दंतेवाड़ा की घटना के बाद एक बार फिर माओवाद और उग्रवाद के पीछे विदेशी हाथ खोजने की कोशिश शुरु हो गई है। हथियार कहां से और किस रास्ते से आ रहे हैं, इसके अनुमान लगाए जा रहे हैं। इंटरनेट पर एक सज्जन ने पिछले सालों में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी धन के गृह मंत्रालय के आंकड़े पेश करते हुए पूछा है कि क्या उग्रवाद को इससे बढ़ावा मिल रहा है ?
मजे की बात है कि इन्हीं सज्जन के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में सबसे ज्यादा विदेशी धन प्राप्त करने वाले छः प्रांत दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा केरल हैं। देश में आने वाला 74 प्रतिशत विदेशी धन इन्हीं प्रांतो में जा रहा है। इनमें से मात्र एक ही प्रांत आंध्रप्रदेश माओवाद से प्रभावित है। छत्तीसगढ़, झारखंड या उड़ीसा में नाममात्र का विदेशी धन आ रहा है। इसलिए उग्रवाद-माओवाद का ठीकरा विदेशी धन पर फोड़ना मुश्किल है। उन्हें हथियार या मदद बाहर से मिलती भी होगी, तो वह गैरकानूनी छुपे तरीके से आएगी। लेकिन वह भी उग्रवाद-माओवाद का असली कारण नहीं हो सकती। यदि घर के सदस्यों में असंतोष नहीं है तो कोई पड़ोसी चाहकर भी परिवार में झगड़ा नहीं करा सकता। इसलिए बेहतर होगा कि देश के लोगों में असंतोष क्यों है , इस पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करें।
फिर भी इन आंकड़ों से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। कानूनी तरीके से, विदेशी योगदान नियमन कानून (एफसीआरए) के तरह देश में आने वाली राशि 1993-94 में 1865 करोड़ रु. से बढ़कर 2007-08 में 9663 करोड़ रु.यानी पांच गुनी से ज्यादा हो गई है। इस कानून के तहत पंजीकृत संस्थाओं की संख्या भी इस अवधि में 15,039 से बढ़कर 34,803 यानी दुगनी से ज्यादा हो गई है। हालांकि इनमें से 46 प्रतिशत संस्थाओं ने 2007-08 में अपना हिसाब गृह मंत्रालय को नहीं दिया है।
धन लेने-देने वाली संस्थाओं ने में सभी तरह की संस्थाएं हैं – चर्च की, हिन्दूवादी, मुसलमान किन्तु ज्यादातर अधार्मिक हैं। वर्ष 2007-08 में भारत को सबसे ज्यादा दान देने वाली प्रमुख संस्थाएं है: वल्र्ड विजन, संयुक्त राज्य अमरीका (578 करोड़ रु), फाउन्डेशन विसेन्टे फेरर, स्पेन (406 करोड़ रु.), गोस्पेल फोर एशिया, संयुक्त राज्य अमरीका (365 करोड़ रु.) ब्रम्हानंद सरस्वती ट्रस्ट, ब्रिटेन (209 करोड़ रु.) एक्शन ऐड इंटरनेशनल (184 करोड़ रु.), प्लान इंटरनेशनल, सं०रा० अमरीका (152 करोड़ रु.) ऑक्सफेम इंडिया ट्रस्ट, ब्रिटेन (133 करोड़ रु.), डॉ. विक्रम पंडित, सं०रा० अमरीका (133 करोड़ रु.) क्रिश्चियन चिल्ड्रन फंड, सं०रा० अमरीका (127 करोड़ रु.) कंपेशन इंटरनेशनल सं०रा० अमरीका, क्रिश्चियन ऐड ब्रिटेन, स्वामी नारायण हिन्दू मिशन, ब्रिटेन आदि। जो लोग यह प्रचार करते हैं कि विदेशी धन के कारण भारत में धर्म परिवर्तन होता है या उग्रवाद फैलता है वे देख सकते हैं कि अब ‘हिन्दू मदद’ भी पीछे नहीं है। अयोध्या में राममंदिर बनाने के लिए दो दशक पहले जब अभियान चला था, तब भी अरबों रुपया विदेशों से आया था। और यह ‘हिन्दू हाथ’ इतना तगड़ा था कि इस लेन-देन में कर-चोरी की जांच करने की हिम्मत करने वाले आयकर विभाग के एक बड़े अफसर को पद से हटना पड़ा था। इसलिए इस विदेशी धन को किसी एक सम्प्रदाय के खिलाफ प्रचार का बिन्दु नहीं बनाया जा सकता। दरअसल इस विदेशी धन पर जो सवाल उठने चाहिए, वे दूसरे हैं। वे यह कि इनका भारत के सामाजिक-राजनैतिक जनजीवन पर क्या असर पड़ रहा है ? इनकी क्या उपादेयता है ?
