[ स्कूल के दौरान ही सुनील को गाँधीजी की आत्मकथा मिली थी और वे उससे प्रभावित हुए थे। मध्य प्रदेश बोर्ड की परीक्षा में मेरिट सूची में स्थान पाने के बाद एक छोटे कस्बे से ही उन्होंने स्नातक की उपाधि ली। देश के अभिजात विश्वविद्यालय माने जाने वाले – जनेवि में दाखिला पाया । विद्यार्थी जीवन में ही लोकतांत्रिक समाजवाद में निष्ठा रखने वाले युवजनों की जमात से जुड़ गये । जलते असम और पंजाब के प्रति देश में चेतना जागृत करने के लिए साइकिल यात्रा और पदयात्रा आयोजित कीं । समता एरा और सामयिक वार्ता के सम्पादन से जुड़े रहे तथा दर्जनों पुस्तकें लिखीं और सम्पादित की। जनेवि में हरित क्रांति के प्रभावों पर पीएच.डी का काम छोड़ मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के केसला प्रखण्ड के किसान-आदिवासियों को संगठित करने में जुट गये ।गत पचीस वर्षों से उस क्षेत्र को वैकल्पिक राजनीति का सघन क्षेत्र बनाया है। दर्जनों बार जेल यात्राएं हुईं -सरकार द्वारा थोपे गये फर्जी मुकदमों के तहत । प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आबादी के हक को लेकर सफल नये प्रयोग किए । देश में नई राजनैतिक ताकत की स्थापना के लिए समाजवादी जनपरिषद नामक दल की स्थापना करने वालों में प्रमुख रहे। माओवादी राजनीति की बाबत गंभीर अंतर्दृष्टि के साथ लिखा गया यह लम्बा लेख एक नई दिशा देगा। आज के ’जनसत्ता’ से साभार ।- अफ़लातून ]
दंतेवाड़ा ने देश को दहला दिया है। यह साफ है कि दंतेवाड़ा,लालगढ़, मलकानगिरि जैसे कुछ आदिवासी इलाकों में माओवादियों ने अपने आजाद क्षेत्र बना लिये हैं, आदिवासियों का ठोस समर्थन और आदिवासी युवा उनके साथ हैं तथा वे पूरी तैयारी और सुविचारित रणनीति के साथ अपना युद्ध लड़ रहे हैं।
6 अप्रैल को दंतेवाड़ा में अभी तक की पुलिस व अर्धफौजी बलों की सबसे बड़ी क्षति हुई है। इस घटना की प्रतिक्रिया में रस्मी तौर पर बयान आ रहे हैं और तलाशी अभियान चल रहे हैं। कई बेगुनाहों को इस चक्कर में पकड़ा, मारा या सताया जाएगा। हिंसा और अत्याचारों का दौर दोनों तरफ चलता रहेगा। लेकिन इससे कुछ नहीं निकलेगा। हालात और बिगडे़गी। वक्त आ गया है कि जब देश गंभीरता से विचार करे कि ये हालातें क्यों पैदा हुई, माओवादियों का इतना जनाधार कैसे बढ़ा, सरल और शांतिप्रिय आदिवासी मरने व मारने पर क्यों उतारु हुए ? इस हिंसा की जड़ में क्या है ?
