क्यों..जीवन शैली बदलनी चाहिये..सुख मूलक होनी चाहिये भोगमूलक नहीं।
.”..हमारा रहन-सहन और उपभोग का स्तर वास्तव में एक नितान्त निजी मामला नहीं है । यह एक विशेष वातावरण की उपज है और स्वयं एक वातावरण बनाता है। ….”
इस बात को मैं भी काफी महसूस कर रहा हूं कुछ दिनों से…
बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है. अधिकांशतः देखा गया है कि ‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की नीति के कारण ही बहुत से परिवर्तन नहीं हो पाते . हमारे आचरण और उपदेश के बीच फ़ासला बढता ही जा रहा है. कथनी और करनी की एकरूपता के लिये गांधी से अच्छा ‘रोल मॉडल’ कहां मिलेगा .
श्री अफलातून जी, सर्व प्रथम आपको इस नेक कार्य करने के लिये बधाई। कि आपने इस प्रकार के उच्च विचारों का हमारे समक्ष रख रहे है, आपका यह कार्य हमें विकसित सोच देगा।
आज जिस प्रकार व्यवसायिकता के दौर में उपभोक्ताओं के मस्तिष्क पर प्रहार किया जा रहा है। हमें इन पूँजीवादी उपभोक्ता वादियों के क्रूर प्रहारों से बचना होगा।
आदरणीय सचिवानंद जी,
आप द्वारा उठाए गये प्रश्न क़ाबिले गौर हैं और इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्कता है ! ये भी सच है कि इन को व्हवहारिक जिंदगी में ढालना तो दूर की बात है कम ही ऐसे लोग मिलेंगे जो इन प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत समझें ! लेकिन ऐसी भी बात नहीं है कि इन पर मार्क्सवादी लोगों ने कभी विचार ही नहीं किया हो ! समाजवाद के प्रथम चरण के संसार भर में असफल हो जाने के वाद ( समाजवाद अपने प्रथम चरण में अपने अगले उच्च्तर पड़ाव साम्यवाद में प्रवेश करने में असफल रहा है और ज्यादातर कम्यूनिस्ट पार्टियों के चरित्र का बोलेश्विक तत्व या तो हार मान चुका है या फिर पूर्णतया अपने उल्ट में प्रवर्तित हो चुका है !) सर्वहारा के सच्चे सैनिक निठले बैठे हों, ऐसी स्थिति कि कल्पना मात्रा द्वंदात्मक भौतिकवाद से मुँह फेर लेना होगा और जैसा कि एंगेलज़ ने कहा है कि सब से गंभीर चिंतन इतिहास के उस दौर में होता है जब समाज ठहराव या निराशा व हार के बोध से ववास्ता हो !
जहाँ तक एक कम्यूनिस्ट की व्यक्तिगत जिंदगी और उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता का संबंध है तो दोनों के वीच में सामन्जस्य बिठाना तो दूर की बात, अगर कहें कि एक कम्यूनिस्ट का व्यक्तिगत जीवन अपने वर्ग सर्वहारा के जीवन से किसी भी तरह अलग प्रकार का है तो उस कम्यूनिस्ट या उसकी कम्यूनिस्ट पार्टी को देर सवेर इसकी कीमत चुकानी होगी और इससे भी बढ़कर कीमत चुकता है वो वर्ग जिसकी राजनीति करने का दम कम्यूनिस्ट करतें हैं ! अन्य बहुत से वस्तुगत कारणों को अगर दरकिनार भी कर दिया तो सर्वहारा का 20वीं सदी के उत्तरार्ध में बुर्जुया वर्ग के हाथों हार जाने में कम्युनिस्टों के व्यक्तिगत जीवन के अंतर्विरोध क़ी भी अहम भूमिका रही है!
लेकिन उपर लिख्त तरीके से विश्लेषण हमें स्थिति के साधारणीकरण क़ी ओर और पूरी स्थिति को ही अध्यात्मिक विचारवाद क़ी गर्त में ले जा कर डूबा देना होगा ! द्वंदात्मक भौतिकवाद सिखाता है कि वर्गीय समाज मे सर्वहारा के सता पर काबिज हो जाने के वाद भी वर्ग संघर्ष जारी रहता है ! इतना ही नहीं शुद्ध से शुद्ध कम्यूनिस्ट पार्टी के अंदर सर्वहारा और बुर्जुया तत्वों के टकराव को सिरे से नकार देना उस कम्यूनिस्ट पार्टी के अस्तितव व इस टकराव से पैदा हुई गति को ही नकारना होगा ! इससे भी बढ़कर वर्गीय समाज में किसी राजनीतिक संगठन में विरोधी तत्वों से रहित होना इस बात कि अध्यात्मक स्वीकृति होगी कि समाजवाद की उच्च्तर मंजिल में भी किसी कम्यूनिस्ट या अन्य राजनीतिक संगठन की सार्थकता बनी रहेगी ! इन अंतरविरोधो को सिरे से नकार देना मार्क्सवाद को एक जीवंत और सतत विकासमान विज्ञान न समझकर महज एक नया कठमुलवाद बना देना होगा !
दीपक
[…] हो , किसानों के साथ धोखाधड़ी हो अथवा उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देना हो । पाठक इनके बारे में […]
i think u should also write about the changes in riti-rivaz due to the effect of upbhoktavad
I’m not satisfied with your answer!!!!!!!!
srry!!!!!! to tell
but main points are not there
[…] उपभोक्तावादी संस्कृति :गुलाम मानसिकत… […]
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[…] उपभोक्तावादी संस्कृति :गुलाम मानसिकत… March 200711 comments 5 […]
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