विदेशियों का हुक्म सिर-आँखों पर ( गत प्रविष्टी से आगे )
देशप्रेम के स्थान पर विदेश प्रेम तथा आम जनता के स्थान पर कंपनियों के हितों को बढ़ाना – यही भूमंडलीकरण की नई व्यवस्था का मर्म है । इस अंधे विदेश प्रेम ने हमारे मंत्रियों , अधिकारियों , विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की सोचने की शक्ति को भी कुंद कर दिया है । पिछले पन्द्रह वर्षों से उन्होंने मान लिया है कि देश का विकास विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों से ही होगा । विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए और खुश करने के लिए भारत की सरकारों ने पिछले पन्द्रह वर्षों में सारी नीतियाँ और नियम-कानून बदल डाले । पिछले पन्द्रह वर्षों में हमारी संसद तथा विधानसभाओं ने कानूनों में जितने संशोधन किए हैं और नए कानून बनाए हैं , उनकी जाँच की जाए तो पता लगेगा कि ज्यादातर परिवर्तन विदेशी कंपनियों के हित में तथा विदेशी कंपनियों के कहने पर किए गए हैं । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष , विश्व बैंक , एशियाई विकास बैंक , विश्व व्यापार संगठन , अमरीका सरकार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर ये परिवर्तन किए जा रहे हैं । देश की जनता कोई मांग करती है तो सरकार को साँप सूँघ जाता है या या वह लाठी – गोली चलाने में संकोच नहीं करती है । लेकिन विदेशी कंपनियों की मांगें वह एक – एक करके पूरी करती जा रही है ।
गौरतलब है कि जिस विदेशी पूँजी को लाने और खुश करने के लिए नीतियों-कानूनों में ये सारे परिवर्तन किए जा रहे हैं और जिस पर ही सरकार की , योजना आयोग की , सारी आशाएं केन्द्रित हैं,वह विदेशी पूंजी अभी भी देश में बहुत मात्रा में नहीं आ रह है । उसकी मात्रा धीरे-धीरी बढ़ी है ,लेकिन पिछले पांच वर्षों का भी औसत लें , तो भारत के कुल घरेलू पूंजी निर्माण में उसका हिस्सा ४-५ प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाया है । मात्र ४-५ प्रतिशत पूंजी के लिए हम अपनी सारी नीतिय्यँ कानून बदल रहे हैं और देश को विदेशियों के कहने पर चला रहे हैम , क्या यह उचित है? यह सवाल पूछने का सम्य आ गया है।
उड़न-छू विदेशी पूंजी
सीमित मात्रा में जो विदेशी पूंजी आ रही है , उसका भी कोई विशेष लाभ देश को नहीं मिल रहा है । विदेशी पूंजी निवेश को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है – पोर्टफोलियो निवेश और प्रत्यक्ष निवेश (FDI ) । विदेशी पूंजी का लगभग आधा हिस्सा पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आ रहा है,अर्थात यह हमारे शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-फरोख्त करने और सेयरों की सट्टेबाजी से कमाई करने आती है । अभी जब सेन्सेक्स दस हजार से ऊपर पहुंचता है,वह इसीका कमाल है । इस प्रकार,यह पूंजी तो सही अर्थों में देश के अन्दर आती ही नहीं है । इससे देश में कोई नया रोजगार नहीं मिलता या नई आर्थिक उत्पादक गतिवि्धि चालू नहीं होती है। बल्कि , शेयर बाजार में आई यह विदेशी पूंजी बहुत चंचल और अस्थिर होती है । यह कभी भी वापस जा सकती है और पूरी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकती है । इसे ‘ उड़न-छू पूंजी ‘ भी कहा जाता है । दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में कुछ वर्ष पहले जो संकट आया था,उसमें इसी विदेशी पूंजी के भागने तथा अल्पकालीन विदेशी ऋणों के प्रवाह के बंदे हो जाने का बड़ा योगदान था । इस संकट के पहले इंडोनेशिया , थाईलैण्ड , मलेशिया , फिलीप्पीन , दक्षिण कोरिया आदि देश विश्व बैंक की सफलता के प्रिय उदाहरन थे और इन्हें ‘एशियाई शेर ‘ कहा जाने लगा था । लेकिन विदेशी पूं जी के पलायन ने इन शेरों को अचानक गीदड़ों में बदल दिया । दूसरे देशों के अनुभव से भी हमारे शासक सीखते नहीं हैं , यह एक विडंबना है ।
अगली प्रविष्टी : विदेशी कंपनियों का हड़पो अभियान
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