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[ ‘ बम और पिस्तौल इन्कलाब नहीं लाते ‘- शहीदे आजम भगत सिंह का यह बयान जैसे कइयों के गले नहीं उतरता वैसे ही कुंजी-पटल के योद्धा यह सुनना नहीं चाहेंगे कि ‘ चिट्ठे इन्कलाब नहीं लाते ‘ । ऐसा मानने वाले कुछ स्थापित चिट्ठेकारों के विचार यहाँ दिए जा रहे हैं । सेथ फिंकल्स्टीन , केन्ट न्यूसम , निकोलस कार आदि कई प्रमुख चि्ट्ठेकार इस मत के हैं । ]
सेथ फिंकलस्टीन
दमनकारी सरकारों द्वारा सेन्सरवेयर ( सेन्सर हेतु इस्तेमाल किए जाने वाले सॉफ़्टवेयर ) का इस्तेमाल अब वैधानिक नीति का हिस्सा बन चुका है । इस बाबत संगोष्ठियाँ आयोजित हो रही हैं , सिफ़ारिशें दी जा रही हैं तथा लेख लिखे जा रहे हैं । वैश्विक – सेन्सरशिप के विरुद्ध लड़ाई में हमारा क्या योगदान हो सकता है ? – इसका जवाब लोग जानना चाहते हैं ।
दुर्भाग्यवश मेरे उत्तर लुभावने नहीं हैं । गैर सरकारी संस्थाओं , थिंक टैंक्स और शैक्षणिक संस्थाओं में श्रेणी बद्धता है तथा इनमें प्रवेश-पूर्व बाधायें भी होती हैं , जिन्हें पार करना पड़ता है । बरसों पहले जब इन्टरनेट का विस्तार कम था तब किसी व्यक्ति द्वारा खुद को सुनाने का मकसद ज्यादा विस्तृत तौर पर पूरा होता था । इन्टरनेट के व्यापक समाज का हिस्सा बन जाने के बाद एक अदद व्यक्ति की हैसियत और असर उसी तरह हाशिए पर पहुँच गया है जितना समाज में व्यक्ति का होता है । ऐसा नहीं कि किसी भी व्यक्ति की आवाज बिलकुल ही न सुनी गई हो – परन्तु यहाँ भी स्थापित सामाजिक संगठनों के ढ़ाँचे की सत्ता आम तौर पर हावी हो जाती है ।
ब्लॉग कोई हल नहीं हैं । धार्मिक सुसमाचारों की तरह ब्लॉगिंग- निष्ठा रखने वालों (Blog evangelists ) की आस्था के विपरीत कई बार ब्लॉग असर डालने में बाधक बन जाते हैं । अत्यन्त विरले जो ब्लॉग्स के जरिए ठोस असर डालने में कामयाब हो जाते हैं – उनकी कहानी को व्यापक तौर पर ‘सक्सेस स्टोरी’ के तौर पर प्रचार मिलता है । इस परिणाम के दूसरे बाजू की व्यापक चर्चा नहीं हो पाती है – सभी लोग जो अपने हृदय उड़ेल कर चिट्ठे लिखते हैं , एक छोटे से प्रशंसक पाठक वर्ग की दायरे के बाहर कभी पढ़े नहीं जाते हैं ।
ब्लॉग सुसमाचारी इस स्थिति पर आम तौर पर यह कहते पाए जाएँगे कि इन सीमित भक्तों से खुश रहना मुमकिन है । अमूमन वे यह नहीं कहना चाहते कि एक सीमा से आगे न पढ़ा जाना दु:ख का कारण भी हो सकता है । एक चुनिन्दा छोटे समूह की बीच ही अपनी बात कहते रहने के कारण अपने विचारों की पहुँच की बाबत उनके दिमाग में भ्रामक धारणा भी बन सकती है।
केन न्यूसम
किन के लिए लिखते हैं चिट्ठेकार ? आपने खुद से कभी यह सवाल किया है? मैंने कुछ दिनों से इस पर गहराई से सोचना शुरु किया है ।
झटके में इसका जवाब देने वाले कहेंगे – अलग – अलग लोग अलग-अलग कारणों से लिखते हैं । कुछ अपने व्यवसाय के हित में लिखते हैं और कुछ स्वान्त:सुखाय ।
यह सवाल मैं कुछ बुनियादी तौर पर पूछता हूँ । हमारे चिट्ठों के पाठक कौन हैं ? हमने जिन पाठकों को ध्यान में रख कर लिखा है वे नहीं , वास्तविक पढ़ने वाले कौन हैं ?
