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[इन्डोनेशिया के सालेम ग्रुप द्वारा नन्दीग्राम में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की योजना का क्षेत्रीय किसान और बटाईदार विरोध कर रहे हैं।नन्दीग्राम का विधान-सभा में प्रतिनिधित्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का है।बंगाल में पंचायती राज में दलीय आधार पर चुनाव लड़ा जाता है और नन्दीग्राम के प्रखण्ड स्तर के प्रतिनिधियों में(वार्ड सदस्य,ग्राम-प्रधान,ब्लॉक समिति व जिला परिषद सदस्य) मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का ही बोलबाला है।किसानों द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जाने के विरोध में जो संघर्ष समिति बनी है उस में माकपा समर्थक किसान और बटाईदार अच्छी तादाद में हैं ।बुद्धदेब दासगुप्त कहते हैं कि वे आने वाली पूँजी का रंग नहीं देखेंगे। यह दान की बछिया वाला भाव उन्होंने तब प्रकट किया जब यह ध्यान दिलाया गया कि सालेम कम्पनी के हाथ इन्डोनेशिया में कम्युनिस्टों के कत्ल के ख़ून से रंगे हैं। सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ाने के प्रस्तावों पर सांसदों में जितनी एकता हो जाती है उतनी एकजुटता के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून संसद में मंजूर हुआ था ।ऐसे में नदीग्राम में बहे किसानो-मजदूरों के खून से जो बुनियादी सवाल उठने चाहिए उन्हें यहाँ दिया जा रहा है ।शहीद किसानों के संघर्ष की बुनियाद में जो मसायल हैं,उन्हें नजरांदाज करना अन्याय होगा।समाजवादी जनपरिषद के १६-१८ मार्च को बरगढ़ , उड़ीसा में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित आर्थिक प्रस्ताव के नीचे लिखे अंश इन सवालों को उठाते हैं ।]
सरकार की देशविरोधी , जनविरोधी , दिवालिया नीतियों का सबसे बड़ा उदाहरण पिछले समय विशेष आर्थिक क्षेत्रों के रूप में सामने आया है । अभी तक सरकार २६७ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को मंजूरी दे चुकी है । इन क्षेत्रों को विकसित करने वाली कम्पनियों और इनके अन्दर लगने वाली इकाइयों को लगभग सारे करों व शुल्कों से छूट होगी । इन्हें कम्पनियों के लिए करमुक्त स्वर्ग कहा जा सकता है । इसलिए देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की होड़ व लूट मची है ।ज्यादातर विशेष आर्थिक क्षेत्र महानगरों के आसपास पहले से विकसित इलाकों में ही लग रहे हैं । राज्य सरकारें इसमें पूरा सहयोग कर रही हैं और सस्ती दरों पर जमीन अधिग्रहीत करके कम्पनियों को दे रही हैं । जमीन-जायदाद और निर्माण का धन्धा करने वाली बहुत-सी कम्पनियाँ भी इसमें कूद पड़ी हैं । जमीन के विशाल घोटाले भी इस खेल में हो रहे हैं ।
निर्यात और विदेशी पूँजीनिवेश बढ़ाने के नाम पर शुरु किए गए इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों से देश का विकास और औद्योगीकरण नहीं होगा , बल्कि औद्योगिक विनाश होगा । विशेष आर्थिक क्षेत्रों के बाहर की औद्योगिक इकाइयों को करों में छूट नहीं होने से वे प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पायेंगी और या तो बन्द हो जायेंगी या विशेष आर्थिक क्षेत्रों में स्थानान्तरित हो जायेंगी । नतीजा यह होगा कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों में तो प्रगति और समृद्धि दिखायी देगी , लेकिन बाकी विशाल देश में मक्खियाँ उड़ेंगी । क्षेत्रीय असंतुलन तेजी से और बढ़ेगा। पहले पिछड़े इलाकों में उद्योगों को रियायतें , मदद व प्रोत्साहन देने की सरकार की नीति होती थी। अब ठीक उल्टी दिशा में सरकार जा रही है ।