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अगर हमारे देश में कोई नीच जाति में जन्म लेता है , तो वह हमेशा के लिए गया – बीता समझा जाता है , उसके लिए कोई आशा – भरोसा नहीं । ( पत्रावली भाग २ , पृ. ३१६ ) आइए , देखिए तो सही , त्रिवांकुर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष में सब से अधिक हैं , जहाँ एक एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं,वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है ! ( पत्रावली भाग १ , पृ. ३८५ ) यह देखो न – हिंदुओं की सहानुभूति न पाकर मद्रास प्रांत में हजारों पेरिया ईसाई बने जा रहे हैं , पर ऐसा न समझना कि वे केवल पेट के लिए ईसाई बनते हैं । असल में हमारी सहानुभूति न पाने के कारण वे ईसाई बनते हैं । ( पत्रावली भाग ६ , पृ. २१५ तथा नया भारत गढ़ो पृ. १८)
भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं ? यह सब मिथ्या बकवाद है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला । जमींदारों और पुरोहितों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया , और फलत: आप देखेंगे कि बंगाल में जहाँ जमींदार अधिक हैं , वहाँ हिंदुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं । ( पत्रावली भाग ३ , पृ. ३३०, नया भारत गढ़ो, पृ . १८ )
हमने राष्ट्र की हैसियत से अपना व्यक्तिभाव खो दिया है और यही सारी खराबी का कारण है । हमे राष्ट्र में उसके खोये हुए व्यक्तिभाव को वापस लाना है और जनसमुदाय को उठाना है। ( पत्रावली भाग २ , पृ. ३३८ ) भारत को उठाना होगा , गरीबों को भोजन देना होगा , शिक्षा का विस्तार करना होगा और पुरोहित – प्रपंच की बुराइयों का निराकरण करना होगा । सब के लिए अधिक अन्न और सबको अधिकाधिक सुविधाएँ मिलती रहें । ( पत्रावली भाग ३ , पृ ३३४ )
पहले कूर्म अवतार की पूजा करनी चाहिए । पेट है वह कूर्म । इसे पहले ठंडा किये बिना धर्म-कर्म की बात कोई ग्रहण नहीं करेगा । देखते नहीं , पेट की चिन्ता से भारत बेचैन है।धर्म की बात सुनाना हो तो पहले इस देश के लोगों के पेट की चिंता दूर करना होगा । नहीं तो केवल व्याख्यान देने से विशेष लाभ न होगा । (पत्रावली भाग ६ , पृ १२८ ) पहले रोटी और तब धर्म चाहिए । गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं , और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं ! ( पत्रावली भाग ५ , पृ. ३२२ )
लोगों को यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा न दी जाय तो सारे संसार की दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती है । ( पत्रावली भाग ६ , पृ ३५० )
लोग यह भी कहते थे कि अगर साधारण जनता में शिक्षा का प्रसार होगा , तो दुनिया का नाश हो जायगा । विशेषकर भारत में , हमें समस्त देश में ऐसे सठियाये बूढे मिलते हैं , जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं । इसी कल्पना में अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं । तो क्या वे समाज की भलाई के लिए ऐसा कहते हैं अथवा स्वार्थ से अंधे हो कर ? मुट्ठी भर अमीरों के विलास के लिए लाखों स्त्री-पुरुष अज्ञता के अंधकार और अभाव के नरक में पड़े रहें ! क्योंकि उन्हें धन मिलने पर या उनके विद्या सीखने पर समाज डाँवाडोल हो जायगा ! समाज है कौन ? वे लोग जिनकी संख्या लाखों है ? या आप और मुझ जैसे दस – पाँच उच्च श्रेणी वाले !! ( नया भारत गढ़ो , पृ. ३१ )
यदि स्वभाव में समता न भी हो , तो भी सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए । फिर यदि किसी को अधिक तथा किसी को अधिक सुविधा देनी हो , तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है । अर्थात चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है , उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं । ( नया भारत गढ़ो , पृ . ३८ )
जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे , तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा , जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है , परंतु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाठ-बाट से अकड़कर चलते हैं, यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं , कुछ नहीं करते , तो वे घृणा के पात्र हैं । ( नया भारत गढ़ो , पृ. ४४ – ४५ )