मेरा जवाब है हम (चिट्ठेकार) अमूमन एक – दूसरे के लिए ही लिखते हैं । हमारे पाठक ज्यादातर चिट्ठेकार ही होते हैं , कभी-कदाच मित्र और रिश्तेदार पढ़ लेते हैं ।
मुझे गलत मत समझिएगा – लिखने में मुझे रस मिलता है । कभी – कभी जब हम कुछ लिख कर चिट्ठे पर डाल देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई टिप्पणी आएगी अथवा कोई उस पोस्ट की कड़ी उद्धृत कर देगा , तब एक अजीब अवसाद-सा तिरता है , माहौल में।
चिट्ठालोक की क्रिया – प्रतिक्रिया देने की विशिष्टता को अक्सर हम लोग कुछ ज्यादा बढ़ा- चढ़ा कर पेश करते हैं । यह सही है कि चिट्ठे कुछ हद तक क्रिया – प्रतिक्रिया देते हैं लेकिन संवाद स्थापित करने के लिए यहाँ भी आप को कुछ बाधायें पार करनी पड़ती हैं । आप को टिप्पणियाँ देने और असरकारी पोस्ट लिखने के लिए समय लगाना पड़ता है और कोशिश भी करनी पड़ती है । और जब ढेर सारे लोग एक विषय पर अपनी ढ़पली अपने राग में बजाने लगते हैं तब कई बातें इस शोर में गुम भी हो जाती हैं ।
चिट्ठालोक में चिट्ठेकारों के बीच ध्यान खींचने की ऐसी होड़ लगी रहती है कि आभास होता है कि यह एक बहुत बड़ी-सी जगह है , मानो मछली बाजार । यह केवल आभास है दरअसल एक बड़े हॉल के आखिरी छोर पर बने एक छोटे से कमरे में हम सब पहुँच जाते हैं। जब लोग संवाद बनाने से इन्कार करते हैं किन्तु किसी हद को पार कर अपने चिट्ठे की कड़ी लगवाना चाहते हैं तब थोड़ा कष्ट जरूर होता है । यह कष्ट तब तक जारी रहता है जब तक मुझे इस बात का अहसास नहीं हो जाता कि , ‘ चलो मेरी बात न सुने भले , वास्तविक जगत में कोई उन्हें भी तो नहीं सुन रहा ‘ ।
( जारी )
सही है। वैसे यह गलतफ़हमी शायद ही किसी को हो कि ब्लाग इंकलाब लाते हैं। ब्लाग अभिव्यक्ति का एक माध्यम हैं। आपकी अभिव्यक्ति जितनी असरकारी होगी उतना आपकी बात का असर होगा। निरंतर के सबसे पहले अंक में अतानु डे का साक्षात्कार छपा था उसमें भी यही बात उन्होंने कही थी कि ब्लाग से बहुत बड़े बदलाव की आशा नहीं करनी चाहिये। इंकलाब के लिये तमाम सामाजिक,राजनैतिक तैयारियों/स्थितियों का हाथ होता यह आपको अच्छी तरह पता है। हां,इस तैयारी में सहयोगी कदम जरूर निभा सकता है।
मेरा निश्चित मानना है कि अगर आज गांधीजी होते तो उनका अपना ब्लाग जरूर होता। 🙂
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इस भ्रम को पालना बडा छलावा होगा। चिट्ठों की सीमित उपयोगिता ही है, खासकर आज के हिन्दुस्तान के संदर्भ में। बाकी यह तो नशा है।
क्या मीडिया इंकलाब ला सकता है। यदि इसका जवाब हां है तो चिट्टे भी। कल नहीं तो परसों यह उसकी जगह लेंगे। यह भी अभिव्यक्ति का बहुत अच्छा माध्यम है। जहां मीडिया पर ताला लगा है वहां तो इन्ही का सहारा है।
मीडिया अक्सर किसी घराने, पार्टी से जुड़ होते हैं उसके खिलाफ बात नहीं करते। चिट्ठे से हमेशा किसी के खिलाफ बात कही जा सकती है।
इंकलाब तो अखबार भी नहीं लाते, पत्र-पत्रिकायें और सनसनी फैलाने वाले बुद्धूबक्से के समाचार भी नहीं। विचारों की अभिव्यक्ति के इस माध्यम की अपनी उपादेयता है और सार्थकता भी। बिलकुल वैसे ही जैसे ‘ बम और पिस्तौल इन्कलाब नहीं लाते ‘- शहीदे आजम भगत सिंह का यह बयान किंतु बहरो को यही सुनाया भी गया…
माध्यम आगे बढेगा तो बहरे सुनेंगे अंधे देखेंगे…..क्रांति तो खैर बडा विषय है (आज कल किससे आती है, सोचता हूँ अक्सर)।
*** राजीव रंजन प्रसाद
इनक़लाब की अवधारणा स्थानीय नागरिक समूहों के बीच ही काम करेगी। लेकिन दिलचस्प हैं, ब्लॉगिंग की इन हस्तियों के विचार। प्रतीक्षा रहेगी। आगे भी।
सही है की चिट्ठे क्रांति नहीं ला सकते. मगर चिट्ठे अपने आप में एक क्रांति है.
