Technorati tags: औद्योगीकरण का अन्धविश्वास, superstition of industralisation, mahatma gandhi, marx
सिंगूर और नन्दीग्राम की घटनाओं से और इनके पहले कलिंगनगर तथा दादरी जैसे संघर्षों से इतना जरूर हुआ है कि भूमण्डलीकरण के रास्ते पर दौड़ते मदांध शासक वर्ग के पैर कुछ ठिठके हैं तथा देश में एक बहस छिड़ी है । विशेष आर्थिक क्षेत्रों की मंजूरी कुछ दिनों के लिए रुकी है तथा सरकारें कुछ पुनर्विचार के लिए मजबूर हुई हैं ।
लेकिन अक्सर यह बहस सतही स्तर पर हो रही है और समस्या के सतही समाधान खोजे जा रहे हैं । विशेष आर्थिक क्षेत्रों और उद्योगों के लिए विस्थापन के कई आलोचक भी ( जिनमें माकपा भी शामिल है ) इस तरह के सूत्र व सुझाव दे रहे हैं । जैसे कहा जा रहा है कि उपजाऊ , तीन फसली या दो फसली जमीन इनके लिए न ली जाए । खाली पड़ी, पड़त , बंजर या कम उपजाऊ भूमि पर उद्योग या विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जा सकते हैं। किन्तु यह कहने से अपेक्षाकृत पिछड़े और समूचे आदिवासी इलाकों में विस्थापन को समर्थन मिल जायेगा । इस नियम से सिंगूर-नन्दीग्राम गलत होगा,किंतु कलिंगनगर- काशीपुर सही हो जाएगा । दरअसल सवाल जमीन की गुणवत्ता का नहीं है । जमीन कैसी भी हो , उस इलाके के बहुसंख्यक लोगों की जिंदगी और जीविका का प्रमुख आधार होती है । इस जमीन को छीन लेने से वहाँ के लोगों के जीवन पर बड़ा संकट आ जाता है । यह भी कहा जा रहा है कि विस्थापन तो हो किन्तु पुनर्वास अच्छा हो , विस्थापितों को रोजगार मिले और नए उपक्रमों में विस्थापितों को शेयर दिये जाएं । भारत सरकार भी एक नई पुनर्वास नीति तैयार करने में जुटी है । लेकिन अपने अनुभव से हम जानते हैं कि पुनर्वास नीति कितनी ही अच्छी क्यों न हो , उस पर अमल नहीं होता तथा विस्थापितों के साथ कभी न्याय नहीं होता । विस्थापितों के मुकाबले परियोजना में निहित बड़ी ताकतों के हित ज्यादा भारी हो जाते हैं । सरदार सरोवर परियोजना का उदाहरण हमारे सामने है।
यह भी दलील दी जा रही है कि कंपनियों के लिए सरकारें भूमि का अधिग्रहण न करें कंपनियां स्वयं जमीन किसानों से खरीदें। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विषय में भारत सरकार का ताजा फैसला यही है । इससे किसानों से जमीन छीन कर कंपनियों को कौड़ियों के मोल सौंपने की प्रक्रिया पर निश्चित ही रोक लगेगी और जमीन के अरबों-खरबों के घोटाले रुकेंगे। लेकिन जहाँ कंपनियों को करों में छूटें और लूट के अवसरों से मुनाफों के पहाड़ दिखाई दे रहे हैं , वहाँ वे किसानों को आकर्षक कीमत देकर भी जमीन खरीद सकती हैं । और नए कंपनी-सरकार राज में किसानों को जमीन बेचने के लिए कई तरह के दबाव और बल का प्रयोग करने में भी कंपनियाँ नहीं चूकतीं हैं । कंपनियों के हाथ में जमीन जाने की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए हमारी सरकारें भी कई कदम ऊठा रही हैं । भूमि हदबन्दी कानूनों को शिथिल किया जा रहा है और भूमि का बाजार विकसित करने की कोशिश की जा रही है। खेती में जिस तरीके से लगातार नुकसान हो रहा है और वह तेजी से घाटे की खेती बनती जा रही है, उसके चलते कई जगहों पर किसान स्वयं भी जमीन बेचने के लिए तैयार(या मजबूर) हो रहे हैं । लेकिन सवाल यह है कि क्या बड़े पैमाने पर जमीन किसानों के हाथ से निकलकर कंपनियों के हाथ में जाना तथा खेती से निकलकर उद्योगों व अन्य उपयोगों में जाना उचित और वांछनीय है?
