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[ मुकेश अम्बानी द्वारा सब्जी-फल बेचने के लिए रिलायन्स फ़्रेश नामक एक कम्पनी की शुरुआत हुई है । राँची और इन्दौर में रिलायन्स फ़्रेश की दुकानों पर शहर में पटरियों पर और ठेले पर फल – सब्जी बेचने वाले लोगों ने इसका तीखा प्रतिकार किया ।
चिट्ठालोक में देबाशीष ने इस मसले पर एक परिचर्चा प्रसारित की है । खेती-किसानी और शहरी सभ्यता के हाशिये पर जी रहे लोगों द्वारा देश के सब से बड़े पूँजीपति से लोहा लेने की शुरुआत से हमें एक किसान नेता की करतूतों की याद ताजा हो गयी ।
जोशे बोव्हे के बारे में मेरा यह लेख हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ट पर २३ अक्टूबर , २००३ को छपा था । २२ जनवरी २००४ को कोका कोला के बॉटलिंग संयंत्र के खिलाफ केरल के प्लाचीमाड़ा में चल रहे संघर्ष के अन्तर्गत एक ‘विश्व जन जल सम्मेलन ‘ में मुझे भाग लेने का अवसर मिला तब जोशे बोव्हे से मुलाकात का अवसर मिला था । ]
साभार : मातृभूमि
विश्व के अलग – अलग कोनों में घटित किसान – आक्रोश की इस घटनाओं पर गौर करें – खाद्यान्न उत्पादन की जो प्रक्रिया समूची दुनिया की खेती पर कब्जा करना चाहती है उसकी एक प्रतीक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘ मैक्डोनाल्ड ‘ को मानते हुए १२ अगस्त , १९९९ को फ्रांस के एक कस्बे मिलाऊ में किसानों ने कंपनी की निर्माणाधीन दुकान को ध्वस्त कर दिया था । पुलिस को कार्यक्रम की इत्तला दे दी गई थी । कार्यक्रम दिनदहाड़े हुआ । एक दरोगा ने कार्यक्रम के पूर्व किसानों के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि कंपनी के प्रबंधकों से कह कर वह कोई प्रतीक चिह्न रखवा देगा जिसे तोड़ कर किसान अपना कार्यक्रम ‘ संपन्न ‘ कर सकते हैं । किसानों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और कंपनी के तमाम खिड़की , दरवाजे और पार्टिशन दो ट्रालियों में लाद कर उन्हें पुलिस मुख्यालय ले जा कर सुपुर्द कर दिया । सड़क के दोनों तरफ जुटी जुटी जनता ने करतल ध्वनि से इस काफ़िले का स्वागत किया । १९९८ में सिएटल में जीन संवर्धित मक्के की फसल को बर्बाद करने के आरोप में कई किसानों को न्यायालय द्वारा दोषी पाया गया । १९९९ में सिएटल में विश्वव्यापार संगठन के सम्मेलन के विरुद्ध हुए प्रदर्शन में सैंकड़ों किसानों ने भी भाग लिया ।
२६ जनवरी , २००१ को ब्राजील के एक कस्बे ‘ नाओ मी टोक ‘ में हजारों गरीब किसानों ने जैविक तकनीक और बीजों के उत्पाद से जुड़ी दानवाकार बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसान्टो के प्रयोगों के लिए बने फार्म पर हमला बोल दिया । इस फार्म के करीब तीन एकड़ जमीन में लगी जीन संवर्धित सोयाबीन की फसल को उखाड़ फेंका ।