माओवाद या नक्सलवाद के बारे में देश आम तौर पर तभी सोचता है, जब ऐसी कोई बड़ी घटना होती है। मीडिया के जरिये कभी-कभी जो अन्य कहानियां या खबरें मिलती हैं, वे सतही और पूर्वाग्रहग्रस्त रहती हैं। ऐसी हालत में देश की एक बड़ी अंग्रेजी लेखिका अरुंधती राय ने करीब एक सप्ताह दंतेवाड़ा के जंगलों में सशस्त्र माओवादियों के साथ बिता कर उसका वृत्तांत ‘आउटलुक’ (29 मार्च, 2010) पत्रिका में देकर हमारा एक उपकार किया है। ऐसा नहीं है कि वे पूरी तरह निष्पक्ष है। माओवादियों के प्रति उनकी सराहना, सहानुभूति और उनका रोमांच साफ है। किन्तु इससे दूसरी तरफ की, अंदर की, बहुत सारी बातें जानने एवं समझने को मिलती है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पिछले काफी समय से सरकार ने इन इलाकों को सील कर रखा है और बाहर से किसी को जाने नहीं दे रही है। मेधा पाटेकर, संदीप पांडे या महिला दल की जनसुनवाई या पदयात्रा को भी सरकार और सरकारी गुर्गों ने होने नहीं दिया। उनकी घेरेबंदी को भेदकर, भारी जोखिम लेकर, काफी कष्ट सहकर, अरुंधती ने बड़ा काम किया है। भारत के बुद्धिजीवी जिस तरह से वातानुकूलित घेरों के अंदर बुद्धि-विलास तक सीमित होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए भी यह काबिले तारीफ है।
तीन संकट:
इस वृतांत से एक बात तो यह पता चलती है कि वहां के आदिवासियों का एक प्रमुख मुद्दा जमीन और जंगल (तेदूंपत्ता या बांस कटाई) की मजदूरी का रहा है। बड़े स्तर पर वनभूमि पर आदिवासियों का कब्जा करवाकर और वन विभाग के उत्पीड़न से मुक्ति दिलाकर माओवादियों ने अपना ठोस जनाधार बनाया है। वास्तव में, देश के सारे जंगल वाले आदिवासी इलाकों में तनाव, टकराव और जन-असंतोष का यह एक बड़ा कारण है। अब तो देश को यह अहसास होना चाहिए कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रुप से अन्याय हुआ है, भारत के वन कानून जन-विरोधी और आदिवासी – विरोधी हैं, आजादी के बाद हालातें नहीं बदली हैं, बल्कि राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्यों एवं टाईगर रिजर्वों के रुप में उनकी जिंदगियों पर नए हमले हुए हैं। संसद में पारित आधे-अधूरे वन अधिकार कानून से यह समस्या हल नहीं हुई है। जैसे नरेगा से रोजगार की समस्या हल नहीं हो सकती, सूचना के अधिकार से प्रशासनिक सुधार का काम पूरा नहीं हो जाता, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून से देश में भूख एवं कुपोषण खतम नहीं होने वाला हैं, उसी तरह वन-अधिकार कानून भी ज्यादातर एक दिखावा ही साबित हुआ है। भारत के जंगलों पर पहला अधिकार वहां रहने वाले लोगों का है, उनकी बुनियादी जरुरतें सुनिश्चित होनी चाहिए, तथा अंग्रेजों द्वारा कायम वन विभाग की नौकरशाही को तुरंत भंग करके स्थानीय भागीदारी से वनों की देखरेख का एक वैकल्पिक तंत्र बनाना चाहिए। भारत के जंगल क्षेत्रों में खदबदा रहे असंतोष का दूसरा कोई इलाज नहीं हैं। और यही जंगलों एवं वन्य प्राणियों के भी हित में होगा।
