काफी दिनों से रोज़ – रोज़ की बेचैनियां इकट्ठा हैं
हमारे भीतर सीने में भभक रही है भाप
आंखों में सुलग रही हैं चिनगारियां हड्डियों में छिपा है ज्वर
पैरों में घूम रहा है कोई विक्षिप्त वेग
चीज़ों को उलटने के लिए छटपटा रहे हैं हाथ
मगर नहीं जानते किधर जाएं क्या करें
किस पर यक़ीन करें किस पर सन्देह
क्या कहें किससे किसकी बांह गहें
किसके साथ चलें किसे आवाज़ लगाएं
हम नहीं जानते क्या है सार्थक क्या है व्यर्थ
कैसे लिखी जाती है आशाओं की लिपि
हम इतना भर जानते हैं
एक भट्ठी – जैसा हो गया है समय
मगर इस आंच पर हम क्या पकाएं
ठीक यही वक़्त है जब अपनी चौपड़ से उठ कर
इतिहास पुरुष आएं
और अपनी खिचड़ी पका लें
– राजेन्द्र राजन .
इतिहास पुरुषों की व्यर्थ और
स्वार्थ बद्ध (कु) चेष्टाओं को
अनावृत्त करती एक सार्थक रचना.
दुःख-दर्द से बेज़ार अवाम को अपनी
अमरता का औज़ार बनाने वालों पर
कड़ा प्रहार…!
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
यह एक सुन्दर हिन्दी कविता है, मुझे पसंद आयी!
[…] मौके कैसे होंगे उसका नमूना उन्होंने पेश किया बजरिये अपने पसंदीदा कवि राजेन्द्र […]
हम सोएँ और लोग आगे आएँ…पुराना गाना…तुम आ गए हो, नूर आ गया है…हमारे आने की कोई जरूरत नहीं है…