यहीं पर कुछ बुनियादी सवाल आ जाते हैं। वे यह हैं हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में खेती , उद्योगों और अन्य गतिविधियों का क्या तथा कितना स्थान होगा ? क्या विकास के लिए औद्योगीकरण जरूरी है? यह औद्योगीकरण किस प्रकार का होगा? आखिर माकपा नेताओं ने सिगूर-नन्दीग्राम के सन्दर्भ में यही तर्क तो दिए हैं ! उनका कहना है कि भूमि सुधारों के जरिए खेती के विकास की एक सीमा है जो पश्चिम बंगाल में आ चुकी है । खेती में एक हद से ज्यादा रोजगार नहीं मिल सकता है । अब आगे के विकास के लिए बंगाल का औद्योगीकरण जरूरी है और इसके लिए टाटा , सालेम समूह आदि को बुलाना जरूरी है। “क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा ? ” – बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह प्रश्न अपने विरोधियों से पूछा है । इन दलीलों का स्पष्ट जवाब माकपा-विरोधियों को देना होगा और इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा । इन पर एक विस्तृत बहस चलाने का समय आ गया है ।
यह बहस इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि सिंगूर-नन्दीग्राम की घटनाओं पर अनेक प्रतिक्रियाएं वाममोर्चा सरकार के नैतिक पतन , माकपा की गुण्डागर्दी , आदि तक सीमित रही हैं । औद्योगीकरण और विकास की वर्तमान नीति और उसके पीछे की सोच पर पर्याप्त सवाल नहीं उठाए गए हैं । यदि विकास की कोई वैकल्पिक राह नहीं खोजी गयी,तो भूमण्डलीकरण के झोले में से सिंगूर व नन्दीग्राम तो अनिवार्य रूप से निकलेंगे ही।
( जारी )
अच्छे लेख की शुरूआत. जारी रखें.
बहुत ही कठिन विषय पढ़ने को दिया है । अपने विचार बताने से पहले यह बता दूँ कि किसी अन्य के लिए क्या अच्छा है यह कहने, सोचने से पहले ही मुझे लगता है कि मैं यह निर्णय लेने में अक्षम हूँ । किन्तु टिप्पणी न करना यह भी दर्शाता है कि हम इस विषय को महत्वपूर्ण नहीं मानते ।
इस पर कुछ कहने से पहले हमें स्वयं से कुछ प्रश्न करने होंगे ।
क्या आज औसत किसान के पास इतनी जमीन है कि वह भरपेट खा सके, अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे सके ?
क्या उसकी जमीन इतनी उपजाऊ है कि कोई और काम किये बिना उसे अच्छी आमदनी मिल सके ?
क्या कारखानों की सच में कोई आवश्यकता नहीं है ?
यदि है तो वे कहाँ लगाये जाएँ ?
यदि लगाए जाएँ तो विस्थापितों का क्या किया जाए ?
यह सच है कि किसी को जबर्दस्ती उसकी भूमि से हटाना गलत है । औने पौने पैसे देकर हटाना और भी गलत है । क्या कोई ऐसा तरीका नहीं बनाया जा सकता कि एक तालुके, जिले और राज्य के सब जमीन बेचने के इच्छुक लोगों की एक सूची(data bank ) तैयार कर ली जाए । जिस इलाके के अधिक लोग जमीन बेचने के इच्छुक हों और यदि वहाँ कोई कारखाना लगाना सम्भव हो और कोई कम्पनी वहाँ आना चाहती हो तो वह किसानों से बात कर कोई ऐसा मूल्य तय करें जो किसानों को स्वीकार हो । आमतौर पर यह मूल्य आसपास के इलाके की कीमतों से काफी अधिक होगा । अब जो लोग खेती ही करने के इच्छुक हों वे अपने आस पास या जिस भी इलाके में लोग जमीन बेचने के इच्छुक हों ( data bank यहाँ फिर काम आएगा ।) उनसे जमीन खरीद कर खेती में फिर से लग सकते हैं । बहुत से लोग तो नए कारखाने में रोजगार पा सकेंगे । बड़े कारखानों से ट्रेनिन्ग इन्सटिट्यूट चलाने की शर्त भी रखी जा सकती है । बहुत सी कम्पनियाँ ये करती भी हैं । इससे आस पास के युवाओं को नौकरी भी मिलेगी और कारखानों को बेहतर ट्रेन्ड कामगार ।
आमतौर पर एक बड़े कारखाने के खुलने से जितनी नौकरियाँ प्रत्यक्ष में मिलती है उससे अधिक अप्रत्यक्ष रूप से । नई दुकाने खुलती हैं । चाय नाश्ते के ढाबे खुलते हैं । ट्रक की आवाजाही से कुछ लोग ट्रक खरीदते हैं व बहुत से लोग ट्रक चलाने का काम करते हैं । आस पास के गाँवों के बहुत से लोगों को, जब वे खेती का काम नहीं कर रहे होते, तब अस्थाई काम मिलता है । किसानों को अपनी सब्जी ,फल आदि बेचने के लिए एक नई मार्केट मिलती है । बहुत से लोग दूध बेचने का कारोबार करने लगते हैं । कोई अखबार बेचने की एजेन्सी ले लेता है तो कोई कपड़े प्रेस करने का काम करने लगता है । माली, महरी आदि का काम कर बहुत से लोग खेती से भी अधिक कमाई कर लेते हैं ।