वैश्वीकरण के दौर में, निर्यातोन्मुखी विकास और राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर के चक्कर में, देशी विदेशी कंपनियों और सरकार के सहयोग से इन इलाकों के जल-जंगल-जमीन पर हमले का एक नया दौर शुरु हुआ है। खदानों व कारखानों के बेतहाशा करारनामे और समझौते हो रहे हैं। यदि सबका क्रियान्वयन हो गया, तो भारत के बड़े इलाकों से जंगल और आदिवासी दोनों साफ हो जाएंगे। सलवा जुडुम और ऑपरेशन ग्रीन हंट के पीछे सरकार के जोर लगाने का एक बड़ा कारण यही है कि इन इलाकों में खनिज के भंडार भरे हुए हैं। सलवा जुडुम के लिए टाटा और एस्सार कंपनी ने भी पैसा दिया है, इस तरह के तथ्य सामने लाने का भी काम अरुंधती राय ने किया है। भारत के मौजूदा गृहमंत्री चिदंबरम साहब भी वेदांत एवं अन्य कंपनियों से जुडे़ रहे हैं। यह हमला व यह सांठगांठ देश में लगभग हर जगह चल रहा है। कई जगह लोग गैर-हथियारबंद तरीकों से लड़ रहे हैं। यदि देश को बचाना है, तो इस कंपनी साम्राज्यवाद को तत्काल रोकना होगा। यह दूसरा निष्कर्ष सिर्फ अरुंधती राय के लेख से नहीं, देश के कोने-कोने से आने वाली सैकड़ों रपटों व खबरों से निकलता है।
माओवाद के नाम पर इन तमाम गैर-हथियारबंद आंदोलनों को भी कुचला जा रहा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि भारतीय राजसत्ता और माओवादी दोनों के लिए यह स्थिति सुविधाजनक है और दोनों इसे बनाए रखना चाहते हैं। माओवाद प्रभावित इलाकों के आसपास के जिलों में भी अब कोई भी भ्रष्टाचार या पुलिस ज्यादतियों का मामला भी नहीं उठा सकता। उसे माओवादी कहकर जेल में सड़ा दिया जाएगा या फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाएगा। लोकतांत्रिक विरोध की गुंजाईश और जगह खतम होने से लोग मजबूर होकर माओवाद की शरण में जाएंगे, इसलिए यह माओवादियों के हित में भी है। लालगढ़ में ‘‘पुलिस संत्रास बिरोधी जनसाधारणेर कमिटी’’, कलिंग नगर में टाटा कारखाने के विरोध में आंदोलन, नारायणपटना में अपनी जमीन वापसी की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी — ये सब गैर-हथियारबंद लोकतांत्रिक आंदोलन थे। इनके नेताओं को जेल में डालकर, इन पर लाठी – गोली चलाकर सरकार इनको माओवादियों की झोली में डाल रही है।
अतएव हमें तीसरा अहसास भारतीय लोकतंत्र पर छाए गंभीर संकट का होना चाहिए। भारतीय राजसत्ता जहां चाहे, जब चाहे, लोकतांत्रिक नियमों और मान-मर्यादाओं को ताक में रख देती है। विशेषकर जो इलाके और समुदाय भारत की मुख्य धारा के हिस्से नहीं है, जैसे पूर्वोत्तर और कश्मीर, दलित, आदिवासी और मुसलमान, उनके साथ वह बर्बरता और क्रूरता की सारी सीमाएं लांघ जाती है। उसका बरताव वैसा ही होता है, जैसा एक तानाशाह का होता है। सशस्त्र संघर्ष तो अलग बात है, लोकतांत्रिक एवं अहिंसक तरीकों से होने वाले जनप्रतिरोध को भी उपेक्षित करने व कुचलने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आखिर दस वर्षों से चल रहा इरोम शर्मिला का अनशन तो एक गांधीवादी प्रतिरोध ही है, जो इस राजसत्ता की संवेदनशून्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। अपने दमन और अत्याचारों से यह राजसत्ता लोगों को उल्टे हिंसा की और धकेलती एवं मजबूर करती है।
भारत में बढ़ता हुआ उग्रवाद, आतंकवाद और माओवाद कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र की गहरी विफलता की ओर इशारा करता है, जिसमें लोगों को अपनी समस्याओं और अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने तथा उनके निराकरण के जरिये नहीं मिल पा रहे हैं। भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की इस विफलता को देश के मुख्य इलाकों के आम लोग भी महसूस कर रहे हैं। उनकी हताशा कम मतदान, आम बातचीत में नेताओं को गाली देने, तुरंत कानून अपने हाथ में लेने या हिंसा व आगजनी की घटनाओं में प्रकट होती है। देश की आजादी के बाद लोकतंत्र का जो ढांचा हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनाया, वह शायद बहुत ज्यादा उपयुक्त नहीं था। अब पिछले छः दशकों के अनुभव के आधार पर इसकी समीक्षा करने का समय आ गया है। माओवादियों की तो इसमें कोई रुचि नहीं होगी कि इस ‘बुर्जुआ’ लोकतंत्र को बचाया जाए। लेकिन बाकी देशप्रेमी लोगों को इस लोकतंत्र की अच्छी बातों जैसे वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार, कमजोर तबकों के लिए आरक्षण, आदि को संजोते हुए इसके ज्यादा विक्रेन्द्रित, जनता के ज्यादा नजदीक, नए वैकल्पिक ढांचे के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
इस लेख में अरुंधती राय ने विरोध के गांधीवादी, अहिंसक एवं लोकतांत्रिक तरीकों का कुछ हद तक मजाक उड़ाया है और बताया है कि वे सब असफल हो गए है। यह भी पूछा है कि आखिर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कौन-कौन सा दरवाजा नहीं खटखटाया ? वे बताना चाहती हैं कि हथियार उठाने, युद्ध लड़ने, सत्ता के मुखबिरों को मारने-काटने का जो रास्ता माओवादियों ने चुना है, उसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। किन्तु क्या सचमुच ऐसा है ? पता नहीं, अरुंधती राय को मालूम है या नहीं, देश के कई हिस्सों में इस वक्त सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे आंदोलन चल रहे हैं जो सब लोकतांत्रिक और गैर-हथियारबंद है। वास्तव में माओवादियों के मुकाबले उनका दायरा काफी बड़ा है। सफलता-असफलता की उनकी स्थिति भी मिश्रित है, एकतरफा नहीं। बल्कि सूची बनाएं, तो ऐसे कई छोटे-छोटे जनांदोलन पिछले दो-ढाई दशक में हुए हैं जो विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने के अपने सीमिति मकसद में सफल रहे हैं। झारखंड में कोयलकारो, उड़ीसा में गंधमार्दन, चिलिका, गोपालपुर, बलियापाल एवं कलिंगनगर, गोआ में डूपों और सेज विरोधी आंदोलन, महाराष्ट्र में नवी मुंबई और गोराई के सेज -विरोधी आंदोलन आदि। बंगाल में सिंगुर और नन्दीग्राम में भी हिंसा जरुर हुई, लेकिन वे मूलतः लोकतांत्रिक ढांचे के अंदर के आंदोलन थे। नर्मदा बचाओ आंदोलन भले ही नर्मदा के बड़े बांधों को रोक नहीं पाया, लेकिन उसने बड़े बांधों और उससे जुड़े विकास के मॉडल पर एक बहस देश में खड़े करने में जरुर सफलता पाई। विस्थापितों की दुर्दशा के सवाल को भी वह एक बड़ा सवाल बना सका, नहीं तो पहले इसकी कोई चर्चा ही नहीं होती थी। लेकिन यह भी सही है कि नवउदारवादी दौर में राजसत्ता का जो दमनकारी चरित्र बनता जा रहा है, उसमें आंदोलन एवं प्रतिरोध करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। गांधी के देश में गांधी के रास्ते पर चलना कठिनतर होता जा रहा है। (जारी)
बेहद ज़रूरी लेख
बहुत अच्छा लेख। आगे की कडियों की प्रतीक्षा है।
bilkul wajib bat kahi hai aapne iski jarurt thi…….
बहुत सही
माओवाद के बढ़ते कदम सारे देश के लिए चिन्ता का विषय हैं। सुनील जी के विचारों से सहमत हूँ।
घुघूती बासूती
सशस्त्र संघर्ष कैसा भी हो, उसका विरोध जरूरी है. फिर चाहे उसका जुड़ाव किसी भी सोच या सत्ता से ही क्यों न हो. आज सवाल सिर्फ माओवाद या नक्सलवादी का ही नहीं रह गया है, बल्कि सरकारें भी कभी सलमा जुडूम, कभी पुलिस, तो कभी सेना के जरिए उसी रास्ते पर चल रही है. हालत तो यह हो चुकी है कि जीने और मरने के संकट पर सवाल उठाने वालों को भी माओवाद या नक्सलवादी घोषित किया जा रहा है. इसलिए सरकारों की ऐसी मानसिकता का भी विरोध जरूरी हो जाता है.