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों, कई हिस्सों में बड़े कारखानों और नई खदानों से एक बड़ा सवाल देश में खड़ा हो गया है, वह है जमीन का सवाल। बहुत तेजी से खेती , चरागाह तथा जंगल की भूमि इन कम्पनियों को जा रही है , विस्थापन की बाढ़ आ गयी है तथा कई जगह विरोध में प्रबल आन्दोलन भी खड़े हो गये हैं । सवाल सिर्फ किसानों को पर्याप्त मुआवजे एवं पुनर्वास का नहीं है वह तो होना ही चाहिए । सवाल यह भी नहीं कि ये क्षेत्र एवं कारखाने , उपजाऊ या दो-फसली भूमि पर नही बनाए जाएँ , क्योंकि तब पिछड़े पठारी व आदिवासी इलाकों में विस्थापन सही मान लिए जाएंगे । सवाल यह है कि जो जमीन इस देश में करोड़ों ग्रामीण परिवारों की एकमात्र सम्पत्ति और सहारा है , वह बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों और बड़े पूँजीपतियों के पास जा रही है । इस मामले में भी देश को पीछे ले जाया जा रहा है। जमींदारी उन्मूलन और भूमि हदबन्दी कानून इस देश के आजादी आन्दोलन की महत्वपूर्ण विरासत थी । अब एक नए किस्म की जमींदारी देश में कायम हो रही है । रिलायन्स(या अम्बानी) आज इस देश में बहुमूल्य जमीन का सबसे बड़ा मालिक व जमींदार बन गया है ।
सवाल यह भी है कि बड़े पैमाने पर जमीन को खेती से हटा लिए जाने पर हमारे कृषि उत्पादन और खाद्य-सुरक्षा का क्या होगा ? यह भी तथ्य सामने आ रहा है कि आधुनिक औद्योगीकरण और आधुनिक सभ्यता की प्राकृतिक संसाधनों की भूख जबरदस्त है, जिससे नए-नए संकट खड़े हो रहे हैं । जल-जंगल-खनिज का इतना बड़ा शोषण , दोहन एवं विनाश इस आधुनिक विकास में निहित है , यह अनुभव और अहसास आज बहुत स्पष्ट रूप से हो रहा है ।
कलिंगनगर , दादरी , सिंगुर और नन्दीग्राम के संघर्षों और विवादों ने यह जाहिर कर दिया है कि देश की सारी प्रमुख पार्टियों और सरकारों की नीतियाँ और सोच एक ही हैं, एवं तथाकथित वामपंथ ने भी आज पूरी तरह पलटी खा ली है । जो कम्युनिस्ट कल तक हर मामले में कारण-अकारण टाटा-बिड़ला को गाली देते थे , उन्हीं की सरकार आज टाटा के साथ गले में हाथ डालकर खड़ी है और किसानों-मजदूरों-बटाईदारों पर लाठी-गोली चला रही है । लेकिन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने एक सवाल खड़ा किया है, जिसका जवाब आज के भारत को खोजना होगा । उन्होंने तथा माकपा ने कहा है कि सिर्फ खेती से सबको रोजगार नहीं दिया जा सकता और उन्नति नहीं हो सकती है । उन्होंने यह भी कहा है कि किसान जब तक किसान रहेगा , खुशहाल नहीं होगा । उन्होंने ने पूछा है कि क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा ? उन्हों यह भी पूछा है कि सिंगुर-नन्दीग्राम का विरोध करने वाले क्या बंगाल का औद्योगीकरण और विकास नहीं चाहते ? इस सवाल का जवाब ममता बनर्जी और नक्सलियों को भी देना होगा । इस सवाल का जवाब साम्यवादी और