एक ऐसा समय आयेगा जब शूद्रत्वसहित शूद्रों का प्राधान्य होगा , अर्थात आजकल जिस प्रकार शूद्र जाति वैश्य्त्व अथवा क्षत्रियत्व लाभ कर अपना बल दिखा रही है , उस प्रकार नहीं , वरन अपने शूद्रोचित धर्मकर्मसहित वह समाज में आधिपत्य प्राप्त करेगी । पाश्चात्य जगत में इसकी लालिमा भी आकाश में दीखने लगी है , और इसका फलाफल विचार कर सब लोग घबराये हुए हैं। ‘सोशलिज्म’ , ‘अनार्किज्म’,’नाइहिलिज्म’ आदि संप्रदाय इस विप्लव की आगे चलनेवाली ध्वजाएँ हैं । ( पत्रावली भाग ८ , पृ. २१९-२०, नया भारत गढ़ो पृ. ५६ )
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने । ठीक से याद नहीं आ रहा है पर शायद बुद्धदेव दास गुप्ता की एक फिल्म देखी थी किसी फिल्म फेस्टिवल में, जिसमें एक बंगाली बूढ़ा केवल खाने पीने और सुविधाओं के लालच में ईसाई बन जाता है और फिर उसका जीवन संशय का महासागर बन जाता है ।
हमने राष्ट्र की हैसियत से अपना व्यक्तिभाव खो दिया है और यही सारी खराबी का कारण है । हमे राष्ट्र में उसके खोये हुए व्यक्तिभाव को वापस लाना है और जनसमुदाय को उठाना है। ( पत्रावली भाग २ , पृ. ३३८ ) भारत को उठाना होगा , गरीबों को भोजन देना होगा , शिक्षा का विस्तार करना होगा और पुरोहित – प्रपंच की बुराइयों का निराकरण करना होगा । सब के लिए अधिक अन्न और सबको अधिकाधिक सुविधाएँ मिलती रहें । ( पत्रावली भाग ३ , पृ ३३४ )
बहुत ही मार्मिक बात है ये । दिक्कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र उत्तिष्ठ जागृत से शुरू होता है और अमरीका वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्म हो जाता है । बस । इससे आगे विवेकानंद की बातें बताना उनके लिए असुविधाजनक हो जाता
है ।
बिल्कुल सही, धरम के धतकरम सिर्फ भरे पेट के लोगों के लिये हैं, भूखे आदमी का कोई धरम नहीं होता.
धर्म के बजाय भोजन और शिक्षा ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिये.
कोई भी अपना धर्म इतनी आसानी से नहीं छोड़ता । हम चाहते तो नहीं कि कोई भी हमें छोड़ कर जाए पर ऐसी परिस्थितियाँ बना देते हैं कि हमारे ही लोग हमें छोड़ कर जाएँ । हमें अपने धर्म की इस ऊँच नीच, छोटे बड़े वाली मानसिकता से ऊपर उठना होगा । एक तरफ तो हम प्राणी मात्र में ईश्वर देखने के दर्शन में विश्वास करते हैं दूसरी तरफ इतने ओछे खयाल रखते हैं । क्या अपने को बड़ा दिखाने के लिए दूसरे को छोटा बनाना ही एक रास्ता है ? बड़ा दिखने के लिए बड़े जैसे काम करने होते हैं न कि किसी को छोटा साबित करना होता है ।
ऐसे लेख लिखते रहिये ताकि हमारी सोई आत्मा को जगाते रहें ।
धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
दोनो लेख पढ़े.. कैसा फटकारा है विवेकानन्द ने.. मुँहतोड़ जवाब है.. शुक्रिया आपको..
स्वामी विवेकानन्द की यह भविष्यवाणी कि “एक ऐसा समय आयेगा जब शूद्रत्वसहित शूद्रों का प्राधान्य होगा” इक्कीसवीं सदी में साकार हो चुकी है। गांधीजी ने भी एक बार आकांक्षा जताई थी कि यदि उनका पुनर्जन्म हो तो शूद्र वर्ग के किसी परिवार में हो।
शूद्र आज सत्ता में हैं और पूरी व्यवस्था को अपने अनुकूल ढाल सकने में सक्षम हैं। हजारों वर्षों से उनका सोया स्वाभिमान जाग चुका है। उन्हें शिक्षा और रोजगार में संवैधानिक रूप से आरक्षण का विशेषाधिकार प्राप्त है, जो उनके सशक्तिकरण में बहुत सहायक साबित हो रहा है।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: की मान्यता वाले देश में यदि कोई अपना धर्म बदलने का निर्णय लेता है तो ऐसा वह अत्यंत मजबूरी में ही करता है। लेकिन विडंबना यह है कि धर्म बदलने से भी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। शूद्र यदि धर्म भी बदल ले, तब भी वर्ण-व्यवस्था के पदानुक्रम में उसकी निम्नतर स्थिति बदस्तूर जारी रहती है और वह पहले की तरह ही दलित बना रहता है।
हमें सोचना यह है कि वास्तविक जगत और सामाजिक व्यवस्था में यह पदानुक्रम कैसे समाप्त हो सकता है और बगैर किसी भेदभाव के हर किसी को संविधान द्वारा घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकता है?
