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खेल – खेल में
संजय मंगला गोपाल । संजय ने अपने नाम से अपने माता – पिता का नाम जोड़ा है । आम तौर पर नाम के साथ जातिसूचक ‘सरनेम’ (गुजराती में एक इसके लिए शब्द है-‘अटक’) जुड़ा रहता है। महाराष्ट्र में समता आन्दोलन और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़े कई तरुणों ने अपने माता-पिता के नाम जोड़ना, सरनेम की जगह बरसों से शुरु किया है। भारतीय समाज में जाति की सूचना सिर्फ़ इतने से न मिले, यह नामुमकिन है।सन १९८५ में बाबा साहब अम्बेडकर की जयन्ती में मेरा भाषण सुनने के बाद एक छात्र मुझसे मिला और बोला,’आपका भाषण तो अच्छा रहा लेकिन आपकी जाति क्या है?’ मैंने उसे कहा कि मैं जाति में यकीन नहीं रखता।उसने पलट कर कहा , ‘ कोई जाति होगी जो आप में यकीन रखती होगी,उसीका नाम बता दीजिये ‘। मैं निरुत्तर हो गया ।
बहरहाल तरुणों और किशोरों के लिए आयोजित ‘ समता संस्कार शिबिरों ‘ में संजय कुछ खेलों के जरिये प्रशिक्षण देते हैं । जाति प्रथा को समझने और उसके उन्मूलन पर प्रशिक्षण हेतु जो खेल होता है उसमें ५-७ की छोटी टोलियों में लड़के- लड़कियों को बाँट दिया जाता है। छोटी टोलियों में बोलने का संकोच कम होता है और कई टोलियों से कई विचार आयें इसकी सम्भावना भी अधिक रहती है ।सभी टोलियों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं जिन पर टोली का हर सदस्य अपने जवाब देता है । टोली में हुई चर्चा के नोट्स लेने का काम एक साथी करता है । टोलियों से आये निष्कर्षों की चर्चा सभी शिबिरार्थियों के बीच होती है । जाति-प्रथा उन्मूलन वाले खेल में ऐसे सवाल होते हैं :-
- अपनी जाति की जानकारी और अहसास आपको पहले-पहल कब और कैसे हुआ ?
- अन्य जातियों ( ऊपर की तथा नीचे की ) के साथ आपकी जाति के सम्बन्ध , व्यवहार के बारे में बताइये ।
- क्या जाति विहीन समाज की स्थापना स्थापना सम्भव है ? क्यों और कैसे ?
सभी टोलियों की रपट प्रस्तुत होते वक्त जाति-प्रथा के बारे में एक छवि उभर कर आ जाती है। जाति का प्रथम अहसास किसी को अपने से काफी उम्र वाले व्यक्ति द्वारा ,’बाबा प्रणाम’ सुन कर हुआ था तो किसी को जाति-सूचक गाली सुनकर ।
मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के वयस्कों के बीच इस खेल में पहली बार भाग लिया था । महाराष्ट्र के फुले-अम्बेडकर और समाजवादियों के सामाजिक आन्दोलन में ऐसे खेल नये नहीं हैं । उत्तर प्रदेश के समाजवादी आन्दोलन के बुजुर्ग साथियों के लिए भी यह नया अनुभव था।दरअसल पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाजवादी ‘अंग्रेजी हटाओ-भारतीय भाषा लाओ’ और अलाभकर खेती पर लगान न लगाने के आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं लेकिन जाति-प्रथा उन्मूलन और स्त्री-पुरुष समता आदि के संस्कार के लिए ऐसे कार्यक्रमों का अभाव रहा है। शायद जिस रूप में हम शोषक होते हैं,वहाँ हम शोषण नहीं देखना चाहते। महाराष्ट्र में अन्तरजातीय विवाह करने वाले जोडों के सार्वजनिक सम्मान भी आयोजित होते हैं।
ऐसे ही नर-नारी समता और साझा संस्कृति को समझने के लिए होने वाले खेल भी ‘समता संस्कार शिबिरों’ में काफी लोकप्रिय होते है। दूसरे धर्म के बारे में क्या जानते हैं? इस सवाल के जवाब में प्राय: सभी की स्थिति धुरविरोधी के चिट्ठे पर अविनाश द्वारा बतायी गयी अपनी हालत(islaam ko nahi jaanta) जैसी होती है ।
गैर जवाबदेह चुनाव आयोग
संजय के एक अन्य खेल में पहला सवाल राज्य-व्यवस्था के बारे में होता है। संक्षिप्त चर्चा के बाद ही इस नतीजे पर लोग पहुँचते है कि अन्य व्यवस्थाओं से मौजूदा लोकतंत्र बेहतर है। बहुदलीय लोकतंत्र की अहमियत समझ लेने के बाद राजनीति की अहमियत समझना आसान हो जाता है ।