पूँजीवादी दोनों विचारधाराओं में नहीं है । यह जवाब गाँधी-लोहिया के दर्शन में ही मिलेगा । यह सही है कि सिर्फ खेती में सबको रोजगार नहीं मिल सकता । लेकिन खेती करने वाला किसान खुशहाल क्यों नहीं हो सकता । गाँव-खेती के शोषण का अन्त क्यों नहीं हो सकता । खेती देश की अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख और केन्द्रीय गतिविधि हो सकती है , लेकिन देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को , ग्रामीण आबादी के भी बड़े हिस्से को , विकेन्द्रित छोटे-ग्रामीण उद्योगों लगाना होगा । इस तरह का औद्योगीकरण ही भारत जैसे देशों के लिए विकास का एकमात्र रास्ता है ।
कई प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव और विकृतियाँ सामने आने के बावजूद भारत सरकार वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की आत्मघाती नीतियों पर आगे बढ़ती जा रही है । अर्थव्यवस्था के सारे दरवाजे विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोलने के निर्णय लिए गए हैं । खुदरा व्यापार में पहले ही कई देशी कम्पनियाँ कूद चुकी हैं और शहरों में बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल आ रहे हैं । वॉल मार्ट जैसी विदेशी कम्पनियों को पूरी छूट मिलने पर यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ेगी । खुदरा व्यापार भारत के बेरोजगारों की आखिरी शरणस्थली है । इस अन्तिम शरणस्थली पर हमला शुरु हो गया है।
स्पष्ट है कि तथाकथित वैश्वीकरण और आधुनिक विकास की नीति फिर से इस देश को गुलाम और बरबाद करने तथा लूटने की नीति है । इस देश को वापस उपनिवेश बनाया जा रहा है औए ढ़ाई सौ साल पहले ले जाया जा रहा है । ऐसी हालत में , इसका पूरी ताकत से विरोध करना देश के हर सचेत और देशभक्त नागरिक का कर्तव्य है। साम्राज्यवाद के विरुद्ध १८५७ के पहले विद्रोह के डेढ़ सौ वर्ष पूरा होने के मौके पर समाजवादी जनपरिषद इसी का आह्वान करती है ।
बहुत चिन्ताजनक है यह। अगर इस गति से विशेष आर्थिक क्शेत्र बनने लगेंगे और भूमि इसी तरह बर्बाद होती रही तो कल को खाने के लिये अनाज कहाँ से आयेगा? भविष्य की सोच कर कभी कभी सिहरन होती है। गुजरात में कहते हैं कि ” जिस देश का राजा व्यापारी हो उसकी प्रजा को भिखारी होने से कोई रोक नहीं सकता और आजकल भारत में यही हो रहा है।
किसी भी राजनैतिक पार्टी का दामन इस मामले में साफ नहीं है।
कई मामलो में हमारे विचार भले ही न मिलते हो, मगर खेती लायक जमीन पर उद्योगो का लगना चिंता का विषय है. जमीन के मालिक मजदूर बन जाएंगे.
मेरी नजर में सेज आवश्यक है, मगर जमीन वह दी जानी चाहिए जो बंजर हो.
पहले जमीन को लायक बनाओ फिर उसका उपयोग करो, यहाँ तैयार जमीन को हड़पा जा रहा है.
बांगलार नरेन्द्र मोदी ?
बुद्धदेव की बांगलार नरेन्द्र मोदी ?
वे पहले बुद्धदेव थे, फिर क्रुद्धदेव हुए और अब बुद्धूदेव साबित हुए हैं.
पिकासो ने अपनी गुएर्निका में सांडों को हिंसा और आतंक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है .
नंदीग्राम की निरीह गायों पर पगलाए सरकारी सांडों का स्तब्ध करनेवाला तांडव दीदे फाड़-फाड़ कर देखा आपने ?
भारत में वामपंथ के भविष्य का रास्ता क्या वाया नंदीग्राम जाता है ?