भारत के अंदर बढ़ती हुई विदेशी धन की मौजूदगी को अब हर जगह महसूस किया जा सकता है। समाज सेवा और विकास का काम करने वाले एन.जी.ओ की अचानक बाढ़ आ गई है। हर जिले में ही नहीं, हर प्रखंड मंे अब दर्जनों एनजीओ कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। कई एनजीओ अच्छा काम भी कर रहे हैं,किन्तु उनकी संख्या कम है। ज्यादातर लोगों के लिए यह एक धंधा या रोजगार है। उनमें निःस्वार्थ सेवा, परोपकार एवं समर्पण की भावना कम रह गई है। लोगों का नजरिया भी उनके प्रति वैसा ही बनता है। जिनको वेतन मिलता है, वे ही उस काम को करें – ऐसा सोचने के कारण आम लोगों की स्वतःस्फूर्त भागीदारी भी उसमें कम होती है। विदेशों से या देशी फंडिंग एजेन्सी से धन मिलने का एक और दुष्परिणाम होता है। इन एनजीओ को चूंकि अपने काम व खर्च के लिए स्थानीय स्तर पर दान नहीं जुटाना पड़ता है, उन्हें स्थानीय समाज को अपने काम के बारे में बताने एवं संतुष्ट करने की जरुरत नहीं पड़ती। कई बार स्थानीय लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे क्या कर रहे हैं। समाजसेवा एवं परोपकार के काम मूलतः स्थानीय पहल, भागीदारी और उद्यम के स्वतःस्फूर्त काम हुआ करते थे। इसके एनजीओकरण और विदेशी धन की बाढ़ आने से ये सारे गुण गायब हो गए हैं। इनका चरित्र ही बदल गया है।
बाहर से, ऊपर से, पैसा आने के और भी दुर्गुण हैं। जो अंग्रेजी में बढ़िया प्रोजेक्ट एवं अच्छी रपट बना सकता है, प्रभावित कर सकता है, तिकड़मी है, वह व्यक्ति महत्वपूर्ण बन जाता है। ऊपर के लोगों का वेतन और सुविधाएं भी खूब होती हैं। वे अक्सर हवाई जहाज और महंगी गाड़ियों में ही चलते हैं। इनके अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों, सलाहकारों और पदाधिकारियों का तो स्तर भी अंतरराष्ट्रीय होता है। पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित सभागारों में गरीबी और कुपोषण पर सेमिनारों में लाखों -करोड़ों खर्च कर दिया जाता है। दूसरी ओर नीचे के दीन-हीन कार्यकर्ता हजार-दो हजार रुपट्टी में किसी तरह से अपनी गाड़ी खींचतें हैं।
विदेशी धन के उपयोग की पांच प्रमुख मदें इस प्रकार हैं:- स्थापना खर्च 3422 करोड़ रु., ग्रामीण विकास 1781 करोड़ रु., आपदा राहत एवं पुनर्वास 1689 करोड़ रु., बाल कल्याण 1334 करोड़ रु. एवं शिक्षा 1206 करोड़ रु.। इन आंकड़ों से भी साफ है कि जो असल घोषित काम हैं,उनसे ज्यादा धन जमीन खरीदने, इमारतें बनाने, दफ्तर साज सज्जा, फर्नीचर, वाहनों आदि पर खर्च हो रहा है।
इनमें से कई संस्थाएं साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बचत समूह, रोजगार, पर्यावरण, जल संरक्षण आदि के क्षेत्र में अच्छा काम कर रही हैं। छोटे स्तर पर काम काफी प्रभावशाली दिखाई देता है। किन्तु उनका देश के स्तर पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ? सवाल यह भी है कि बचत समूह बनाकर और रोजगार के अवसर पैदा करके या कुछ प्रखंडों में नरेगा की गड़बड़ियों उजागर करके क्या देश की बेरोजगारी एवं गरीबी की समस्या दूर की जा सकती है ? कुछ आंगनवाड़ियां खोलकर व पोषण आहार देकर क्या भारत के बच्चों व महिलाओं की कुपोषण की गंभीर स्थिति दूर की जा सकती है ? जब सरकार शिक्षा के व्यावसायीकरण की छूट देते हुए सरकारी शिक्षा व्यवस्था बरबाद करने पर तुली हो, तो साक्षरता के कुछ कार्यक्रम चलाकर या कुछ स्कूल खोलकर क्या देश