क्या ओबामा की जीत अमेरिका में इतना बदलाव ला सकेगी जिसका असर दुनिया पर पड़े ?
यह जॉर्ज बुश के राष्ट्रपतित्व के आठ सालों के दरमियान अमेरिका की छवि और औकात के व्यापक नुकसान का एक पैमाना माना जाएगा जो निर्वाचित राष्ट्रपति ओबामा ने मंगलवार की रात अपने विजय-भाषण का एक छोटा-सा हिस्सा शेष विश्व को अपना पैगाम देने के लिए मुकर्रर किया था । सरहद- साहिल के पार से उस रात देखने वालों से मुख़ातिब हो उन्होंने कहा कि अमेरिकी रहनुमाई की एक नई सुबह हो रही है ।
अमेरिका के खुद के नागरिकों से करार को नए सिरे स्थापित करने के ओबामा के वादे ने इस चुनाव में पूरी बाजी उनके हाथ कर दी । पूरी दुनिया के लोगों ने उत्साहपूर्वक उनका साथ दिया , इस उम्मीद के साथ कि वे सैन्यवाद की राह का अन्त करेंगे तथा अमेरिकी विदेश नीति को घेरे राजनय-विरोधी प्रभा-मण्डल को भी समाप्त करेंगे । इलिनॉय के सेनेटर न सिर्फ़ राष्ट्रपति बुश द्वारा इराक पर हमले के शुरुआती आलोचकों में थे बल्कि बुश शासन की अन्य ज्यादतियों , जैसे संदिग्ध आतंकियों को ग्वान्टानामा की काल कोठरियों में लम्बे समय बिना मुकदमा चलाये बन्द रखने एवं यातना देने का भी उन्होंने कड़ा विरोध किया था। इरान के मसले पर बुलन्द और प्रतिकूल स्वर में उन्होंने इस्लामी गणराज्य से बातचीत की वकालत की थी । तेहरान के खिलाफ़ फौजी कार्रवाई के विकल्प को भी ढके तौर पर रखते थे परन्तु इसराइली अपराधों पर उनका हमलावर रुख रहता था । उनकी इन चूकों को दुनिया की जनता नजरअन्दाज करती थी । यह रुख न होता तो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें ‘ न चुने जाने लायक’ करार दे कर खारिज कर कर देता।
उग्र अंतर्राष्ट्रीय तब्दीलियों के वाहक के रूप में ओबामा की छाप की कल्पना हमेशा कुछ मुशकिल रही है क्योंकि डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के साथ ख़याली आकांक्षाएं और उम्मीदें जुट जातीं थीं , बजाए इसके कि अमेरिकी शासन व्यवस्था द्वारा दुनिया के प्रति नया रवैय्या अपनाने का यह कोई गंभीर आकलन होता । अमेरिकी नेतृत्व के प्रकाश-स्तम्भ को यदि जगमगाते रहना है ( ओबामा के अल्फ़ाज़ ) तो निर्वाचित राष्ट्रपति को दस महत्वपूर्ण मसलों पर अमेरिकी नीति को बदल देने में अपनी काबीलियत दिखानी होगी । चूँकि इन्हें लागू करने के लिए अर्थव्यवस्था में किसी मौलिक परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए यह कदम मुमकिन हैं।
ईरान
ईरान का परमाणु मसला मिस्टर ओबामा के लिए सबसे गंभीर चुनौती होगा । यह सबसे गम्भीर चुनौती इसलिए नहीं है कि ईरान ने परमाणु अस्त्र बना लिए हों – अब तक इसके कोई प्रमाण नहीं हैं । बल्कि बुश प्रशासन द्वारा इस मसले पर दुनिया को मुठभेड़ की दिशा में आहिस्ता आहिस्ता धकेलने की प्रक्रिया को उलटने का कोई तरीका निकालना होगा। राष्ट्रपति ओबामा को ईरान के साथ द्विपक्षीय बातचीत शुरु करनी होगी , परमाणु मुद्दे और अन्य सभी मुद्दों पर पुराने चले आ रहे क्षेत्रीय विवादों के समाधान की दिशा में एक ‘बेहतर सौदा’ तय करना होगा ।
