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चिट्ठेकारी के दस साल पूरे होने पर काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है । करीब सात करोड़ चिट्ठों के अस्तित्व में होने का मौजूदा अनुमान है और उन पर करीब पन्द्रह लाख प्रविष्टियाँ हर रोज़ डाली जाती है । दस साल पहले न्यू यॉर्कवासी डेव वाइनरने पहली प्रविष्टि में उन वेब साइटों का जिक्र किया था जिन पर उस दिन वह गया था ।ब्लॉग शब्द करीब दो साल बाद आया लेकिन वाइनरकी प्रविष्टी को चिट्ठाकारी की पैदाइश की तारीख मानते हुए दुनिया में कई जगह पिछले हफ़्ते चिट्ठेकारों ने दस साल पूरे होने के आयोजन किए ।
चिट्ठेकारी का शौक ब्लॉगर.कॉम के १९९९ स्थापना के बाद बढ़ने लगा । टेक्नोरैटी के प्रमुख डेव सर्फ़ी के अनुसार दुनिया भर में रोजाना करीब १२०,००० नए चिट्ठे बन रहे हैं, अर्थात हर पल १.४ चिट्ठे । टेक्नोरैटी के आँकड़ों के अनुसार दो तिहाई प्रविष्टियाँ जापानी और अंग्रेजी में होती हैं । ज्यादातर चिट्ठों पर आने वालों का समूह बहुत छोटा होता है परन्तु कुछ वाकये ऐसे भी हुए हैं जब चिठों की प्रविष्टियाँ अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रहीं हैं।इरान और चीन जैसे मुल्कों में प्रतिपक्ष और बदलाव की आवाजें भी इनके द्वारा मुखरित हुई हैं ।
चिट्ठेकारी का चिन्ताजनक पक्ष प्रस्तुत करते हैं एन्ड्र्यू कीन जैसे शक्स । डॉट कॉम से जुड़े रहे एन्ड्र्यू की किताब Cult of the Amateur : How Today’s Internet is Killing Our Culture आगामी जून माह में छप कर आयेगी ।उनके अनुसार, ‘चिट्ठेकारी का सम्मोहन लोगों में यकीन पैदा कर देता है कि उनके पास बताने के लिए काफ़ी कुछ है जो रुचिपूर्ण भी है , दरअसल ऐसा होता नहीं है ।लोग खुद से खुद के बारे में बतियाते-बतियाते आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे हैं ।’
[ गार्जियान अखबार में बॉबी जॉनसन के आलेख पर आधारित ]
maharaj, guardian wala link saath mein rakh dete…?
अच्छी जानकारी लाये हैं. आजकल तो यही चर्चा में है .धन्यवाद. 🙂
वाकई; यह आत्म मुग्धता बडा़ छलावा है. हिन्दी के ब्लॉगरों में कुछ ज्यादा ही है शायद!
इतनी जानकारी देने के लिये धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
प्रमोद सिंह जैसे पाठक बन्धुओं के लिए जो पुछल्ला शब्दों के सहारे भी मूल आलेख तक पहुँचने में कठिनाई महसूस रहे हैं : गार्जियन पर खटका मारें ।
आत्ममुग्धता?
हाँ सही कहा. सचमुच हम इसके शिकार है.
ब्लोग का एक फायदा, आत्मविश्वास में बढ़ोतरी के रूप में सामने आ रहा है.
ज़बर्दस्त जानकारी के लिए शुक्रिया आपका – राजनीतिक पर लिखते लिखते अब जानकारीयां भी देने लगे – लगे रहिए 🙂
एन्ड्र्यू कीन की टिप्पणी में सच्चाई का अक्स है . आत्ममुग्धता का गुब्बारा फूलता दिख रहा है .
उपर्युक्त उद्धरण के बरअक्स निम्नलिखित उद्धरण को भी यदि ध्यान में रखें तो सटीक जवाब मिल जाएगा:
“If they’re not sticking to standards, it’ll be noticed by readers and other webloggers, who will take the author to task for the impropriety. The community acts as the editors.”