की अशिक्षा दूर की जा सकती है ? जो काम सरकार का है, और जिससे वह दूर भाग रही है, उसकी जगह क्या विदेशी धन से चलने वाले ये एनजीओ ले सकते है? ये महत्वपूर्ण नीतिगत और व्यवस्था के सवाल हैं, जिनसे आमतौर पर ये संस्थाएं मुंह चुराती हैं। बल्कि, निजीकरण और उदारीकरण की राह पर चलने वाली सरकारों के लिए ये एनजीओ सुविधाजनक भी हैं। वे अपनी जिम्मेदारी इन पर डाल देती हैं। इसीलिए विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक को भी एनजीओ बहुत प्रिय हैं। उनकी हर परियोजना में इनके लिए जगह जरुर होती है। विदेशी फंडिंग के इस राजनीतिक पहलू को भी देखना पड़ेगा।
इसलिए भूकम्प, तूफान या बाढ़ जैसी आपदाओं में तो दुनिया में कहीं से भी मदद ली जा सकती है, किन्तु देश की पूरी आबादी की शिक्षा और इलाज की समुचित व्यवस्था का काम देश के संसाधनों से ही हो सकता है, विदेशी दान से नहीं। इसी तरह गरीबी, बेरोजगारी व कुपोषण को दूर करने का काम व्यवस्था-परिवर्तन से ही होगा, विदेशी धन से चलने वाले छिटपुट कार्यक्रमों से नहीं।
विदेशी धन का यह जाल इतना फैल चुका है कि अब देश में किसी मुद्दे पर जन आंदोलन होता है, तो वहां भी किसी न किसी तरह की फंडिंग पहुंच जाती है। कुछ आंदोलन तो सतर्क और सचेत रुप से स्वयं को अलग रखते हैं, लेकिन बाकी का एजेन्डा तथा चरित्र प्रभावित होने लगता है। फिर सैंकड़ों की संख्या में एडवोकेसी संगठन तो हैं ही। वे अपने-अपने क्षेत्र में तो बढ़िया काम करते हैं। लेकिन वे एक मुद्दे तक सीमित रहते हैं। आगे बढ़कर, व्यवस्थागत कारणों को पहचानकर, समग्र परिवर्तनकारी आंदोलन छेड़ने का काम नहीं हो रहा है, तो उसका एक कारण यह फंडिंग है। यह काम एक वैचारिक-राजनैतिक काम है और उसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी धन नहीं देती है। विदेशी धन से यह काम होगा भी नहीं। फिर नए आदर्शवादी नौजवान भी अब फंडिग से चलने वाले इन कामों में फंस जाते हैं। उन्हें ज्यादा त्याग या कष्ट भी नहीं करना पड़ता है और वे क्रांतिकारी बातों तथा समाजसेवा भी कर सकते हैं। अपना लोक और परलोक दोनों सुधारने का नायाब तरीका विदेशी धन के इस प्रवाह ने दे दिया है। लेकिन इस चक्कर में व्यवस्था-परिवर्तन और देश के नवनिर्माण का जरुरी काम नहीं हो पा रहा है।
आज देश की सभी राजनैतिक धाराएं और राजनैतिक दल भी विदेशी धन प्रवाह के इस जाल से अछूते नहीं हैं, चाहे वे गांधीवादी हों, समाजवादी हों, कम्युनिस्ट हों या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो। लगभग ढाई दशक पहले माकपा नेता प्रकाश करात ने विदेशी धन से चलने वाले कामों को साम्राज्यवाद का औजार बताते हुए लेख लिखे थे, जिन पर काफी बहस चली थी। लेकिन आज माकपा-भाकपा से जुडे़ लोेग करीब-करीब हर जगह विदेशी धन से एनजीओ चला रहे हैं। मध्यप्रदेश के संघ से जुड़े एक नेता एवं सांसद ने तो नर्मदा बचाने के नाम पर एक एनजीओ बना लिया है और दो वर्ष में एक बार वे लाखों रुपया खर्च करके नर्मदा तट पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार करते हैं। जिस नर्मदा की पैदल ‘परकम्मा’ हजारों सालों से चली आ रही है, उसकी हेलिकॉप्टर से यात्रा करके उन्होंनें एक नयी परंपरा कायम की है।