नंदीग्राम वह ‘स्पेस’ है जहां वामपंथ और मुक्त बाज़ार नशे की हालत में गलबहियां डाले खड़े पाए गए .
नंदीग्राम वह ‘स्पेस’ है जो कुछ दिनों तक एक तरह के ‘ग्राम स्वराज’ के अधीन था . जिसे बकौल बुद्ध बाबू दखल करना बहुत ज़रूरी था कानून की प्रतिष्ठा के लिए ‘क्योंकि सब्ज़ीवाले सब्ज़ियां नहीं बेच पा रहे थे.’ ( आश्चर्य मत करिये ये बुद्ध बाबू के शब्द हैं)
नंदीग्राम वह ‘स्पेस’ है जहां बीस हज़ार से भी ज्यादा किसान और ग्रामवासी अपने अस्तित्व पर होने वाले हमले को लेकर उद्विग्न थे और ‘मरता क्या न करता’ के तहत किसी भी कीमत पर ज़मीन देने को तैयार नहीं थे .
इस कृषिप्रधान देश के किसान का मन समझे बिना विकास की बात करने वाले विदेशी भाव-भूमि पर खड़े इन सूरदासों को क्या तो कहा जाए ?
किसान का मनोविज्ञान — उसका अपनी ज़मीन से जुड़ाव – न तो मुक्त व्यापार के समर्थक बाज़ारू किस्म के लोग समझ सकते हैं और न ही भ्रष्ट एवम आपराधिक चरित्र के राजनेता . हर पांच-दस साल में अपना घर/फ़्लैट बेचकर नई जगह बस जाने वाले वाले शहरी मध्यवर्ग से भी इसकी उम्मीद करना बेकार है कि वे ज़मीन के साथ किसान के इस भावनात्मक जुड़ाव को समझ पाएंगे .
तो किसान अब अपने को छोड़ किस पर उम्मीद रखे ? किस पर भरोसा करे ?
इसी नाउम्मीदी का नतीज़ा था नंदीग्राम के किसानों का प्रतिरोध . जिसने नंदीग्राम को एक ’आइसोलेटेड’ और ‘लिबरेटेड’ इलाके में बदल दिया . जहां अपनी पूरी मशीनरी के बावजूद प्रशासन घुस नहीं पा रहा था . कुछ माह पहले दो-तिहाई बहुमत से जीतने वाली और तीस साल से राज कर रही पार्टी के नुमाइंदे घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे .
किसान बहुत धीरज धरने वाली कौम है. पर उसके धीरज का इम्तिहान लेने की भूल नहीं करनी चाहिये . उसके धीरज का बांध जब टूटता है तो तख्त उलट जाते हैं और नए इतिहास की रचना होती है .
सत्ता का चरित्र सब जगह एक-सा होता है . बुद्धदेव के बंगाल में भी वही हुआ जो नरेन्द्र मोदी के गुजरात में हुआ था . वीभत्स हत्याएं,शिशु हत्याएं और बलात्कार .
यह अकारण नहीं है कि कुछ दिनों से बुद्ध बाबू के मन में नरेन्द्र मोदी के लिए सम्मान भाव जाग्रत हो रहा था जो उनकी भाषा से भी रिस रहा था .
और इसी इनवेस्टमेंट-प्रेम, शिल्पायन-प्रेम और मोदी-प्रेम का नतीज़ा है नंदीग्राम .
सुप्रसिद्ध बांग्ला कवि जॉय गोस्वामी ने ‘बांग्लार नरेन्द्र मोदी’ यानी ‘बंगाल का नरेन्द्र मोदी’ कह कर उनकी भर्त्सना की है.
क्या आप इस तुलना से सहमत हैं ?
मैं असहमत हूं .
बुद्धदेव नरेन्द्र मोदी होना भी चाहें तो बंगाल उन्हें होने नहीं देगा .
