प्लास्टिक और पॉलीथिन आधुनिक विज्ञान और तकनालाजी की एक चमत्कारिक देन है। इसने पैकिंग और पैकेजिंग में एक क्रांति ला दी है और उसे काफी सुविधाजनक बना दिया है। कागज, लकड़ी, बांस, बेंत, घास, जूट, सूत, लोहा, टीन, पीतल, कांच, मिट्टी आदि की बनी वस्तुओं की जगह प्लास्टिक ने ले ली है। किन्तु इन दिनों प्लास्टिक और पॉलीथिन की चर्चा एक समस्या के रुप में ही होती है। इसका कचरा एक सिरदर्द बन गया है। हमारे नगरों, महानगरों, तीर्थों, पर्यटन-स्थलों, नदियों, रेल पटरियों – सब जगहों पर यह कचरा नजर आता है। नाले व नालियां इसके कारण अवरुद्ध हो जाते हैं। जहां दूसरा कचरा सड़ जाता है और मिट्टी बन जाता है, यह सड़कर मिट्टी का हिस्सा नहीं बनता है। पॉलीथिन में फेंके गए खाद्य पदार्थों को कई बार गायें खा लेती हैं और मर जाती हैं। यह अचरज की बात है कि गोरक्षा का आंदोलन चलाने वाले गौभक्तों ने अभी तक प्लास्टिक के खिलाफ कोई जोरदार आंदोलन नहीं चलाया है।
जमीन में प्लास्टिक-पॉलीथिन का कचरा जाने से केंचुए व अन्य जीव अपना कार्य नहीं कर पाते हैं और भूजल भी प्रदूषित होता है। यदि इन्हें जलाया जाए तो वातावरण में जहरीली गैसें जाती है। इनके पुनः इस्तेमाल (रिसायकलिंग) से भी समस्याएं हल नहीं होती।
कचरे में फिंकाने के पहले भी इनके उपयोग में समस्याएं हैं। खास तौर पर, इनमें खाद्य पदार्थों की पैकिंग से वे प्रदूषित होते हैं। कई बार पॉलीथिन का रंग खाने में आ जाता है। इन दिनों पूरे देश में पतले प्लास्टिक कप में चाय बेचने – पिलाने का रिवाज हो चला है, वह तो काफी नुकसानदायक है। अब कई जगह अभियान चलया जा रहा है कि पाॅलीथिन-प्लास्टिक की थैलियों व कप के स्थान पर कागज व कपड़े का इस्तेमाल हो।
पिछले दिनों संसद में प्लास्टिक-पॉलीथिन पर पाबंदी लगाने की मांग उठी, तो सरकार ने इंकार कर दिया। वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि इससे लोगों को रोजगार भी मिलता है। प्रतिबंध लगाने के बजाय इसे कुछ महंगा बनाया जा सकता है। इस विषय में सुझाव देने के लिए सरकार ने एक समिति गठित की है। मंत्री महोदय ने यह भी कहा कि 20 साल पहले पेड़ों को बचाने के लिए कागज के स्थान पर पॉलीथिन के इस्तेमाल का फैसला किया गया था। (28 अप्रैल,2010)
पर्यावरण मंत्री का यह बयान महत्वपूर्ण है। इससे विकास एवं पर्यावरण की हमारी घुमावदार समझ का एक चक्र पूरा होता है। बीस साल पहले हम समझ रहे थे कि कागज व लकड़ी की जगह प्लास्टिक के उपयोग से पर्यावरण की रक्षा होगी। आज हम पर्यावरण को बचाने के लिए प्लास्टिक-पॉलीथिन से वापस कागज-कपडे़ की ओर जाने की बात कर रहे हैं। सवाल है कि यह बात हम पहले क्यों नहीं समझ पाए ? बीस साल पहले भी यूरोप-अमरीका के शहरों में पॉलीथिन के उपयोग से पैदा हुई समस्याएं सामने आ चुकी थी। तब हमने उनके अनुभव की कोई समीक्षा करने की जरुरत क्यों नहीं समझी ? जरुर हमारी समझ व सोच के तरीके में कोई बुनियादी गड़बड़ी है।
दूसरा उदाहरण लें। चार-पांच दशक पहले हमने अपनी खेती की पद्धति में बड़ा बदलाव किया और पूरी सरकारी ताकत उसमें लगा दी। पारंपरिक देशी बीजों के स्थान पर विदेशों से आई संकर प्रजातियों के बीजों की खेती रासायनिक खाद, कीटनाशक, सिंचाई एवं मशीनों के भारी उपयोग के साथ होने लगी। इसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। गेहूं-चावल जैसी कुछ फसलों की पैदावार काफी बढ़ी। लेकिन अब उसमें भी ठहराव आ गया है। हरित क्रांति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। जमीन बंजर हो रही है, कीटों में प्रतिरोध शक्ति विकसित होकर वे दुर्दम्य बन गए हैं, जमीन में पानी काफी नीचे चला गया है। इन कारणों से खेती की लागत भी बढ़ रही है,किसान भारी करजे में डूब रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। इन समस्याओं के