इस सभी घटनाओं का केन्द्र बिंदु ‘ किसानों का रॉबिनहुड ‘ कहे जाने वाले फ्रांसीसी किसान नेता जोशे बोव्हे हैं । जोशे बोव्हे की पृष्टभूमि १९६८ के नववामपंथी रुझान के युवा आक्रोश में शिरकत की रही है परंतु किसान आंदोलन से जुड़ने के बाद अपने आंदोलन को वे ‘ चे ग्वेवारा से अधिक गांधी से प्रभावित ‘ मानते हैं । उनकी तुलना आस्ट्रिक्स नामक कार्टून नायक से भी की जाती है जो ताकतवर रोमन साम्राज्य को चुनौती देने वाला चरित्र था। आस्ट्रिक्स साम्राज्यवादी आंधी के समक्ष , डट कर खड़े फ्रांसीसी व्यक्तित्व का भी प्रतीक है । साम्राज्य का केन्द्र रोम से हट कर न्यूयॉर्क और सिएटल के समिति कक्षों में भले चला गया हो लेकिन जोशे बोव्हे के वैश्वीकरण विरोध में ‘ आस्ट्रिक्स ‘ का तेवर झलकता है । जमीन से जुड़े इस किसान का कहना है कि स्पेन के गृहयुद्ध के क्रोपटकिन जैसे अराजकतावादियों के अलावा उन पर ‘ अपने जीवन को बदले बिना दुनिया में बदलाव नहीं लाया जा सकता ‘ तथा ‘ सशक्त अहिंसात्मक व प्रतीकात्मक कार्रवाइयों को बड़े जनांदोलनों से समन्वित करने ‘ की प्रेरणा उन्हें महात्मा गांधी से मिली ।छठे दशक के मार्टिन लूथर किंग के नागरिक अधिकार आंदोलन तथा कैलिफोर्निया के अंगूर बागानों में काम करने वाले गांधीवादी सीजर शावेज से भी उन्हें इसी कारण प्रेरणा मिली।
आस्ट्रिक्स , साभार विकीपीडिया
१९८१ में मितरां के चुने जाने के बाद किसानों के एक तबके में आशा जगी थी । किसान आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों का तर्क था कि , ‘ हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे सत्ता में आए ‘समाजवादियों ‘ का नुकसान हो जाए ‘ । कुछ लोग यह सोचकर दिग्भ्रमित हो गए कि ‘ समाजवादियों के आने से चीजें बदलेंगी मगरं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ‘ । पैसा सबसे महत्वपूर्ण माना जाने लगा , व्यवसायीकरण शुरु हो गया तथा सामाजिक प्रश्नों के भी ‘व्यक्तिगत समाधान ‘ ढूंढ़ने की वृत्ति बढ़ने लगी । जोशे बोव्हे के किसान आंदोलन पर इन बातों का प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा । उन्हीं दिनों उन्होंने सघन खेती के विकल्प में छोटे उत्पादकों को संगठित करना शुरु किया तथा तरुणों को आंदोलन से जोड़ा । नब्बे के दशक में सामाजिक सरोकारों के कुछ मुद्दे एक नई ढंग की राजनीति का हिस्सा बन सके । बेघरों के लिए घर का संघर्ष एक ऐसा ही मुद्दा था जो बाद में शुरु हुए वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बन गया । सामाजिक प्रश्नों से जुड़े रचनात्मक कार्यक्रमों से जिस शक्ति का निर्माण होता है वह संघर्ष के मौकों पर प्रकट होती है । ‘ मैकडॉनाल्ड ‘ के शोरूम को ध्वस्त करने का मुकदमा जब जून २०० में चला तब उसकी सुनवाई के लिए दस हजार समर्थकों की भीड़ जुटती थी । विश्व अर्थव्यवस्था को समझने की वैश्विक दृष्टि से संघर्ष के स्वरूपों में भी बदलाव आए हैं । कारखानों में आंदोलन तथा सरकार से माँग करने वाले आंदोलनों में कोई दम-ख़म नहीं रह गया । विश अर्थव्यवस्था को शत्रु के रूप में देखना जनता के लिए अधिक सरल था । अर्थनीति जब मुख्यधारा की राजनीति से असम्पृक्त हो जाती है तब एक नए किस्म का बेगानापन पैदा होता है । वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन में इस बेगानेपन का शिकार बेरोजगार , बेघर और प्रवासी मजदूरों के तबके शामिल हो गए हैं । नवउदारवादीकरण विरोधी संघर्ष इन सामाजिक आंदोलनों से अछूता नहीं है ।