देश में लोकतांत्रिक तरीके से जो संघर्ष चल रहे हैं, दरअसल उन्हें बड़े सीमित अर्थों और पैमानों में देखा जा रहा है. यहां हार और जीत से बड़ी बात यह है कि लोगों के बीच विकास बनाम विकास की संरचना को लेकर रोज नई लड़ाइयों की खबरें आ रही हैं. रोज एक निर्दयी और घूसखोर व्यवस्था का पर्दाफाश हो रहा है. रोज कंपनियों का केरेक्टर और उनकी साजिशें समझ आ रही हैं. कई-कई बार सरकारें जनता के पक्ष में झुकने को मजबूर भी हो रही हैं. ऐसे प्रयासों का दायरा बढता जा रहा है. बहुत सारे लोग इसके समर्थन में आते जा रहे हैं. कई बार सिर्फ मोर्चे टूटने भर को हार और जीत से जोड़कर देख लिया जता है. जबकि यह संघर्ष की लंबी-लंबी प्रक्रियाएं भर हैं. कई बार स्थानीय परिस्तिथियों के हिसाब से ऐसे संघर्षों की जगह-जगह रणनीतियां बदलती भी रहती हैं. मगर जो लोग ऐसे संघर्षों से बाहर हैं, हो सकता है कि उनको यह बातें समझ में न आ रही हो.
आगे की कड़ी की प्रतीक्षा है. लेकिन सुनील जी, एक प्रश्न यह भी है कि क्या वर्तमान राज्य-व्यवस्था सचमुच लोकतंत्र का वह स्वरूप चाहती है और उसके साथ किसी तरह के संवाद, सहकार और अहिंसक व्यवहार के लिए तैयार है, जो हमारी-आपकी अवधारणाओं में, बीसवीं शताब्दी के ऐतिहासिक अनुभवों पर आधारित है? आज लोक सभा में गृहमंत्री पी.चिदंबरम और विपक्ष के नेता अरुण जेटली का भाषण सुना, जाने क्यों मेरे जैसे साधारण लेखक-नागरिक को भी ऐसा लगता है कि जैसे सरकार आदिवासियों और उनके बीच विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों से पनप रहे माओवाद-नक्सलवाद के विरुद्ध लगभग एकमात्र सैन्य विकल्प पर एक मत हैं। यह अमेरिका के ‘वार अगेंस्ट टेरर’ की ही प्रतिलिपि है।
सारे देश के नागरिकों में गहरी चिंता व्याप्त है। भय भी। आज अरुण जेटली ने माओवाद के जिन ‘चार चेहरों’ को गिनाया है, उसमें मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों और अरुंधती राय या हमारे-आपके जैसे स्वतंत्र विचार रखने वाले लोगों (अहिंसा पर जिनकी आस्था असंदिग्ध है) को भी एक साथ सम्मिलित कर लिया है।
मै सचमुच एक स्वतंत्र नागरिक होने के नाते यह जानना चाहता हूं कि क्या
दांतेवाड़ा की घटना के बाद आज हर नागरिक से यही कहा जाएगा कि तुम्हारे सामने अब इस देश में स्वतंत्र रहने के लिए दो ही विकल्प बचे हैं, जिसमें से एक को तुम्हे चुनना है -‘तुम माओवाद-नक्सलवाद के साथ हो? या सरकार और कार्पोरेट कंपनियों के साथ?’
क्या इसमें से किसी एक को चुनना संभव है? क्या हम अब अपने आपको सुरक्षित मानें?
आपको ये प्रश्न बहुत साधारण लग रहे होंगे, लेकिन मुझे लगता है, ये प्रश्न बहुतों के दिमाग में घूम रहे होंगे।
रही बात अरुंधती राय के ‘आउट्लुक’ में छपे लेख की तो उसको अगर गहराई से पढें तो वह किसी भी तरह की हिंसा (माओ-नक्सलवादी हिंसा, राज-संपोषित सलवा जुडुम और ग्रीन हंट जैसी हिंसा या सेना-अर्धसैनिक बलों की सीधी हिंसा) के पक्ष में नहीं है, बल्कि उसकी केंद्रीय चिंता जनता के प्रतिरोध के किसी ‘अहिंसक’ विकल्प के व्यर्थ हो जाने की हताशा और चिंता है।
लगता है जैसे ९/११ के बाद अमेरिका और शक्तिशाली देशों के सामने छोटे, कमज़ोर और अल्प-विकसित लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न देशों के राष्ट्रनायकों, जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को भी ‘आतंकवादी’ ठहरा दिया गया, लगता है हम इतिहास के उस मोड़ पर हैं, जब हमें यह मानने के लिए विवश कर दिया जाएगा कि इस देश की सारी संपदा, जल, जमीन, खनिज, हवा, पशु-पक्षी और मनुष्य सबके दोहन -खनन-क्रय-विक्रय का एकतरफा अधिकार सरकार को है।
इस पर किसी भी तरह के प्रश्न को उठाना खुद को जोखिम में डालना है।
अगली कडी का इंतज़ार है।
इसमें दो राय नहीं है कि जमीन और जंगल पर आदिवासियों का अधिकार होना चाहिए। लेकिन ये अधिकार कौन दिलाएगा। ये सरकार का काम है। ये काम माओवादी कर रहे हैं। सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत और आरामशाही से फुर्सत नहीं है। न ही सरकार के पास ऐसी कोई ठोस नीति है जिससे आदिवासियों का कल्याण हो। अब भूख के दलदल में फंसा आदिवासी क्या करेगा। उसे तो जीने के लिए मदद की दरकार है। अब ये मदद माओवादी कर रहे हैं तो जाहिर सी बात है आदिवासियों में उनकी पैठ बनेगी ही।
सोचना ज़रूरी है !