समाधान के रुप में जैविक या प्राकृतिक खेती को पेश किया जा रहा है और सरकार भी उनके प्रचार का कार्यक्रम चला रही है। किन्तु सवाल यह उठता है कि चार दशक पहले हमारी खेती तो जैविक खेती ही थी, तब उसे रासायनिक खेती मंे क्यों बदला गया ? बार-बार हम घूमफिर कर शून्य पर क्यों पहुंच जाते हैं ? बल्कि हम शून्य से भी पीछे ऋण में पहुंच जाते हैं, यानी तब तक काफी नुकसान हो चुका होता है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि उस समय देश में अनाज की काफी कमी थी और पहली जरुरत किसी भी तरह पैदावार बढ़ाने की थी। किन्तु देश का अनाज उत्पादन बढ़ाने के हमारे अपने तरीके भी तो हो सकते थे। क्या हमने उनकी तलाश की, उनको आजमाया ? बल्कि कृषि वैज्ञानिक डॉ० रिछारिया जैसे प्रसंगों से जाहिर होता है कि न केवल विदेश से आने वाली हानिकारक प्रजातियों के बारे में उनकी चेतावनियों को नजरअंदाज किया गया, बल्कि देशी बीजों से उत्पादन बढ़ाने की हमारे वैज्ञानिकों की कोशिशों को भी दबा दिया गया। ऐसा क्यों हुआ ?
पिछली हरित क्रांति से कोई सबक लेने के बजाय सरकार दूसरी हरित क्रांति की बात कर रही है। वह जीन-इंजीनियरिंग की तकनालाजी से तैयार जीन-मिश्रित बीजों को अनुमति एवं बढ़ावा दे रही है, जो पर्यावरण के लिए बिल्कुल नई चीज हैं और इनके प्रभावों की समुचित पड़ताल भी अभी तक नहीं हो पाई है। भारत मंे करीब एक दशक पहले बीटी-कपास के बीजों की अनुमति दी गई। यह बताया गया कि इस बीज में विषैले बैक्टीरिया का जीन मिला होने से कपास में लगने वाले डोडाकृमि या बाॅलवाॅर्म नामक कीड़े की समस्या खतम हो जाएगी। इसे ‘बॉलगार्ड’ नाम दिया गया। यह बताया गया है कि इससे रासायनिक कीटनाशकों की जरुरत कम हो जाएगी, जिससे पर्यावरण व किसान दोनों का फायदा होगा। लेकिन ताजा खबर है कि गुजरात से लेकर चीन तक कई जगहों पर इस कीड़े मंे बीटी के विष की प्रतिरोधक शक्ति विकसित होने लगी है और बीटी कपास मंे भी इसका प्रकोप हो रहा है। यानी फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। प्रकृति पर विजय पाने और उसे चाहे जैसा रोंदने का के घमंड मंे चूर मनुष्य को अंततः पटखनी मिल रही है। प्रकृति अपना बदला भी ले रही है।
चैथा उदाहरण लें। कुछ साल पहले जैवर्-इंधन और जैव डीजल के अविष्कार को चमत्कारिक बताते हुए माना गया था कि इससे ऊर्जा संकट और प्रदूषण दोनों का हल निकल जाएगा। वर्ष 1987 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी एक रपट में टिकाऊ विकास के लिए जैव-ईंधन के इस्तेमाल की सिफारिश की थी। फिर रियो-डी-जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में भी जलवायु परिवर्तन व धरती को गर्माने से रोकने के एक प्रमुख औजार के रुप में इसकी भूमिका को स्वीकार किया गया था। पिछले कुछ सालों में जैव-ईंधन को बहुत बढ़ावा मिला।
किन्तु पिछले तीन वर्षों में दुनिया के स्तर पर जबरदस्त खाद्य संकट पैदा हुआ और खाद्य कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। इसकी पड़ताल हुई, तो एक खलनायक जैव ईंधन निकला। दरअसल भूमि और कृषि उपज दोनों का एक हिस्सा जैव ईंधन में जाने लगा है। संयुक्त राज्य अमरीका में पैदा होने वाली एक तिहाई मक्का से जैव ईंधन बन रहा है। यूरोपीय संघ ने 2010 तक अपने यातायात-ईंधन की 5.75 प्रतिशत आपूर्ति जैव ईंधन से हासिल करने का फैसला किया है जिसके लिए 1.7 करोड़ हैक्टेयर भूमि की विशाल जरुरत है। चूंकि यूरोप में इतनी जमीन नहीं है, इसलिए बाहर के देशों में यह खेती करवाई जा रही है। ब्राजील, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, जैसे देश बड़ी मात्रा में जैव ईंधन के निर्यात में लग गये हैं। वहां इस हेतु सोयाबीन, गन्ना, पाम आदि की खेती के विस्तार के लिए जंगलों को साफ करने की गति भी बढ़ गई है। भारत में भी हजारों हैक्टेयर भूमि रतनजोत लगाने के लिए कंपनियों को दी जा रही है।