भारत की सरकारों का विदेशीकरण काफी पहले से चला आ रहा है। लगभग हर मंत्रालय में उन्हीं कार्यक्रमों व योजनाओं पर जोर होता है, जिनके लिए किसी विदेशी या अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी से धन मिल रहा हो। भारतीय अर्थव्यवस्था में भी विदेशी कंपनियों एवं विदेशी पूंजी की घुसपैठ भी काफी बढ़ चुकी है। भारतीय शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, अनुसंधान भी गहरे विदेशी प्रभाव में हैं और अब तो विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भी देश के दरवाजे खोलें जा रहे हैं। ऐसी हालत में देश के हितों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी आम जनता की पहल, सामाजिक संगठनों और जनांदोलनों पर आ पड़ी है। लेकिन वहां भी विदेशी धन की इतनी घुसपैठ एवं दखलंदाजी क्या चिंता की बात नहीं है ? हम चाहे हर चीज में साजिशें न देखें, तो भी क्या इससे हमारी जन-पहलों, सामाजिक अभियानों और आंदोलनों का एजेन्डा, प्राथमिकताएं और चरित्र भी प्रभावित नहीं होता ? क्या इससे देश का विदेशीकरण संपूर्ण नहीं बनता ?
यह कहा जा सकता है कि हमें देशी-विदेशी के संकीर्ण घेरों में नहीं सोचना चाहिए। यदि अच्छे काम में कहीं से भी मदद मिलती है तो लेने में क्या हर्ज है ? फिर हम तों विश्वबंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास करते हैं। ऐसे भोले तर्क देने वालों के लिए एक जानकारी और है। भारत में बाहर से आने वाला 90 प्रतिशत दान चंद अमीर देशों से आता है, जिनमें भी संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन जर्मनी के तीन देशों का बहुत बड़ा हिस्सा है। तो हमारा विश्वबंधुत्व या कुटुम्ब या सहयोग थोड़े से अमीर पूंजीवादी देशों तक ही सीमित हो जाता है। इस एकतरफा प्रवाह में कोई छुपा साम्राज्यवादी स्वार्थ नहीं होगा, क्या ऐसा गारंटी से कहा जा सकता है ?
इस मामले में गांधी का एक प्रसिद्ध उदाहरण है, वह हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। गांधी ने बहुत सारे रचनात्मक काम चलाए, पूंजीपतियों से भी सहयोग लिया और आम जनता से भी बराबर दान मांगते रहे, किन्तु विदेशी धन के चक्कर में वे नहीं फंसे। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ चल रही बहस में उन्होंने लिखा था –
‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा मकान चारों तरफ से बंद हो और खिड़कियां भी बंद होने से मेरा दम घुटे। मैं चाहता हूं कि सब जगह की संस्कृतियों की हवा मेरे मकान के आसपास बहती रहे। किन्तु मैं ऐसी हवा नहीं चाहता हूं कि मेरे पैर ही उखड़ने लगें। मैं दूसरों के घर में घुसपैठिये, भिखारी या गुलाम के रुप में रहने से इंकार करता हूं।’’
भारत के सामाजिक-राजनैतिक जीवन में विदेशी धन की यह आंधी कहीं हमारे पैर तो नहीं उखाड़ रही है? कहीं हमें भिखारी या गुलाम तो नहीं बना रही है ? इस अर्थ में ‘विदेशी हाथ’ के इस खतरे को देखने और मनन करने का वक्त आ गया है।
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– सुनील,
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) पिन कोड: 461 111 मोबाईल 09425040452
बहुत ही उत्तम लिखा है आपने ।
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Sunil ji! Lots of wishes for writting for deprived families and the politics behind it. We need daring peoples like you, who can show off the true picture to world. Again Best Wishes,
Divya Gupta Jain,
09300098825
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nice