हाँ गाँधिजी का चिट्ठा पढ़ना और उससे भी आगे वहाँ पर टिप्पीयाना गजब का रहता.
ये तो इस बात पर निर्भर है कि क्रांति की आपकी अवधारणा क्या है.
मै तो अपने हर पोस्ट में क्रांति लाता हूं. अपने लिए क्रांति. अपने पाठकों के लिए क्रांति. विचारों में क्रांति.
और, मेरे लिए यही बहुत है.
ब्लॉगर हस्तियों के विचार जानकर अच्छा लगा। आभार।
रवि रतलामी जी से सहमत हूं
अमेरिकी ब्लागरों में कुछ ऐसे विचार हैं तो दिलचस्प हैं. इस युग में क्रांति लाना और भी मुश्किल है. ब्लागिंग भी उसी वैचारिक स्खलन का माध्यम है. लिखा और निकल गई भड़ास.. यानी अब आगे किसी विस्फोट की गुंजाइश नहीं.
ऐसे ब्लॉगर जो वैचारिक धरातल पर परिपक्वता रखते हैं.. वे अवश्य कुछ प्रभाव डाल रहे हैं.. यही सुखद अनुभूति देता है.
साधन की महत्ता बरकरार है.. जबकि होना चाहिए साध्य का महत्व. इस बिन्दु पर भी विचार आवश्यक है.
गांधी जी का चिट्ठा होता तो क्या होता? सरकार उठाकर बैन कर देती या गालियोंभरी टीपों की भरमार होती.
एक और बात.. एक हद तक वैचारिक क्रांति के लिए ब्लाग प्रेरक का काम कर सकता है किंतु मूर्त रूप देने के लिए घरों से बाहर निकलना ज़रूरी है. यहां कम्प्यूटर पर माथा टिकाए रखना मूर्खता से ज़्यादा कुछ नहीं.
बढ़िया प्रयास.
मुझे लगता है हिंदी के बाहर की यह विविध दुनिया जितना संभव हो अनुवाद में.. और जब अनुवाद सुगम-संभव न बने तो कमसकम एक संक्षिप्त सूचना के साथ लिंक की कड़ी की बतौर जितनी-जितनी मात्रा में सामने आती रहेगी.. उतना हम अपनी दुनिया का विस्तार और हिंदी ब्लॉगरी को धारदार करेंगे.
ये सच है कि चिट्ठे अभी इंकलाब नहीं ला सकते पर चिट्ठे भी अभिव्यक्ति का साधन ही है .. इसलिये इनकी महत्ता और ज्यादा बढ़ेगी ..तब शायद ये भी इंकलाब ला पायें..
मुझे नहीं लगता कि इस समय चिट्ठे क्रान्ति ला सकते हैं । किन्तु सोचिये यदि ये चिट्ठे ७० के दशक में रहे होते तो क्या इंदिरा जी आपात स्थिति घोषित कर पातीं ? शायद नहीं । और वैसी ही स्थिति शायद अब कभी भी न आ पाएगी क्योंकि तब की तरह हर व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं महसूस करेगा ।
घुघूती बासूती
चिट्ठों से क्रांति नहीं आ सकती, इससे किसी बड़े सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक या अन्य किसी व्यापक बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती। चिट्ठे स्वयं एक क्रांति हैं, इनके कारण बहुत से लोगों को स्वांत: सुखाय लिखने का एक माध्यम मिला है और एक वर्ग बना है जो इस माध्यम से लेखन पठन करता है।
केन न्यूसम के विचार मन के करीब लगे। अच्छी श्रृंखला शुरु की है आपने !
[…] चिट्ठे इन्कलाब नहीं लाते ! […]
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