इस तरह, अमीरों की कारों में ईंधन डालने के लिए दुनिया के गरीबों के मुंह का कौर छीना जा रहा है और जंगल भी नष्ट किए जा रहे हैं। ऊर्जा व प्रदूषण के संकट को हल करने के नाम पर एक नया गंभीर संकट पैदा कर दिया गया है।
बात ऊर्जा व प्रदूषण की चली है तो एक और मिसाल सामने आती है। पिछले कुछ समय से अणु-बिजली को ‘स्वच्छ ऊर्जा’ के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे न तो कोयला बिजलीघरों की तरह धुंआ व राख निकलेगी और न बड़े बांधों की तरह जंगल व गांवों को डुबाना होगा। इससे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। किन्तु यह बात छुपा ली जाती है कि अणुबिजली कारखानों से जो जबरदस्त रेडियोधर्मी प्रदूषण होता है और जो हजारों साल तक जहरीला विकिरण छोड़ता रहता है, उसका कोई उपाय नहीं है। एक अणुबिजली कारखाने की हर चीज धीरे-धीरे इतनी जहरीली हो जाती है कि 25-30 साल बाद कारखाने को बंद करना पड़ता है। इस जहरीले कचरे को सुरक्षित रुप से ठिकाने लगाने का कोई उपाय वैज्ञानिक अभी तक खोज नहीं पाए हैं। दिल्ली में मायापुरी के कबाड़ बाजार में हुई दुर्घटना में प्रयोगशाला की एक छोटी सी कोबाल्ट मशीन ही थी किन्तु दुनिया में अणुबिजली कारखानों का ऐसा लाखों टन का कबाड़ तैयार हो गया है जिसे कहां डाला-फेंका जाए, इस समस्या का कोई हल नहीं है। गहरे समुद्र में या भूमि के अंदर गहरा गड्ढा करके, मोटे इस्पात बक्सों में बंद करके भी उनको गाड़ा जाए, तो भी कुछ सौ सालों में इस्पात सड़ जाएगा और समुद्र का पानी या भूजल प्रदूषित होकर अंततः मनुष्य की खाद्य श्रृंखला में जहर पहुंच जाएगा। यहां भी हम स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर ऐसा भस्मासुर तैयार कर रहे हैं, जो पूरी मानवता को और भावी पीढ़ियों को आतंकित-प्रभावित कर सकता है। इसीलिए इसका काफी विरोध हो रहा है और कई देशों मंे नए अणु बिजली कारखाने डालने पर रोक लग गई है। किन्तु भारत सरकार उल्टे इसके विस्तार का बड़ा कार्यक्रम चला रही है।
इन सारे उदाहरणों व अनुभवों से एक ही निष्कर्ष निकलता है हम एक समस्या के समाधान के चक्कर में नई समस्या पैदा कर रहे हैं। एक संकट का हल खोजने में नए गंभीर संकटों को दावत दे रहे हैं। दरअसल हम रोग की गलत पहचान और गलत निदान कर रहे हैं। इसलिए ज्यों-ज्यों दवा कर रहे हैं, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता जा रहा है। बल्कि नए मर्ज पैदा हो रहे हैं। अक्सर दवा ही मर्ज बन जाती है।
ये सारे समाधान तकनालाजी पर आधारित हैं। वे इस विश्वास पर आधारित हैं कि मानव समाज की गंभीर समस्याओं का हल किसी नई तकनालाजी से, किसी नए अविष्कार से हो सकता है। यह विश्वास बार-बार गलत साबित हो रहा है। इसका कारण यह है कि तकनालाजी का चुनाव एवं विकास बहुजनहिताय न होकर थोड़े से लोगों के निहित स्वार्थ से प्रेरित होता है। ये स्वार्थ अक्सर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मुट्ठी भर अमीरों के होते हैं। प्लास्टिक-पॉलीथिन के प्रचलन और उससे संभव हुई पैकेजिंग क्रांति से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ग्रामीण बाजारों में एवं निर्धन परिवारों मेंभी छोटे