इसराईल
यहूदी राष्ट्रवाद के हक में जोरदार समर्थन प्रकट करने के बावजू्द रा्ष्ट्रपति ओबामा को टेल अविव के प्रति वाशिंगटन की घातक आसक्ति से विरत रहना होगा जब फिलीस्तीनियों पर अन्यायपूर्ण अन्तिम समाधान थोपने के लिए इसराईल फिलीस्तीनी वसाहतों को उजाड़ने में लगा है ।
इराक
अमेरिका द्वारा इराक पर ढाए गए नुकसान को दुरुस्त करने के लिए कम-से-कम अमेरिकी फौज की समयबद्ध वापिसी तथा इस बात का पक्का आश्वासन देना होगा कि एक निश्चित तारीख के बाद इराक में अमेरिका की फौजी मौजूदगी किसी भी रूप में नहीं रहेगी । इसके अलावा राष्ट्रपति ओबामा को इराक के पड़ोसी देशों का एक सम्मेलन बुलाना चाहिए जिसमें ईरान और सीरिया जैसे मुल्क शरीक हों जो जंग से तहस-नहस इराक को फिर अपने पाँवों पर खड़ा होने में सहयोग दें तथा बुनियादी ढाँचे को कायम करने के लिए आर्थिक मदद मुहैय्या की जाए ।
अफ़गानिस्तान
फौजी कार्रवाई की जो कल्पना मि. ओबामा के मन में उमड़ रही है उससे करजई की हुकूमत को सिर्फ़ वक़्ती राहत मिल सकती है । यदि बेतहाशा ताकत का इस्तेमाल जारी रहा तो मुमकिन है हालात और भी बिगड़ जांए ।यदि तालिबानी बगावत का हल खोजना है तब हमें अफगानी अगुवाई में प्रत्यातंकी ( counter insurgency ) कार्रवाई पर नए सिरे से जोर देने तथा ईरान , रूस , भारत और चीन की शिरकत से एक क्षेत्रीय हल अपनाना होगा ।
[ जारी , अगली किश्त समाप्य ]
लेखक की इजाजत से, तर्जुमा – अफ़लातून , मूल लेख
अनुवाद उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया।।
इतना तो तय है कि भले ही ओबामा को एक छोटा सा हनीमूनी अंतराल मिलेगा तब भी अमरीकी राष्ट्रपति बनने है।के लिहाज से ये सबसे आनंदकारी वक्त नहीं है।
ओबामा के आगे बहुत बडे बडे और गँभीर मुद्दे हैँ फिलहाल अमरीकाको पहले श्थिर करना भी निहायत जरुरी है –
Good article – Thanx for the translation Aflatoonjee
– लावण्या
चुनाव जीतने के लिए, ओबामा अपने दिए गए भाषणों को हकीकत में बदल सकेंगे, इसमें सन्देह ही है । ‘सुपर पावर’ बने रहने के लिए अमरीकी किसी भी हद तक जा सकते हैं और जो अमरीका को इस ‘स्टेटस’ से इंच भर भी नीचे लाना चाहेगा, उसकी हत्या कर दी जाएगी ।
बैरागी जी से सहमत, अमेरिकी सिर्फ़ और सिर्फ़ “अमेरिकी” होते हैं, ठीक “चीनियों” की तरह, उनकी तरह बनने के लिये अभी हमें एक सदी का इन्तजार और करना होगा… हमारे यहाँ देश सर्वोपरि नहीं होता, वोट सर्वोपरि होता है… यह मूल और बड़ा अन्तर है अमेरिका और भारत के “लोकतन्त्र” में…
[…] गत भाग का शेष : […]
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