पार्टी लाइन छोड़कर पूरा बंगाल खड़ा है नंदीग्राम के किसानों के साथ.
विपत्तियां अपने साथ अपना तोड़ भी लेकर आती हैं .
तीस सालों में पहली बार वाम मोर्चा ‘बैक फ़ुट’ पर है .
बंगाल के आम नागरिक और बुद्धिजीवी सड़कों पर उतर आए हैं.
जिसने यह दृश्य देखा है वही जान सकता है इसका प्रभाव.
महाश्वेता देवी,शंखो घोष,नवारुण भट्टाचार्य,जया मित्रा और जॉय गोस्वामी जैसे ख्यातनामा साहित्यकार ; सांओली मित्र,बिभास चक्रवर्ती,मनोज मित्र,मेघनाद भट्टाचार्य,अशोक मुखर्जी,चंदन सेन जैसे समाजचेता नाट्य व्यक्तित्व ; अपर्णा सेन ,गौतम घोष और शशि आनंद जैसे संवेदनशील फ़िल्मकार ; शुभप्रसन्न और जोगेन चौधुरी जैसे बड़े चित्रकार इसके लिए सड़कों पर उतर आए और सरकार को लानतें भेजीं. एक स्वर में धिक्कारा . विभिन्न सरकारी अकादमियों से अपने-अपने इस्तीफ़े दे दिये .
बिभास चक्रवर्ती ने कहा कि ‘बुद्धदेव के सफ़ेद कुर्ते पर खून के छीटे लगे हैं. वे लेडी मेकबेथ की तरह अब कितने बार भी धोएं उनके हाथों में रक्त लगा रहेगा .’
पश्चिम बंग सरकार द्वारा दिया गया बंकिम पुरस्कार लौटाते हुए वरिष्ठ कवि नवारुण भट्टाचार्य ने कहा कि मैं बुद्धदेव के त्यागपत्र की नहीं बल्कि इस अपराध के लिये ‘दृष्टांतमूलक शास्ति’ यानी ऐसी सज़ा की मांग करता हूं जो दूसरों के लिए एक उदाहरण का काम करे .
डॉक्टर,वकील,अध्यापक-प्राध्यापक और मीडियाकर्मियों से लेकर राजनैतिक गतिविधियों से दूर रहने वाले साधारण गृहस्थ, गृहणियां कौन नहीं आया सड़कों पर धिक्कार जताने .
यह अंतर है गुजरात और बंगाल में . गुजरात में ऐसा प्रबल प्रतिरोध दिखाई नहीं दिया . गांधीवादी तक चुप्पी खींच गये .
कोलकाता में सिंगूर और नंदीग्राम के लोगों के लिये चंदा मांग रहे कार्यकर्ताओं को लोग इस हिचक और इस शर्मिंदगी से ५०, १०० और ५०० रु. दे रहे थे मानो उनका भी कोई दोष है इस घटना में. शायद वे यह सोच रहे हों कि उनके वोटों से चुनकर आई इस सरकार की करनी का कुछ दोष तो उन पर आता ही है .
इसी लिए चाह कर भी बुद्धदेव भट्टाचार्य नरेन्द्र मोदी नहीं हो पाएंगे.
जाग्रत और सचेतन बंगाल उन्हें मोदी होने नहीं देगा .
उत्तर-गोधरा हिंसा ने मोदी को गुजरात में हीरो बना दिया .
नंदीग्राम की हिंसा ने बुद्धदेव को बंगाल में ज़ीरो बना दिया .
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इस सवाल का जवाब साम्यवादी और पूँजीवादी दोनों विचारधाराओं में नहीं है । यह जवाब गाँधी-लोहिया के दर्शन में ही मिलेगा ।
परन्तु गाँधी के चेलों ने गाँधी को लटकाया सूली पर और लोहियवादी हो गये पूँजीवादी लगे नाचने बालीवुड की तकली पर।
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