आधुनिकतावादियों का संकत यह है कि वे पारिवारिक वफादारी से तो मुक्त नहीं हो पाते लेकिन आधुनिकता के नाम पर अपने समाज के उन परंपरागत मूल्यों को नकार देते हैं जो हमारे समाज में कभी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा पर अंकुश का काम करते थे । एक अंकुश तो था एक सीमा के बाद भौतिक वस्तुओं के प्रति उपेक्षा की दृष्टि । दूसरा अंकुश था व्यक्ति के जीवन का चार कालों में विभाजन का आदर्श जिसमें तीसरा वानप्रस्थ और चौथा सन्यास था । इसके अनुसार अधेड़ होने पर पारिवारिक जवाबदेही से निवृत्ति और बुढ़ापा आने पर सांसारिक मोहमाया से निवृत्ति जीवन का लक्ष्य था । ऐसा शायद कभी नहीं था कि आम लोगों की जिन्दगी इस आदर्श पर चलती थी । लेकिन चूँकि यह जीवन के आदर्श प्रतिमान थे,लोगों के जीवन पर परोक्ष रूप से इन आदर्शों का प्रभाव हमेशा बना रहता था । सर्वस्व दान यहाँ तक कि संतान दान तक के मिथक समाज में व्यापक थे और इनसे लोगों का जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था । इस तरह यहां के परंपरागत समाज में संपत्ति और संतान के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव कभी भी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता था । प्राचीन भारतीय समाज में शासक (राजा) स्वेच्छाचारी भी नहीं हो सकता था उसे धर्मशास्त्रों और अनेक श्रेणियों के बंधन में रहना पड़ता था । ये मूल्य सूफी संतों के माध्यम से इस्लाम के भारत में आने के बाद भी और मुगल सल्तनत तक में कायम रहे । औरंगजेब का अपने निजी खर्च के लिए खजाने कोई रकम लेने के बजाए कुरान के आयतों की नकल कर खर्च चलाना और अपनी कब्र तक को बिना किसी तामझाम के फकीरों की कब्रों के बीच स्थापित करने की आज्ञा देना इसका प्रमाण है । इन सबके ऊपर असंग्रह या अपरिग्रह जीवन के उच्चतम आदर्शों में थे । यह स्वाभाविक रूप से संपत्ति के प्रति के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करता था । महात्मा गांधी अगर संपत्ति और संतान के संकीर्ण मोह से बचे रहे तो इसका खास कारण ऊपर बताए गए मूल्यों के प्रति उनकी गहरी आस्था ही थी ।
इसके विपरीत भारत के आधुनिकतावादी जीवन का प्रधान लक्ष्य भौतिक या आर्थिक उपलब्धि मानते हैं । लेकिन इनके लिए खुली प्रतिस्पर्धा की जगह जो आधुनिकता की माँग है , पारिवारिक या जातीय खोल के भीतर से ही उपलब्धि के संघर्ष में जुटना चाहते हैं । यह दोष दिनोंदिन और भी सघन होता गया है ।
इसका एक खास सामाजिक कारण भी रहा है जिसे दूसरे समाजों में भी देखा जा सकता है । इसका सबसे प्रधान कारण है आधुनिक समाज में जीवन की उपलब्धि को एक ही आयाम यानी अर्थ उपार्जन में देखना । उपलब्धि का एक आयामी होने से व्यक्तियों के कर्म चाहे वे जिस क्षेत्र में हों आर्थिक कसौटी पर कसे जाने लगते हैं । सभी तरह के सृजन , चाहे वे शिल्प में हों , अन्य कलाओं में हों या विज्ञान में , बाजार में विनिमय की वस्तु बन जाते हैं । उनको आँकने का एक ही मापदंड है – यह देखना कि उससे कितना धन का उपार्जन होता है । इसमें सफलता के रूप में होती हैं वे सारी सामग्रियां जिन्हें पैसे से खरीदा जा सकता है । यहीं से उपभोक्तावादी संस्कृति को उर्जा मिलती है और लोग अपनी उपलब्धि के पैमाने के रूप में उपभोग के विभिन्न उपकरणों का जखीरा लगानेलगते हैं । जैसे – जैसे उपभोग की वस्तुओं की किस्में बढ़ती जाती हैं वैसे – वैसे लोगों के जीवन के ढंग और स्तरों का फर्क भी बढ़ने लगता है । इससे एक ओर संपन्नता के प्रतीक वस्तुओं क संख्या अनगिनत होती जाती हैं और दूसरी ओर इन्हें प्राप्त करने की स्पर्धा उत्तरोत्तर अधिक कठोर होती जाती है ।
एक और चीज जो आधुनिक औद्योगिक समाज के विकास का अभिन्न अंग है वह है सुविधाओं का व्यवस्था में हासिल किए गए स्थानों पर निर्भर होना । जो व्यक्ति व्यावसायिक या राजनैतिक प्रतिष्ठानों में जितना ही ऊँचा स्थान हासिल करता है उसकी आय और सुविधायें उतनी ही अधिक होती हैं । इसे योग्यता के आधार पर समान अवसर के सिद्धांत के रूप में गरिमामंडित किया जाता है। इसके कारण आधुनिक समाज में कोई भी अपनी सुविधा को कानून और नियम के तहत अपने वंशजों को उस तरह हस्तांतरित नहीं कर सकता जिस तरह वंश परंपरा वाले पारंपरिक समाज में संभव था । लेकिन चूंकि समाज के भीतर जीवन स्तरों का फर्क बहुत ही ऊंचा होता है इससे कोई भी आदमी यहीं चाहता कि उसकी संतान या अन्य नजदीकी रिश्तेदार समाज की निचली सीढियों पर फेंक दिए जांए जहां उन्हें जीवन की वे सुविधायें उपलब्ध नहीं हो सकें जिनके वे अभ्यस्त हैं । यहीं से आधुनिक समाज में कुनबापरस्ती और भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है । ऊँचे स्थानों पर जमे लोग अनेक तरह से समान अवसर के आधुनिक सिद्धांत के प्रतिकूल ऐसे तरीकों की तलाश करते हैं, जिनसे समान प्रतिस्पर्धा के कठिन रास्ते से उनके वंशजों को निजात मिलजाए और वे चोर दरवाजे से ऊँचे स्थानों पर पहुंच जाएं , या अपनी योग्यता के अनुपात से कहीं अधिक आर्थिक लाभ ले सकें । रूस में जहाँ उत्पादन के साधनों पर राज्य का अधिकार था और सुविधायें लोगों को राज्य या अर्थव्यवस्था में हासिल पद के आधार पर मिलती थी अपने सगे-संबंधियों को आगे बढ़ाने के लिए अपनाए जाने वाले भ्रष्ट आचरण काफी व्यापक थे ।