जोशे बोव्हे का मानना है कि सभी देशों को अपनी खेती तथा खाद्य संसाधनों की सुरक्षा हेतु शुल्क निर्धारण का का अधिकार होना चाहिए । ‘ अपने जरूरत भर खाद्यान अपनी जमीन पर पैदा करना ‘ – इसे वे एक मौलिक अधिकार मानते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इसके विपरीत मुर्गी तथा सूअर पालन जैसे उद्योग गरीब देशों में स्थानांतरित किए जा रहे हैं जहां श्रम सस्ता है तथा पर्यावरण कानून ढीले – ढाले हैं । स्थानीय जनों की खेती बरबाद करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पहले अमीर देशों में प्रचलित भारी अनुदान युक्त सस्ते माल से बाजार को पाट दिया जाता है । जब छोटे किसान इस प्रक्रिया से उजड़ जाते हैं तब कीमतें बढ़ा दी जाती हैं ।
बहरहाल , मेक्सिको के कानकुन शहर में १० से १४ सितम्बर , २००३ को संपन्न हुई विश्वव्यापार संगठन की पांचवीं मंत्रीमंडलीय बैठक में खेती सबसे विवादास्पद विषय था । अंतर्राष्ट्रीय कृषि व्यापार का ‘ उदारीकरण ‘ विश्वव्यापार संगठन का एक प्रमुख उद्देश्य है । इन नीतियों फलस्वरूप ग्रामीण समाजों में एक अभूतपूर्व संकट पैदा हुआ है । भूख , बेरोजगारी , गैरबराबरी तथा प्राकृतिक संसाधनों का विनाश दुनिया भर में बढ़ रहा है।अमेरिका और यूरोप के दबाव में ऐसे नियम बनवाये गये हैं जिनकी मदद से अपने अतिरिक्त पैदावार को सस्ते दामों पर गरीब देशों के बाजारों में पाटना जारी है । स्थानीय बाजार और प्रबंधन की व्यवस्थाएं समर्थन मूल्य तथा सार्वजनिक वितरण प्रणालियां ध्वस्त की जा रही हैं । किसानों के बीज पर पारम्परिक अधिकार को जैविक सम्पदा पर पेटेंट द्वारा ध्वस्त किया जा रहा है । इन परिस्थितियों में जोशे बोव्हे जैसे किसान नेता विश्वव्यापार संगठन से खेती और खाद्यान को अलग रखने तथा जैविक संपदा पए पेटेंट के निषेध की बात कर रहे हैं । उनकी अपील है कि ‘ हम अपनी आशाओं तथा संघर्षों का जगतीकरण करें ‘ । इसी उद्देश्य से विश्व व्यापार संगठन की कानकुन बैठक के समानान्तर दुनिया भर के किसानों , मछुआरों , खेतीहर मजदूरों व ग्रामीण व ग्रामीण महिलाओं का जमावड़ा भी आयोजित किया गया । जोशे बोव्हे इस पहलकदमी के एक प्रमुख व्यक्ति हैं ।
श्रीमान
रिलायन्स फ्रेश सब्जी के बाद मुकेश अंबानी जैसे उद्योग पति रिलायन्स फ्रेश चाइल्ड की योजना भी शीघ्र लेकर आने वाले हैं. ये योजना अमीरों के लिए काम की होगी सो वे अभी से जश्न मनायें.
गरीब वहाँ भी विरोध करने वाले हैं क्योंकि उन्हें अभी वियाग्रा नहीं लेनी पड़ती. ये टठकर्म अमीरों के हैं. उन से कुछ तो खुद होता नहीं. इधर उधर मुँह मार कर.
छोटे मोटे रोज़गार से आजीविका चलाने वालों को बेरोजगार बना देना. ये बड़ी शाज़िश है. इसमें सब शामिल हैं नेता,लेता, विक्रेता मीठी छुरी से हलाल किया जा रहा है .
बड़े शहरों में और हो क्या रहा है एक के साथ एक फ्री की स्कीम .छोटे दुकानदार मुँह ताक रहे हैं. और अब ठेले वालों को धर रगेड़ा.
भाई हमारा तो सुझाव है ठेले वाले आग जलाकर उसमें मिर्च डालकर धुआँ करें तब ये प्रेत भागेंगे. मिर्च न मिले तो इन्हीं को झोंके उसमें तब ये मानेंगे.
अफ़लातून भाई!
मन में बहुत बेचैनी है . कुछ करना चाहिए . क्या अब कुछ नहीं हो सकता ? कोई तो रास्ता होगा . क्या जन प्रतिरोध के ज़रिए इसे रोकना संभव नहीं है . क्या अब सिर्फ़ अमीर को ही ज़िंदा रहने का हक होगा . कुछ करना चाहिए . कुछ होना चाहिए .