यदि नई कम्पनी से आस पास के गाँव के बच्चों को अपने स्कूलों में पढ़ाने की शर्त रखी जाए , अपने दवाखाने में उपचार व डॉक्टर की सुविधा देने को कहा जाए ( चाहे दवाई मरीज खुद खरीदें )तो इन इलाकों के जीवन स्तर में सुधार आयेगा । वे बाहर के संसार से अवगत होंगे व जुड़ेंगे ।
जिस स्कूल में मैं पढ़ाती हूँ वहाँ हमारे ही स्कूल का पढ़ा पास के गाँव का एक विद्यार्थी आज अध्यापक है । और अच्छा अध्यापक है । कल हमारा पढ़ाया ही कोई विद्यार्थी हमारे यहाँ इन्जीनियर होगा, क्लर्क होगा, डॉक्टर होगा । सबसे बड़ी बात है, वह यहाँ टिक कर काम करेगा क्योंकि उसका घर, गाँव पास में
है ।
एक और लाभ जिसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती, वह है वहाँ के लोगो की सोच रहन सहन में बदलाव । हमारी महरियाँ भी परिवार नियोजन को समझती जानती हैं । हमारी देखादेखी वे भी अपने बच्चों से काम करवाने के बजाए उन्हें स्कूल भेजती हैं ।
आमतौर पर कोई भी विपदा आने पर अधिकतर कम्पनियाँ मदद के लिए आगे आती हैं । जैसे पानी की कमी होने पर पानी का प्रबंध किया जाता है ।
रास्ता तो कोई निकालना ही होगा । क्यों न ऐसा रास्ता निकालें जिससे लाभ अधिक हो हानि कम । जिससे कम से कम लोगों को कष्ट हो, बल्कि कष्ट हो ही ना । ‘तेरी भी जय हो मेरी भी जय हो’ जैसा कुछ हो सके । आवश्यकता है तो खुले दिमाक से सोचने की और दिल को दिमाक पर हावी न होने देने की ।
घुघूती बासूती
कहा नही है ये सोच..जहा देखिये बस जरा ध्यान से देखने की जरूरत है मिल जायेगी..हर कही ..
बेहद ज़रूरी और गंभीर विवेचन .
कैसा आश्चर्य है कि किसानों और आदिवासियों के विस्थापन के दुख असंवेदनशील शहरी मध्य और उच्च-मध्यवर्ग को दिखाई ही नहीं देते .
बिल्कुल जरुरी बहस है और आगे इसको जरी रहना चाहिये । और हम यह सिर्फ़ नन्दीग्राम तक ही इसको सीमित कर के न देखें , पीछे के दिनों मे ऊत्तर प्रदेश मे भी रिलायसं फ़ेश क बाजार मे प्रवेश आने वाले दिनों मे छोटी पूँजी वालों के लिये जो समस्या बनने जा रहा है , वह किसी से छुपा नही है ।
साधुवाद!! लेख के अगले हिस्से का इंतजार करूंगा. इस लेख पर एक समीक्षा मैं अपने न्यूज-वेबसाइट पर रखने वाला हूं. visit: http://newswing.com
बहुत दुख होता है, या कहिये कि क्रोध आता है अपनी बुद्धि बेच चुके सन्सद मे बैठने वाले तथाकथित कर्णधारो पर… ठीक है कि ज़मीन की मालिक सरकार होती है, पर वे यह क्यो भूल जाते है कि सरकार का काम प्रजा का पालन भी है. आज़ादी के बाद से जिस तरह दलालो ने विधान सभाओ और सन्सद की कुर्सियो पर कब्ज़ा कर लिया है.. सिन्गूर जैसी घटनाये तो होन्गी ही… उडीसा मे पोस्को को पैर जमाने देने मे ना केवल सरकार, बल्कि सरकारी मिडिआ जिस तरह से लगी है, वह भौन्चक्का कर देने के लिये काफ़ी है… अर्थ मैटर्स नाम का पर्यावरण पर आधारित कर्यक्रम प्रस्तुत करने वाले माइक एच पान्डे कोरिआ के रिवरबैन्क स्तूडिओ से जुडे है तथा रवीवार को रात ८.३० बजे डीडी नैशनल पर घर का चिराग नाम का जो कोरिआयी धारावाहिक आता है, उसको पोस्को प्रायोजित करता है तथा वह भी उसी स्टूदिओ की प्रस्तुति है… इसके बाद भुबनेश्वर दूरदर्शन ने भी उसी धारावाहिक का ओडिया भाशान्तर रविवार को शाम ७.०० बजे दिखाना शुरू किया है…. यानि डीडी नैशनल के साथ साथ डी डी नैशनल-ओडिया भी पोस्को के हित मे हवा बनाने मे लगा है… और तो और, अर्थ मैटर्स मे माइक पान्डे बताते है कि पोस्को के पास ऐसी तेक्नीक है कि प्रदूशण मे ५०% तक कमी आ जायेगी….यानी सरकार, मीडिया, धनपति, विदेशी कम्पनिया, उनके दिल्लीवासी दलाल… सब मिलकर किसानो को भूमिहीन बना देना चाहते है..
यही आत्मदर्शी का विचार है.
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