आज चुनाव व्यवस्था की एक गम्भीर कमी की ओर ध्यान खींच रहा हूँ । चुनाव-संचालन की संवैधानिक जिम्मेदारी भारत के निर्वाचन आयोग की है और स्थानीय प्रशासन की मदद से आयोग इसे सम्पन्न करता है । आयोग के द्वारा राजनैतिक दलों पर अंकुश रखने ,नकेल कसने और सख्ती की खबरें चुनाव के दिनों में सुर्खियों में रहती हैं । कई चुनाव आयुक्त तो राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिए गए बयानों से आकर्षण का केन्द्र भी बन जाते हैं । उसी उत्साह में टी.एन. शेषन सिर्फ शिव सेना के समर्थन से राष्ट्रपति का चुनाव लड़ गये थे ।
राजनीति के भ्रष्टाचार से आक्रान्त जनता चुनाव आयोग की खामियों पर गौर नहीं करती । अलबत्ता इन कमियों का शिकार जरूर हो जाती है । भारतीय प्रशासन-तंत्र में जवाबदेही का घोर अभाव है और चुनाव आयोग इससे परे नहीं है । ब्रिटिश शासन में यह जरूरी था कि उपनिवेशों की प्रजा छोटे से छोटे सरकारी मुलाजिम का साबका पड़ने पर अपने मौलिक अधिकारों को भूल कर दबा हुआ-सा रहे । क्या आजादी मिलने के ६० वर्षों के बाद एक लेखपाल(पटवारी) या सिपाही के समक्ष आम किसान दब कर नहीं रहता ?
मतदाता सूची में भारी गड़बडियों का अन्दाज पिछले लोकसभा चुनाव में एक एक क्षेत्र में हजारों लोगों के नाम गायब होने के बाद लग गया था। कई लोग जिनके पास भारत के चुनाव आयोग द्वारा जारी फोटो पहचान पत्र था लेकिन सूची में नाम न होने की वजह से मताधिकार से वे वंचित रहे । अखबार और टे.वि. चैनलों पर इन लाचार लोगों के चेहरे दिखा दिये जाते हैं , बस । लोकसभा चुनाव के बाद कई समूहों ने आयोग से इसकी शिकायत भी की थी। आयोग के निर्देश पर मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों के बदले डाकियों के से करवाया गया ताकि पतों की पुष्टि आसानी से हो जाये। मौजूदा चुनाव अधिसूचना जारी होने के दो दिन पहले तक वाराणसी में पहचान पत्र हेतु फोटो खींचने का काम चलता रहा( बनारस में ११ अप्रैल तक) लेकिन हजारों लोग जिन्होंने डाकियों को नाम जोड़ने या सुधारने के लिए फार्म६ दिये थे और पोस्ट-मास्टरों के दस्तखत और मुहर सहित उसकी पावती संभाल कर रखी थी उनके नाम फिर गायब थे । मतदान से वे फिर वंचित रहेंगे। बड़े दल इसे मुद्दा नहीं बनायेंगे चूंकि जिनके नाम हैं उनसे भी चुनाव तो सम्पन्न होगा ही। प्रशासन तंत्र पर चुनाव आयोग इस भारी त्रुटि के लिए कोई कदम नहीं उठायेगी।
कई साल पहले हजारों की संख्या में फोटो पहचान पत्र गंगा किनारे फेंके पड़े मिले थे। इस बार यह निर्देश था कि फोटो पहचान पत्र देते वक्त मतदाता के दस्तखत लिये जाएं तो स्थानीय अखबारों में खबर थी की बड़ी संख्या में प्रारूप ६ जला दिये गये हैं ।
मेरे पास ऐसे मतदाताओं के प्रारूप ६ की पावतियाँ और पहचान पत्र हैं जिनके नाम पुन: सूची से गायब हैं। आयोग के उपायुक्त को अधिसूचना जारी होने के पहले लिखा भी है लेकिन स्थानीय प्रशासन की इस गैरजिम्मेदारी पर आयोग की ओर से किसी कदम की उम्मीद मुझे नहीं है। अधिसूचना जारी होने के बाद अदालत भी हस्तक्षेप नहीं करती है। लोकतंत्र को कमजोर करने में नौकरशाही की भूमिका और आयोग की उनसे मिलीभगत की इस मिसाल के कारण एक-एक विधान-सभा क्षेत्र में हजारों लोग मताधिकार से वंचित रहेंगे। आप की सलाह आमंत्रित है ।
is tarah ke blog ka avlokan karne ke pahle…….sahi me meri agyanata hi thee i sochta tha hindi blog par kuchh thos aur tarkik jiske kuchh samajik soddeshy bhi ho nahi likha jata…vaise me manta tha ki blog par masti aur aatmonmukhi cheeze hi jyada rahti he banispat kuchh vicaratmak aur dishaayukt lekhan ke…
bahut bahut sadhuvaad….aapko…apke uttam lekho ke liye