पाऊच के रुप मंे अपनी बिक्री बढ़ाने का मौका मिला। हरित क्रांति में रासायनिक खाद, कीटनाशक व कृषि-मशीनें बेचने वाली कंपनियों का स्वार्थ छिपा था। जीन-मिश्रित बीजों के प्रचलन के पीछे अमरीकी कंपनी मोनसंेटो के विशाल मुनाफे हैं। जैव ईंधन के बोलबाले के पीछे वाहन उद्योग के स्वार्थ तो हैं ही, अमीरों की अपने उपभोग में कटौती करने की अनिच्छा भी है। अणुऊर्जा के विस्तार के पीछे अमरीका-यूरोप की कंपनियों के स्वार्थ हैं, जिनको अपने देशों में ऑर्डर मिलना बंद हो गए हैं। इसलिए तकनालाजी के बारे में यह भ्रम दूर होना चाहिए कि वह वस्तुनिष्ठ, मूल्य निरपेक्ष या स्वार्थ-निरपेक्ष होती है और उसकी उपयोगिता सार्वभौमिक है। उसका विकास शून्य में नहीं होता, बल्कि वह खास सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होती है। इसलिए किसी भी तकनालाजी के अंधानुकरण के बजाय अपने लक्ष्यों, मूल्यों, हितों व अपनी परिस्थितियों के मुताबिक उसकी जांच-पड़ताल होनी चाहिए।
फिर, दुनिया में जो संकट पैदा हो रहे हैं, वह चाहे पर्यावरण का संकट हो, भोजन का संकट हो या मंदी का आर्थिक संकट हो, उनकी जड़ में आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता है। यह सभ्यता मुनाफे, लूट, शोषण, गैरबराबरी, साम्राज्यवाद, लालच और भोगवाद पर टिकी है। अपने अस्तित्व के लिए इसने अनंत आवश्यकताओं और अंतहीन उपभोग की ललक पैदा की है,जो इसकी खुराक है। प्रकृति के प्रति हिकारत, शत्रुभाव और उसे दास बनाने का एक झूठा अहंकार इस सभ्यता की एक खासियत है। इन संकटों का स्थायी हल चाहिए तो आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता का ही विकल्प खोजना होगा। सभ्यता के शीर्ष पर बैठे लोग इन सच्चाईयों, विसंगतियों और इसकी विडंबनाओं को देखना व स्वीकार करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि इससे उनकी स्वयं की बुनियाद खिसक जाएगी और सत्ता दरक जाएगी। इसलिए वे नए-नए सतही, आंशिक व भ्रामक समाधान खोजते रहते हैं और नई तकनालाजी से संकटो का हल होने का भ्रम पैदा करते हैं। भारत सरकार भी इस भ्रमजाल का हिस्सा बनी रहती है, यह तो समझ मंे आता है। किन्तु भारत के आम पढ़े-लिखे लोग भी इस प्रचार व अंधानुकरण प्रवृत्ति के शिकार हो जाते हैं, यह एक शोचनीय स्थिति है। शायद हमारी दो सदियों की गुलामी की विरासत इसके लिए जिम्मेदार है कि हम स्वतंत्र रुप से सोच नहीं पाते, जांचते नहीं है और फैसले नहीं ले पाते हैं।
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लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।
– सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111
मोबाईल 09425040452
nice
हमें फिर से गांधीजी की बात याद करना होगा “प्रकृति समस्त विश्व की आवश्यकता को पूरा कर सकती है पर कुछ लोगो के लालच को नहीं. “
priya bandhu, meri ek salah hai – Sunil ji apne aalekh ko blog ki zaroorat ke anusar thoda chhota kar diya karen to padhne mein aasani hua karegi. sinhakumara.
05.06.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
बहुत उपयोगी पोस्ट है !
चिट्ठाचर्चा से आप तक पहुंची हूँ मैं ,मनोज कुमार जी को धन्यवाद दूँ कि अफलातून जी को
खैर ..सुनील जी आपने मेरे मन कि बातें कह दी हैं ,किसानों को यही बातें मैं चीख चीख कर कहती हूँ लेकिन वे लोग सुनने को तैयार ही नहीं होते उन्हें सिर्फ उपज ज्यादा चाहिए ,बीज कैसा भी हो खाद के नाम पे जहर हो उन्हें इससे कोई मतलब नहीं ,किन्तु नुक्सान हमारी धरती का हो रहा है और उसकी पीड़ा महसूस करके आँखें भर आती हैं
क्या करे ? कैसे करें?