जैसे बीज पुकारता है बीज को
जैसे खोज पुकारती है खोज को
जैसे राह पुकारती है राह को
शब्द, शब्द को पुकारते हैं
मैं न शब्दों को ढूंढ़ता हूं
न उन्हें गढ़ता हूं
न उन्हें चुनता हूं
न उन्हें सजाता हूं
मैं सिर्फ सुनता हूं
जब शब्द , शब्द को पुकारते हैं
और देखता हूं
शब्द आते हैं
हाथ से हाथ मिलाते
खड़े हो जाते हैं जैसे कोई दीवार हो
शत्रुओं के खिलाफ़
इस तरह मैं बचता हूं
उधार के शब्दों से .
– राजेन्द्र राजन .
१९९५.
शब्द आते हैं
हाथ से हाथ मिलाते
खड़े हो जाते हैं जैसे कोई दीवार हो
शत्रुओं के खिलाफ़
इस तरह मैं बचता हूं
उधार के शब्दों से .
शब्द की ताकत को इस तरह रेखांकित करती एक सशक्त कविता।
आपके जरिये राजनजी की कविताई से परिचित हुआ और कह सकता हूं
कि अब से वे मेरे प्रिय कवि हैं। उनके शब्द सहज ,सरल , सशक्त और याद रखने लायक हैं। शुक्रिया ।
राजन जी को साधुवाद।
[…] https://samatavadi.wordpress.com/2008/07/06/shabd3_rajendra_rajan/ http://shaishav.wordpress.com/2008/07/06/shabd2_rajendra_rajan/ http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2008/07/06/shabd_rajendrarajan/ […]
i read about you on the editorial of “hindustan” newspaper. i am greatly influenced by your poems.I feel there is a need of a special kind of revolution in our country in this era. but i dont know how it will come but sure your work are going to be halpful in this. May god bless you.