‘एलपीजी जनित संकट की भयावहता का अनुमान अभी भी लोगों को हो नहीं पा रहा है । लोगों को अवलिम्ब लामबन्द हो सक्रिय होने वाली दशा है । सर्वाधकि प्रभावति आम आदमी दो वक्त की रोटी की जुगाड में ऐसा फंसा है कि इस भयावहता की ओर देखने की फुरसत नहीं नकिाल पा रहा है । ऐसे में किसी न किसी को इस मामले में पहल करन की जवाबदारी लेनी पडेगी । आशाजनक बात यह है कि अनुकूल वातावरण तेजी से बन रहा है, लोग समझने भी लगे हैं लेकिन मैदान में कब और कैसे आएं, अगुवाई कौन करे यह समझ नहीं पड रहा है । इन्दौर और रांची में लोग इसलिए लामबन्द हो गए क्योंकि रिलायन्स ने उन पर सीधा प्रभाव डाला था । एमएनसी की गतिविधियां सामान्यत: ऐसा सीधा प्रभाव नहीं डालतीं । रिलायन्स ने प्रत्यक्ष प्रभाव डाला और लोग उद्वेलित तथा आन्दोलित हो उठे । इन्दौर रांची की जन प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण कर ऐसे अभियान चलाए जाने पर विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए ।
बेहद शानदार रिपोर्ट। राजनेताओं को इसकी कॉपी भेजिए। खासकर लोकसभा और राज्यसभा के सभी सांसदों के ई मेल पते संसद की वेबसाइट से लेकर उन्हें भेजिए। बातें करते हैं गरीबी हटाने और रोजगार के अवसर बढ़ाने की। इस तरह की दुकानें खुलती रही तो भारत जो कि एक बड़ी आबादी वाला देश है, वहां का आम नागरिक या तो आत्महत्या करेगा या फिर लूटपाट। सरकार वैसे जागेगी नहीं, वह केवल आम आदमी को वोट देने के बेवकूफ बनाती रहती है। हर दल का यही नारा है मुझे जिताओं मैं तुम्हारे दुख दर्द दूर कर दूंगा लेकिन हरेक को जिताकर देख लिया नतीजा तो सिफर रहा ना। फ्रांस में किसान वैसे भी इतने ज्यादा मजबूत हैं कि वे चाहे तो किसी भी सरकार को उल्ट दें लेकिन अपने यहां स्थिति विपरीत है। यहां किसानों को पुलिस पीट पीटकर अधमरा कर देगा और पूंजीपतियों के कहने पर उनके खिलाफ ऐसे ऐसे मुकदमें दायर करेगी कि कम से कम पांच पीढियां बाप बाप कर उठेगी। इस दिशा में समान विचार धारा के लोगों को मिलकर गांधीवादी आंदोलन करना चाहिए। यदि आपकी ऐसी योजना बनती है तो मैं अपना घर द्धार छोड़ने को तैयार हूं और आपके साथ रहूंगा।
नहीं जानता कि ये रास्ता जो चुना है हमें कहाँ ले जा रहा है? कृषि एक व्यवसाय तो कभी नहीं बन सकी मगर अब ये एक मजबूरी क्यूँ बनती जा रही है?
हमारा विरोध मूलतः इस भावना के कारण है कि इससे कई कई लोगों के रोज़गार पर फ़र्क पड़ेगा बिल्कुल पड़ेगा. यह भौतिक विकास और दक्षता का चिर डायलेमा है/ इस बारे में हालाँकि मेरा तर्क है कि हम यह अरण्यरोदन किनके लिए कर रहे हैं क्या किसान के लिए जो अपना अच्छे से अच्छा उत्पाद सस्ते से सस्ते में बेचने पर विवश हैं या फ़िर उन बिचौलियों के लिए जो सिर्फ़ उस बड़ी सप्लाइ चेन में जुड़े होने की वजह से पैसे काटते हैं? इन लोगों के लिए रोने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि रिलायन्स या कोई और बड़ी कम्पनी जो कर रही है रिटेल क्षेत्र में कमोबेश वैसे ही काम ये बिचौलिये और आढ़तिए करते हैं किसानों की लूट-खसोट यहाँ भी बहुत है..सही कहूँ तो कम से कम ITC वाले समय पर पैसा तो चुकाते हैं किसान का ये मण्डी वाले तो आधा तौलते हैं और उनका पैसा भी उधार रख लेते हैं/ निश्चित रूप से इस तर्क की अपनी सीमाएं हैं कई प्रतितर्क हो सकते हैं और इस बारे में कोई अन्तिम निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते/ नहीं जानता सही रास्ता क्या हो सकता है मगर वही रास्ता सही होगा जो उत्पादक को लाभ पहुँचाए न कि सिर्फ़ बिचौलियों को/ कृषि के प्रति सम्वेदनशील होने की ज़रूरत है. डॉलर्स से पेट नहीं भरता/ मुझे लगता है रिलायन्स से ज़्यादा कोक और पेप्सी के बॉट्लिंग प्लाण्ट्स खतरनाक हैं इन्होंने तो पानी ही खरीद लिया/ मोन्सेन्टो बीज़ कम्पनी पर भी सोचना होगा जिन्होंने किसानों को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की ठान ली है/