विवेकानंद का साहित्य वह आईना है जिसमें हिंदुत्व को अपना गंदगी में लिथड़ा चेहरा निहार कर उसे साफ़-सुथरा करने के प्रयास तेज़ करने चाहिए .
छुआ-छूत को लेकर उन्होंने टिप्पणी की थी कि हिंदू का धर्म उसके बर्तन-भांडों में रहता है .
कितना सच कहा है उन्होंने कि पहले कूर्म अवतार (पेट) की पूजा ज़रूरी है .
आपका लेख पढ़कर इच्छा हो कही है विवेकानंद को पूरा पढूं. जहां तक शूद्र के उल्लेख का सवाल है, मेरा मानना है कि यह आज के सर्विस सेक्टर की ओर इशारा है. आधुनिक अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान बहुत बढ़ गया है. आर्थिक विश्लेषक यह कहते हैं कि आने वाले दशक में सेवा क्षेत्र उत्पादन और कृषि दोनों को पीछे छोड़ देगा.
यहां शूद्र को आधुनिक परिभाषा से देखना चाहिए. वे सब शूद्र हैं जो सेवाक्षेत्र में काम कर रहे हैं. फिर वे आईटी प्रोफेशनल हों या फिर मैनेजमेन्ट सलाहकार.
एक बड़ी समस्या यह है कि शूद्र शब्द को ही हम लोग गाली मान लेते हैं. शूद्र और सेवा आदरयोग्य हैं. और आज इनका राज है. एनार्की और समाजवाद दोनों साथ-साथ कैसे बढ़ रहा है यह भी हम लोग देख रहे हैं.
इस खोज के लिए मेरी बधाई.
।। अलख निरंजन ।।
विवेकानंद कह रहे हैं हिन्दू धर्म की दुकाने खोलकर बैठे लोगों से कि जातिगत भेद हटाओ. शूद्र के सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाओ और अत्याचार बंद करो। ये बात हिन्दू ठेकेदारों द्वारा दबा दी जाती है क्योंकि यह उच्चवर्णीय मानसिकता वालों के लिए रोड़ा बन सकती है।
उक्त पोस्ट प्रामाणिक दस्तावेज है.. जिसके लिए अफ़लातून के प्रति आभार।
बचपन से मैं विवेकानंद साहित्य का शौकीन रहा हूं. उनका विश्लेषण असामान्य था. इस विषय पर उनके उद्धरण एक साथ लाने के लिये आभार — शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
शिक्षा का नििश्चित लक्ष्य हो – आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं। एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है। सभी प्रकार की शिक्षा का एक मात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये।-स्वामी विवेकानन्द जी
[…] ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं ? – स्व… […]
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SWAMI JI KI VICHARDHARA YUGO TAK HAME MARGDARSHAN DEGI PIRADEKHKAR JO KAST KE BHAV UNKE MAN MAIN AYE USKA SPAST VARNAN KIYA HAI
RAHI BAAT UNKE DIVYADRASTIYOG KI TO AAJ HUM SABHI JANTE HAIN KI DESH MAIN DABA KUCHALA TABKA BHI UPAR AA RAHA HAI SANTVANI ESHWAR VANI HOTI HAI AISE SANT HI DESH KI ANMOL DHAROHAR HAIN
ISI KARAN KAHA HAI GURU BIN GYAN NAHI
RAKESH KUMAR
[…] ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं ? – स्व… […]
jo ek dosha hamari hazaron saal purani samriddhi aur vaibhav ko khatam kar aaj patan ki ore hai , uska ekmatra karan yahi jaatiwad hai. sahi kaha ki vivekanand ki baton mein is vichar ka koi jikra nahi karta. andhe hain sab ki apna lagatar patan bhi nahi dikhta!
अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक।
absolutely sophisticated