मेरे मन में भी उदय प्रकाश जी जैसे सवाल चल रहे हैं …
आज तो अरुंधती का बयान भी आया है की वे नक्सलवादी हिंसा के समर्थन में नही है ..मैंने उनका इंटर व्यू भी देखा था ..जैसा प्रचार किया जा रहा है वैसी बात बहुत हद तक नजर नही आई. सवाल वहीँ है अगर लाइन के इस पार या उस पार में से कोई एक पक्ष चुनना हो तब भारतीय मध्यम वर्ग क्या करेगा? जवाब की प्रतीक्षा रहेगी.
लगता है हम इतिहास के उस मोड़ पर हैं, जब हमें यह मानने के लिए विवश कर दिया जाएगा कि इस देश की सारी संपदा, जल, जमीन, खनिज, हवा, पशु-पक्षी और मनुष्य सबके दोहन -खनन-क्रय-विक्रय का एकतरफा अधिकार सरकार को है।
सबके सोचनेवाली बात है. सही कह रहे हैं उदय प्रकाश.
[…] दन्तेवाड़ा की जड़ें / सुनील Posted on अप्रैल 15, 2010 by Aflatoon […]
यह महज लेख नहीं है बल्कि अपने वक्त का दस्तावेज है। उदय प्रकाश जी ने बहुत गंभीर सवाल उठाया है….वह दिन दूर नहीं जब अंध राष्ट्रभक्त (नियो नाजी) आपसे सीधे-सीधे पूछेंगे कि आप किसके साथ हैं। मानवाधिकारों की बात करने वाले और अपने आपको आदर्श राजनीतिक दल बताने वालों का क्या हुआ….इस हमाम में सभी नंगे पाए जा रहे हैं।
…… अगली कडी का इंतज़ार है।
हिंसा चाहे किसी भी पक्ष की हो उसे सही कैसे ठहराया जा सकता है?
उदयप्रकाश जी की टिप्पणी में उठाए गए सवाल सोचने को मजबूर करते हैं।
पढ़ रहा हूं।
[…] ही की टिप्पणियाँ Sanjeet Tripathi on दन्तेवाड़ा की जड़ें / सुनीलसंजीव तिवारी on दन्तेवाड़ा की जड़ें […]
दंतेवाडा घटना ने और जिस प्रकार भारत सरकार और उसके प्रतिनिधि प्रचार माध्यमों ने उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे पूरा वातावरण भयपूर्ण हो गया है, देश को, जनता को आज आन्तरिक सुरक्षा ने नाम पर डरा कर लूट का व्यापार जारी रखने की साजिश का भाण्डाफ़ोड अरुनधति राय ने किया है, उनकी भारतीय मध्यवर्ग में अगर थोडी बहुत आडियन्स अगर न होती तब भारत सरकार अब तक एक बडी सैन्य कार्रवाही कर चुकी होती. सुनील के इस लेख ने भारतीय लोकतंत्र के भीतर पैदा हो रहे विकारों पर कायदे से चर्चा की है और आगे की कडियों में उसका और खुलासा देखने की आशा है. भाई उदय प्रकाश ने जो मूल प्रश्न उठाये हैं वह बहुत प्रासंगिक हैं.