एक बहुत अच्छा लेख जो एक ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाता है जिससे लोगों के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ेगा । किन्तु मैं इस पर कोई राय नहीं बना सकी हूँ ।
घुघूती बासूती
An eye opener, KEEP IT UP…AABID
मैं इस बात से बिल्कुल भी सहमत नही हूँ की रिलायंस फ्रेश किसान विरोधी है, ये केवल उन लोगों के विरुद्ध है जो मंदी में बैठे बैठे किसानो की महीनो की म्हणत को चुटकियों में नीलाम करते हैं| इससे केवल मंडी में उन मुनाफाखोरों को ही घाटा होगा जो अपनी मर्जी से रेट तय कर देते हैं| मजदूरों का क्या है वह तो बेचारे हमेशा पत्री पर ही हैं| वह तो बेचारे हुए ही धरना, जलसा और पार्टियों के लिए आन्दोलन करने के लिए, वह काम करने वाले है और किसी तरह कमा ही लेंगे| लेकिन इससे केवल मुफ्तखोर व्यापारियों को ही सबसे ज्यादा घाटा है और वही अपनी दुकान बंद होने के डर से बेचारे मजदूरों को भड़का रहे हैं|
अगर रिलायंस किसान से सीधा माल खरीदती है तो बीच में दलालों की कमीसन कतम हो जायेगी, किसानो को अच्छा रेट मिलेगा और ग्राहक को भी रेट सहे मिलेगा और अनाज, सब्जी की कुँलिटी भी अच्छी होगी| मेरे विचार से रिलायंस अगर इमानदारी से किसानो से समझोता करती है तो इससे कम से कम किसान और ग्राहक का तो फायदा ही होगा| अगर नुक्सान है तो केवल जमाखोरों, मुनाफाखोरों, बिचोलियों और दलालों का| पर हमारे देश की समाजवादी सोच के हिसाब से यह सब मिलकर हमारे समाज के बहुसंख्यक हैं| इसलिए ये जो चाहेंगे वही समाजवाद कहलायेगा|
[…] गांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने […]
[…] गांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने […]
[…] गांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने […]
रिलायंस फ्रेश की असफलता के बारे में आपके विचार जरूर जानने योग्य होंगे. क्या हम हिन्दुस्तानी छोटे व्यापारियों को कम आंक रहे हैं? कहां से देगा रिलायंस ऐसी सुविधायें..
जब तक आमजन धर्म की अफीम के नशे में डूबा रहेगा तब तक धन व धर्म के ठेकेदारों रूपी दो पाटों में अन्न के साथ घुन की तरह पिसता रहेगा। धनी लोग चाहे उन्हें आप मालिक या सामंत या पूंजीपति या आधुनिक कोरपोरेट कहो असल में यही लोग तो है जो धन के बल पर आमजन को धर्म की अफीम खिला कर अपना और अपने भगवानों का प्रभाव बनाये हुये हैं। अगर लेखक व आमजन के हिमायती लोग अगर सौ चोट पूंजीपतियों पर करने के साथ साथ उनके भगवानों पर भी एक चोट करेंगें तो आम जन जाग उठेगा। धनी लोगों के शोषण व भगवान के डर से हमेशा के लिए मुक्त हो जायेगा। यही सामाजिक परिवर्तन हैं, क्रांति है, शांति हैं, और प्रकृति की व्यवस्था हैं। प्रकृति से सिखना चाहिये जो साम्यव्यवस्था लाने के लिए क्रांतिकारी संघर्ष का मार्ग अपनाती है जब मानव या जानवर जाति की अति प्रकृति के लिये असहनीय हो जाती हैं। आज पूंजी व धर्म की अति हद से ज्यादा हो गयी है इसलिए आमजन को दोनों के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष शुरू कर देना चाहिए। जीत होगी, दोनों की, प्रकृति व मानव की।