आशय यह कि चिट्ठा लिखने वाला आत्म-मुग्धता का शिकार होकर फुलकर चाहे जितना गुब्बारा बन ले, लेकिन जब सजग पाठकों की टिप्पणियों की सूइयां उसे चुभनी शुरू होती हैं तो उसे पिचककर अपनी औकात में आना ही पड़ता है। पाठकों की टिप्पणियां चिट्ठाकारों के लिए संपादकीय अंकुश का काम करती हैं।
हिन्दी चिट्ठाकारी में भी इसे घटित होते देखा गया है। चिट्ठाकार जब फुलकर गुब्बारे बनने लगते हैं तो टिप्पणियों की सूइयां ही उन्हें औकात में रहने के लिए मजबूर करती हैं।
आपने बिल्कुल सही जानकारी दी। चिठ्ठेकार आत्ममुग्धता के शिकार होते हैं और कई लोग तो जबरिया अपनी रिपोर्ट पढ़वाकर अपनी पीठ भी ठुकवाते हैं। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि यह माध्यम ऐसा है जिसका सदुपयोग किया जाए तो लोग एक दूसरे के निकट आने के साथ सभ्यता, संस्कृति, समाज, खानपान, रहन सहन, दिक्कतों, सुविधाओं से परिचित हो सकते हैं। इस माध्यम से एक दूसरे को बेहतर जानकारियां दी जा सकती है और कई मुद्दे इस तरह उठ सकते हैं कि उन पर सरकारों और संगठनों को विचार करना पड़ सकता है। हम अपने ब्लॉग पर लिखी बातों को सांसदों और विधायकों एवं नौकरशाहों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं जिनसे हो सकता है समाज या समस्याग्रस्त लोगों का भला भी हो जाए। आत्ममुग्ध या खुद की प्रशंसा से बेहतर है हम एक नए और सुशिक्षित समाज के निर्माण के लिए ब्लॉगों का इस्तेमाल करें।
अगर कोई चीज आपमें इतना यकीन पैदा कर दे कि आप अपनी बात एक बडे मंच पर लाने को तैयार हो जायें….तो चीज में दम है भाई।
कीन इसे आत्ममुगधता कह रहे हैं…कोई इसे आत्मविश्वास भी कह सकता है…अपना अपना नजरिया है।
ज्यादा कूछ कहने की बजाय यही कहना चाहूंगा कि मैं भी कमल शर्मा जी से सहमत हूँ।
सही विचार रखें है, आज के दौर मे यह देखने को मिल रहा है। ब्लागिंग को लोगों ने अपने जंग का अड्डा बना दिया है। कुछ बन्धु ऐसे भी है जिन्हे लगता है तो कि हिन्दी ब्लाग कोई बड़ा मंच नही है किन्तु वे इसका मोह छोड नही पाते है।
शायद यही दर्शाता है …………….
सच ही है, ‘लोग खुद से खुद के बारे में बतियाते-बतियाते आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे हैं’
Kuch Logo ne apna samooh bana liya aur wahi 4-5 log ek dusre ke post ko padhte hain aur usme comment bhi karte hain. Aur phir kush hona lajimi hai. itne post, itne comments, itni hits. Ye to wahi baat ho gai ” Main tujhe Mir kahoo tu mujhe Galib”. 🙂 🙂
Isse upar uthakar kuch constructive likhne ke baare mein soche to behtar hoga.
[…] अफलातूनजी ने बहुत मेहनत करी हमें अपनी पोस्ट को पढ़वाने के […]
लेख पढ़ लिया था। आत्ममुग्धता कम आत्मविश्वास वाली बात ज्यादा सही लगती है।
अच्छी जानकारी मिली आप यह लेख पढ कर…
बहुत छोटा सा अलेख, लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण बातें. आप ने आखिरी पेराग्राफ में बहुत ही सही निष्कर्ष दिया है. सारे लेख में जो इतिहास, विश्लेषण है तथा अंत में जो निष्कर्ष आपने आखिरी पेरा में दिया है उन सब का समर्थन करता हूं.
[…] चिट्ठेकारी सम्मोहक आत्ममुग्धता की जन… […]
[…] चिट्ठेकारी सम्मोहक आत्ममुग्धता की जन… […]
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