हालात ऐसे बनाये जा रहे है कि आप युद्ध की उद्दघोषणा करें, बेगुनाह गरीब लाचार देशवासियों की हत्यायें करें और आप आंतरिक सुरक्षा के नाम पर यह सब होता देखें, बिना अफ़सोस किये? एक ऐसा संवेदन शून्य माहौल बनाना इस लिये भी आवश्यक है क्योंकि भारतीय मध्यवर्ग का एक हिस्सा अभी लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने लगा है लेकिन इसी वर्ग में अति प्रतिक्रियावादी शक्तियों की भी घुसपैठ है, नरेन्द्र मोदी, बाल ठाकरे, भगुआ हिंदू ब्रिगेड और मुस्लिम मध्य वर्ग मे इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों का बढ़ता प्रभाव ये तमाम प्रतिक्रियावादी शक्तियों की अमरनाल भी इसी से जुडी है. इसी मध्यवर्ग (कोई ३०० मिलियन) पर कांग्रेस भी आशायें लागाये बैठी है, प्रतिपक्षी दल भी, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी. इसी मध्यवर्ग को चीन का थेय्न आन मन चौक की घटनाओं को (१९९० दशक में) दिखाया गया था फ़िर जर्मन की टूटती दीवार, सोवियत संघ का विखण्डन और प्रजातंत्र की अजेय शक्तियों का महिमामण्डन करते करते, बाबरी मस्जिद का विधवंस देशवासियों को राष्ट्रीय चेनल पर देखने को मिला.
आज स्थिती इतनी पेचीदा हो गयी है कि यही मध्यवर्ग अरुंधति की बात भी गौर से देख रहा है और उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर लामबंध भी हो रहा है. मध्यमार्गी राजनीतिक दलों में भी भारी असमंजस की स्थिती बनी हुई है और एक भी दल ऐसा नही है जो पूरे देश के सामने खडा होकर यह कह सके कि जो हो रहा है वह गलत है.
पिछ्ले ६० सालों में भारतीय लोकतंत्र की जड में आदिवासियों और भूमिहीन गरीब किसानों के जिस तरह हाशिये पर रखा गया है वह अब कोढ बन चुका है, पूरे देश के विभिन्न हिस्सों को गौर से देखें तब इसका रिसाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता है, राज्य अपनी असफ़लताओं को तो दूर बात तो बहुत दूर है वह यह मानने के लिये ही तैयार नहीं है कि कुछ गलत हुआ है अथवा हो रहा है वरन वह अब हमलावर की भूमिका में खुद को स्थापित करता नज़र आ रहा है. ग्रीन हन्ट को कैसे ठीक ढंग से क्रियान्वित किया जाये इसकी मन्त्रणायें दिल्ली में नही वरन पेंटागन में भी हो रही है.
जिन आंदोलनों की चर्चा सुनील ने की है बेहतर हो कि वो सब दिल्ली में इकठ्ठे बैठे और कोई एक मंच बनायें और देश को, देशवासियों के समक्ष अपनी बात रखे ताकि मध्यवर्ग को भी पता चले कि जो अखबार वह पढते हैं उनके अंदर के पेज पर किसी छोटे से कालम में छपने वाली खबर के लोगों के चेहरे कैसे हैं? उनकी समस्यायें का हैं? उनके दुख दर्द क्या हैं? जेम्स केमरुन की अवतार फ़िल्म की चर्चा या केट मोस की तस्वीर के अलावा भारत के करोडों लोग ऐसे हैं जिनकी भद्दी तसवीरें उन्हे देखने को नहीं मिलती जिन्हे हम ’हाशिए का आदमी’ के नाम से जानते हैं.
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[…] The busiest day of the year was April 15th with 229 views. The most popular post that day was दन्तेवाड़ा की जड़ें / सुनील. […]
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Whetever be the problems. By killing tens, twenty, thirty people inhumanely can not get the besotted tribes their rights. After all those who have been killed are also advisis.
बहुत ही बढ़िया लेख था सर ।शानदार विश्लेषण