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आपका बिलकुल ठीक है अर्थ को अत्यधिक सम्मान देना ही भ्रष्टाचार का हेतु है.
[…] […]
[…] पिछला भाग आअधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊंचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि पहुंचा सकते हैं । लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है । इस कारण एक ऐसे समाज में जहां धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें और धन कमाकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करें । यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरु होता है । लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम कानून पर चलने और बरारबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है ।ऐसे समाजों में लोग भ्रष्ताचार के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है । हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है । इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग – अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज में संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गयी है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें । इस कारण कोई भी व्यक्ति जो चोरी , बेईमानी , घूसखोरी तथा हर दूसरी तरह के कुत्सित कर्मोम से धन कमा लेता है वह सम्मान पाने लगता है। इस तरह कर्म से मर्यादा का लोप हो रहा है। आधुनिकतावादियों पर , जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं तथा आधुनिक उपकरणों से सज्जित ठाठबाट की जिंदगी को अधिक महत्व देते हैं , भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है । इस तरह हमारे यहां भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्कि उस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई हैं । इसी का नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते । चूंकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है कुनबापरस्ती या खानदानशाही के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता। आम लोग इसे स्वाभाविक मान्कर नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है । ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीयकरण रहेगा जहां थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीरऔर किसी को गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी बनी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार के दबाव से समाज मुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं । एक ऐसे समाज में ही जहां जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता है। भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है जहां समाज के ढांचे को बदलने के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्ताचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमेशा हमला हो सके ।बिहार में चलने वाले 1974 के छात्र आंदोलन की कुछ घटनाएं इसका उदाहरण हैं , जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ‘संपूर्ण क्रांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी उर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी । लेकिन न तो संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य स्पष्त था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था । इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी उर्जा प्राप्त हो गई । अंततः हर बड़ी क्रांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्दगिर्द होती है । इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करते हैं। हमारे देश में , जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है और आधुनिक औद्योगिक समाज की संभावना विवादास्पद है , भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले। इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलाओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे। – सच्चिदानंद सिन्हा. भाग 1 […]